हमारे बाबूजी, यानि जो कभी नहीं थकते ............मैं सोचता हूँ....कभी कभी ..........क्या ये सिर्फ मेरे पिता का स्वाभाव है या इस दुनिया के सभी पिताओं का ?...ऐसे कई सवाल मेरे मन में हमेशा आते रहे हैं ..जिसकी वजह से मैं अपने बाबूजी और दूसरों के पिताओं में फर्क करने की मन ही मन कोशिश करता रहता हूँ। चुकी मेरी नज़रों में मेरे बाबूजी ही मेरे हीरो हैं, तो मुझे वो हमेशा एक सर्वश्रेष्ठ पिता लगे..पर क्या बाबूजी को सिर्फ एक पिता की परिधि में बांध देना उनके साथ अन्याय नहीं होगा?
नाम बासुकी पासवान , पेशे से सरकारी नौकर, जन्म-घोरघट, मुंगेर, बिहार।
पर मैं अपने बाबूजी के पेशे से इत्तेफाक नहीं रहता ....सरकारी नौकरी तो वो अपने नौ लोगों के बड़े परिवार का पेट पालने के लिए करते रहे हैं। असल में उनके जीवन के १९-२० वें साल से ही वो समाज में इस कदर रच बस गए की फरक करना मुश्किल है की समाज उनमे घुल मिल गया है या वो समाज में घुल गए हैं ?...समाजसेवा- कई रूपों में, मसलन दलित बस्ती में स्कूल खोलने से लेकर नाटकों का मंचन करने तक । एक समाजसेवी और एक पिता या एक रंगकर्मी या फिर एक मुकम्मल इंसान ? बाबूजी के बारे में सोचने पर ऐसे ही कई रूपों में वो मेरे जेहन में बिजली की चकाचौंध की तरह आते जाते हैं। मैं इस उधेड़बुन से कभी निकल नहीं पाया या शायद निकलना ही नहीं चाहता। पर बाबूजी को जानने के लिए उनके जीवन के कुछ अंशों की पड़ताल जरुरी है। मसलन, बचपन में माँ का गुजर जाना, पिता की बेरुखी, भाई की मौत, सौतेली माँ का अत्याचार और पारिवारिक दुश्वारियों से इतर जिंदा रहने की जद्दोजहद तक। अपने स्कूल के लिए घंटों पैदल चलना हो या पेट की भूख मिटाने के लिए कच्ची लौकी खाना हो, दुश्वारियों ने कभी बाबूजी का पीछा नहीं छोड़ा . सौतेली माँ की बेरुखी और तन ढकने के लिए अदद एक जोड़ी कपडे को तरसते....जिंदगी जब यातनागृह बन जाये तो व्यक्ति का स्वाभाव विद्रोही हो ही जाता है. तभी तो उन्होंने जिद की हद तक जाकर अपनी मंजिल का सफ़र बदस्तूर ज़ारी रखा..। यातनाओं का ये सफ़र आज थम भले ही गया हो पर संघर्ष आज भी जारी है.मुद्दा बदल गया है पहले जिंदगी के हर कतरे के लिए संघर्ष फिर, गावं वालों को ग्रामीण सामंतों के अत्याचार से मुक्ति दिलाने से लेकर दलित बस्ती में शिक्षा की ज्योत जलाने के लिए स्कूल खोलने और गावं के युवकों को सरकारी नौकरियों में भारती करवाने के लिए दिल्ली तक का चक्कर लगाने तक कभी वो रुके नहीं..और उनका ये सफ़र आज भी बदस्तूर ज़ारी है. खैर, वर्तमान से पहले अतीत की थोड़ी पड़ताल जरुरी है। गंगा के किनारे, छोटा सा गावं घोरघट। वैसे घर से कुछ क़दमों की दूरी पर एक छोटी सी नदी और बहती थी...मणि नदी । इन गुजरे हुए सालो में वक़्त और ये नदी एक मामले में समानता रही की जिस तरह से लोगों के मनों में दूरियां बढ़ी उसी गति से इस नदी ने अपना विस्तार किया है। ६० का दशक रहा होगा जब बाबूजी का जन्म हुआ था..मेरे परदादा, बंगाली पासवान अपने ससुराल में बस गए थे, मेरे दादाजी अगर्जीत, यही नाम था. अपने ननिहाल के लाड में पाले बढे, खिलान्दर्पन उनके मिजाज़ का हिस्सा बन गया था..वो पूरे जीवन यारबाजी से ईन्धन लेकर हँसता-मुस्कुराता रहे ..ये अलग बात है की उनकी हंसी परिवार में न तो खुशियाली ला सकी ना ही मेरे बाबूजी के आंसुओं को देख सकी . बाबूजी को भी जीवन की मुश्किलों ने जीवट बना दिया था... मुश्किलों ने ही शायद उन्हें इतना मज़बूत बना दिया और जिद्दी भी.
मेरे दादाजी वैसे तो रेलवे वोर्क्शोप जमालपुर में नौकरी करते थे पर भारत की आजादी की लराई में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी...बाबूजी के जनम से पहले उनका एक बार भाई भी था नाम मुझे अभी याद नहीं आ रहा..मेरे बाबूजी की माताजी यानि मेरी दादी पास के ही एक गान से ब्याह कर लायी गयी थी...लोग कहते हैं मेरे दादी का चेहरा डेप की तरह चमकता था। उसका प्रभाव मेरे बाबूजी के व्यक्तित्व पर भी परा। ये अलग बात है की मेरी दादी बाबूजी को बचपन में ही छ्रकर चली गयी... बचपन में माँ का गुजर जाना ....फिर सौतेली माँ का आगमन... शायद दुखों का पहर टूटना इसी को कहते हैं। jaari
बढ़िया प्रस्तुति ...
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