बौद्ध दर्शन के 'पुनर्भव' का मतलब पुनर्जन्म नहीं है ! ----------------------------------------------------
बौद्ध दर्शन के 'पुनर्भव' का मतलब पुनर्जन्म नहीं है !
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जिस तरह भगवान बुद्ध ने भव शब्द से 'पुनब्भव' शब्द का प्रयोग किया है, क्या उसी तरह उन्होंने जाति शब्द से पुनज्जाति शब्द का प्रयोग किया है ? यदि भगवान 'पुनज्जाति' शब्द का प्रयोग करते तो जाति=जन्म के आधार पर 'पुनर्जाति' या 'पुनर्जन्म' अनुवादित किया जा सकता था. पर मुझे लगता है कि पुनब्भव का अनुवाद पुनर्जन्म किया गया है. ये अनुवाद गलत है. मेरा सुझाव है कि भव और भवचक्र को आसानी से समझने के लिए आप पुनर्भव का अर्थ पुनर्जन्म मत कीजिए. 'पुनःभव' को व्यक्ति की इसी जिंदगी में देखिए. 'पुनर्जन्म' शब्द मरने के बाद के सफर की संकल्पना है, इसलिए पुनर्जन्म शब्द को विल्कुल अलग रख लीजिए. ऐसा करने से पुनर्भव के चक्र को समझना आसान हो जाता है. अविछिन्नता (continuity) पुनर्भव की विशेषता है, और ये एक ही व्यक्ति की जिंदगी से सम्बंधित है. जबकि पुनर्जन्म की संकल्पना एक शरीर से दूसरे व्यक्ति के शरीर में जाने से सम्बंधित है जिसमें अविछिन्नता का उच्छेद हो जाता है. इसलिए पुनर्भव को पुनर्जन्म कहने से पुनब्भव का सिद्धांत समझने में बेहद जटिल हो जाता है. प्रस्तुत लेख में केवल पुनर्भव को समझने की कोशिश की है. पुनर्जन्म, जो बुद्ध वाणी में थोपा हुआ है, की विस्तृत समीक्षा पृथक लेख में करेंगे.
बौद्ध-दर्शन की शब्दावली में आए दो शब्दों-- 'भव' और 'जाति' (उत्पन्न होना=जन्म) पर ध्यान देने से पता चलता है कि दोनों शब्दों का सम्बन्ध व्यक्ति की वर्तमान जिंदगी से है. भव के बाद जाति की अविच्छिन्नता (continuity) है. अविच्छिन्नता का अर्थ है होने का अनवरत जारी रहना. मतलब बुद्ध के सिद्धांत में भव का सम्बन्ध व्यक्ति से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं है. यदि सम्बन्ध जोड़ते हैं तो अविच्छिन्नता खत्म हो जाती है. सवाल ये कि किसका अनवरत जारी रहना ? विज्ञान-प्रवाह का अनवरत जारी रहना. इसलिए इसे विज्ञान-प्रवाह की अविच्छिन्नता कहा गया है. इस तरह पुनर्भव का अर्थ हुआ--"परिवर्तनशील और गतिशील शरीर में नवीन और परिवर्तनशील विज्ञान का निरन्तर प्रवाह.
बौद्ध-दर्शन के पुनर्भव को समझने के लिए सर्वप्रथम विज्ञान, भव, जाति (उत्पन्न होना) शब्दों का अभिप्राय समझ लेते हैं --
(1) भव-- बौद्ध-दर्शन में भव क्या है ? 'होना' भव है. शरीर (चार महाभूतों- पृथिवी, जल, वायु, तेज से बना एक विशिष्ट आकार) और शरीर से संलिप्त चित्त (विज्ञान) का संयोग 'भव' है. परिवर्तनशील भौतिक शरीर से परिवर्तनशील चित्त व्यवहार या क्रिया कराता है. इस तरह शरीर और चित्त का संयुक्त रहना व्यक्ति की जिंदगी के लिए अति आवश्यक है. इसके तीन प्रकार है--- काम भव, रूप भव और अरूप भव.
(2) जाति (उत्पत्ति=जन्म)-- उत्पन्न होना जाति है. भगवान कहते हैं- ‘भव के कारण जाति होती है’, यह जो कहा इसे आनन्द ! इस प्रकार जानना चाहिये । यदि आनन्द ! सर्वथा .. सब किसी का कोई भव न होता, जैसे कि काम-भव, रुप-भव, अ-रुप-भव; तो भव के सर्वथा न होने पर, भव के सर्वथा अभाव होने पर, भव के निरोध होने पर, क्या आनन्द ! जन्म दिखाई पड़ता ?”
“नही भन्ते ।”
“इसलिये आनन्द ! जन्म का यही हेतु है, जो कि यह भव ।” जन्म दिखाई पड़ने का यही कारण है. आदमी वही पर भौतिक और मानसिक परिवर्तन पर लगातार नजर रखने पर जन्म दिखाई देता रहता है. सही मायनों में शरीर और चित्त दोनों का जन्म होता रहता है. महासतिपट्ठान में बुद्ध कहते हैं, " भिक्खुओं ! जन्म (=जाति) क्या है ॽ उन उन प्राणियों का उन उन योनियों (इसी जिंदगी की विभिन्न अवस्थाएं) में जो जन्म=सजाति,=अवक्रमण=अभिनिर्वृत्ति, (भौतिक और अभौतिक) स्कंधोका प्रादुर्भाव, आयतनो (=इन्द्रिय-विषयो) का लाभ है, यही भिक्खुओं । जन्म कहा जाता है ।"
(3) विज्ञान-- बौद्ध-दर्शन के सिद्धांत में 'विज्ञान' क्या है ? यहां इस 'विज्ञान' शब्द को समझने किए कुछ समय के लिए साइंस अर्थ वाले 'विज्ञान' को भूल जाइए. यहां विज्ञान का मतलब एक अर्जित चित्त या प्रवृत्ति है. यही भौतिक शरीर से व्यवहार या क्रिया कराता रहता है. महा-तण्हा-संखय-सुत्तन्त (मज्झिम निकाय) में विज्ञान को समझाते हुए बुद्ध कहते हैं --"भिखखुओं ! जिस जिस प्रत्यय ( निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा नाम) होती है। चक्षु आँख) के निमित्त रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। श्रोत्र के निमित्त शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। घ्राण नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। जिह्वा निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है । काया के निमित्त से स्प्रष्टव्य छूये जाने वाले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। मन के निमित्त से धर्म उपरोक्त पाँच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।"
'छब्बीसोधन-सुत्तन्त' के अनुसार छः आध्यात्मिक (शरीर संबंधी) और वादा आयतन, होते हैं. कौन से छः ? (1) चक्षु और रूप (2) श्रोत्र और शब्द, (3) घ्राण और गंध, (4) जिव्हा और रस (5) काया और स्पष्टव्य (6) मन ओर धर्म. इन छः आयतनों के विषय में कैसे जानते देखते हैं ? इनके अपने-अपने अलग-अलग गुण-धर्म होते हैं. चक्षु से रूप दिखाई देता है. चक्षु के माध्यम से जो विज्ञान (रूप और रूपों के वारे में चेतना) उतपन्न होती है और ज्ञान प्राप्त होता है, वह चक्षु-विज्ञान है. चक्षु विभिन्न प्रकार के रूप देखता है. तुलना भी कर लेता है. चक्षु द्वारा देखे गए रूप और उसके साथ व्यक्ति द्वारा की गई अन्तःक्रिया के विषयों को चक्षुर्विज्ञान कहेंगे. इस अन्तःक्रिया के अनुभव और परिणाम व्यक्ति की स्मृति में संग्रहीत होते रहते हैं और चित्त/मन का एक हिस्सा बनते रहते हैं. ( सम्भव है कि देखे गए के साथ व्यक्ति की आसक्ति व्यक्ति में कुछ विकार (छनद-राग, नन्दी-तृष्णा) उत्पन्न कर दें )
श्रोत्र (कान) का काम है शब्द सुनना. कान विभिन्न प्रकार के शब्द सुनता है. कान के माध्यम से जो विज्ञान (शब्द और शब्दों के वारे में जानना) चेतना उत्पन्न होती है, वह श्रोत्र-विज्ञान है. इस विज्ञान में कान और शब्दों की प्रवृत्ति-- कर्कश, कर्णप्रिय, मृदुल, सम ; और उनके साथ की गई अन्तःक्रिया और परिणामतः सीखे-जाने गए का संग्रह होता रहता है.
इसी प्रकार घ्राण-विज्ञान (घ्राण-गंध), जिव्हा विज्ञान (जिव्हा-रस/स्वाद), काय-विज्ञान (काया- स्प्रष्टव्य), मनोविज्ञान (मन का धर्म) हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति निरन्तर अन्तःक्रिया करता रहता है, और परिणामस्वरूप सीखता-जानता रहता है. यह क्रिया जिंदगी भर चलती रहती है. व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार/चरित्र/प्रवृत्ति पिछले क्षण तक के विज्ञान ( सीखी-जानी गई विद्या / conciousness ) की प्रतिक्रिया है. चूंकि सीखना-जानना निरन्तर जारी रहता है, इसलिए विज्ञान (प्रवृत्ति/चित्त) भी बदलता रहता है, तो साथ ही प्रतिक्रिया भी निरन्तर बदलती रहती है. Same condition में वह पूर्व प्रतिक्रियाओं को नहीं दोहराता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो विद्या अर्जन करता रहता है, और चित्त का भाग बनाकर उपस्थित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया करता रहता है, इनके कुल योग को बौद्ध-धम्म का 'विज्ञान' कह सकते हैं. व्यक्ति हर पल नया जानता-सीखता रहता है, इसलिए यह विज्ञान भी स्थायी नहीं होता, जल्दी जल्दी बदलता रहता है.
एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक वही व्यक्ति रहता है, उसके शारीरिक लक्षण बदलते रहते हैं. अनित्यता, परिवर्तनशीलता और गतिशीलता प्रकृति का नियम (नियम के भी कारण हैं) है. इसी नियम के अनुसार व्यक्ति का शरीर और विज्ञान (चित्त) भी परिवर्तनशील रहता है. शरीर की तुलना में विज्ञान तीब्र गति से बदलता रहता है. इसलिए उस व्यक्ति का विज्ञान कभी भी स्थायित्व या परिपक्वता नहीं दिखाता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो कुछ भी सीखता है या विद्या अर्जन करता है, वह उसके शिक्षा स्रोतों पर निर्भर करता है. अर्थात व्यक्ति का विज्ञान/चित्त उसके पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक माहौल पर निर्भर करता है.
एक अस्थायी उदाहरण से अपनी बात आगे बढाते हैं. एक व्यक्ति वर्तमान में युवा अवस्था में है. इसने अपनी पांच इंद्रियों और छटे तत्व मन से अर्जित विद्या (प्रज्ञा, अविद्या, या दोनों का मिश्रण) द्वारा अपना व्यक्तित्व या विज्ञान बनाया. वह सीखता रहा और विषयों के साथ प्रतिक्रिया करता रहा. परिवर्तनशीलता की अनिवार्यता के कारण उसने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया. यहां ध्यान से देखने पर पता चलता है कि आदमी वही है पर फिर भी वह वही नहीं है जो युवावस्था में था. उसके शरीर ने नया रूप ले लिया है, और उसके चित्त/विज्ञान ने भी नया रूप ले लिया है. आदमी (रूप) वही परन्तु उसके होने में अंतर है. उसके साथ क्या हुआ ? हुआ यह कि उस व्यक्ति के अंतिम विज्ञान ने समाप्त (move) होकर उसी व्यक्ति के प्रारम्भिक विज्ञान को जन्म दे दिया. आचार्य नागसेन कहते हैं -- "एक जन्म के अंतिम विज्ञान (=चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है." व्यक्ति के अंतिम विज्ञान की मौत हो गई और बदले शरीर में एक नया विज्ञान पैदा हो गया. यही है पुनर्भव. यही प्रक्रिया जिंदगी भर आगे भी जारी रहती है.
उपरोक्त उदाहरण समझने के लिए अस्थाई था. असली पुनर्भव में इतना मोटा अंतर नहीं होता है. वास्तव में तो 'विज्ञान' वर्तमान स्थिति में क्षण भर के लिए रहता है, इसलिए इसे क्षणिक-विज्ञान कहते हैं. व्यक्ति की जिंदगी में प्रतीत्य-समुत्पाद की द्वादश कड़ियों का चक्र अर्थात 'पुनर्भव-चक्र' चलता रहता है. आचार्य नागसेन ने पुनर्भव को दीपक की लौ के उदाहरण से समझाया है. एक दीपक रातभर जला या घर को प्रकाश देता रहा. परन्तु रातभर उसी लौ ने प्रकाश नहीं दिया जो प्रारम्भ में थी. दीपक वही था. तेल निरन्तर बदलता रहा, लौ में भी लगातार परिवर्तन होता रहा. विज्ञान (चैतन्य) की अंतिम लौ अगले विज्ञान (चैतन्य) की पहली लौ को जन्म देती रहती है, इसलिए दीपक की लौ अविच्छिन्न (अनवरत) अस्तित्व में रही.
एक व्यक्ति की जिंदगी का अविच्छिन्न-प्रवाह नदी -प्रवाह जैसा ही है. आंखों के ठीक सामने वाला पानी आगे बढ़ गया, परन्तु पीछे से आए पानी ने बीच में कोई अंतर (distance) नहीं देखने दिया.
व्यक्ति की इसी जिंदगी में बिना कारण पुनर्भव नहीं होता है. अविद्या, और अविद्या जनित कर्म या संस्कार पुनर्भव कराते हैं. किए जाने वाले व्यवहार एवं कर्मों का संयुक्त नाम संस्कार है. अविद्या से असद और दूषित कर्म होते हैं. और प्रज्ञा से सम्यग्कर्म होते हैं. कर्म (पुण्य या अपुण्य कर्म) चित्त के साथ जुड़ता रहता है, यानी संचित होता रहता है. चित्त में सुख-दुख इत्यादि भावनाओं (emotions) को महसूस करने की क्षमता होती है. यह चित्त अपने अंदर और बाहर के माहौल की अनुभूति करता है, वेदना की अनुभूति करता है और कर्म-कामना-प्रयत्न करता है. यही कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं.
पुनर्भव में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत किस तरह काम करता है ? जो चित्त तृष्णा में बंधा होता है उसकी ऊर्जा ऋणात्मक होती है. इस ऋणात्मक चैतसिक ऊर्जा को ही 'आस्रव' कहा जाता है. आस्रवों से युक्त व्यक्ति इसी जिंदगी में बार बार पुनर्भव और पुनर्भव के बाद जन्म (जाति) लेता है, जीर्ण होता है, और मरता रहता है. इसी जिंदगी में मरण के क्षण जो चित्त शरीर में आगे जाता है, उसे च्युत चित्त कहा जाता है. यदि अवशिष्ट के रूप में ऋणात्मक कर्म की अधिकता होती है तो च्युत-चित्त एक निश्चित आस्रव से युक्त हो मरता है और अविद्या के कारण फिर से भव की ओर आगे बढ़ता है. और व्यक्ति को कर्मफल के रूप में 'निरन्तर दुख की अनुभूति' होती रहती है. यही दुख व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करता रहतै है. आस्रवों का प्रतिशत व्यक्ति के फल को तय करता है. हम व्यक्ति की स्थितियों को विभिन्न नाम दे सकते हैं, जैसे---अपाय, पतन, नरक, पशु पक्षी योनि, मनुष्य योनि, प्रेतयोनि. अर्थात ये अवस्थाएं हैं, इहलोक से परे दूसरे काल्पनिक लोक नहीं हैं.
यही है पुनर्भव ! एक ही शरीर में अविद्या द्वारा भव और पुन:भव ! यहां संचित चैतसिक ऊर्जा किसी दूसरे आदमी के शरीर में नहीं जा रही है, इसलिए पुनर्जन्म नहीं है. यहां किसी कथित आत्मा की आवश्यकता भी नहीं है. यहां तो एक ही शरीर में विज्ञान (चित्त) moov कर रहा है. उसके साथ बुद्ध द्वारा प्रतिपादित प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धांत लागू रहता है. मतलब इस जिन्दगी का भवचक्र स-कारण है और इसका निरोध किया जा सकता है. प्रज्ञा, शील, समाधि द्वारा निर्वाण की अवस्था पाई जा सकती है.
जिस तरह भगवान बुद्ध ने भव शब्द से 'पुनब्भव' शब्द का प्रयोग किया है, क्या उसी तरह उन्होंने जाति शब्द से पुनज्जाति शब्द का प्रयोग किया है ? यदि भगवान 'पुनज्जाति' शब्द का प्रयोग करते तो जाति=जन्म के आधार पर 'पुनर्जाति' या 'पुनर्जन्म' अनुवादित किया जा सकता था. पर मुझे लगता है कि पुनब्भव का अनुवाद पुनर्जन्म किया गया है. ये अनुवाद गलत है. मेरा सुझाव है कि भव और भवचक्र को आसानी से समझने के लिए आप पुनर्भव का अर्थ पुनर्जन्म मत कीजिए. 'पुनःभव' को व्यक्ति की इसी जिंदगी में देखिए. 'पुनर्जन्म' शब्द मरने के बाद के सफर की संकल्पना है, इसलिए पुनर्जन्म शब्द को विल्कुल अलग रख लीजिए. ऐसा करने से पुनर्भव के चक्र को समझना आसान हो जाता है. अविछिन्नता (continuity) पुनर्भव की विशेषता है, और ये एक ही व्यक्ति की जिंदगी से सम्बंधित है. जबकि पुनर्जन्म की संकल्पना एक शरीर से दूसरे व्यक्ति के शरीर में जाने से सम्बंधित है जिसमें अविछिन्नता का उच्छेद हो जाता है. इसलिए पुनर्भव को पुनर्जन्म कहने से पुनब्भव का सिद्धांत समझने में बेहद जटिल हो जाता है. प्रस्तुत लेख में केवल पुनर्भव को समझने की कोशिश की है. पुनर्जन्म, जो बुद्ध वाणी में थोपा हुआ है, की विस्तृत समीक्षा पृथक लेख में करेंगे.
बौद्ध-दर्शन की शब्दावली में आए दो शब्दों-- 'भव' और 'जाति' (उत्पन्न होना=जन्म) पर ध्यान देने से पता चलता है कि दोनों शब्दों का सम्बन्ध व्यक्ति की वर्तमान जिंदगी से है. भव के बाद जाति की अविच्छिन्नता (continuity) है. अविच्छिन्नता का अर्थ है होने का अनवरत जारी रहना. मतलब बुद्ध के सिद्धांत में भव का सम्बन्ध व्यक्ति से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं है. यदि सम्बन्ध जोड़ते हैं तो अविच्छिन्नता खत्म हो जाती है. सवाल ये कि किसका अनवरत जारी रहना ? विज्ञान-प्रवाह का अनवरत जारी रहना. इसलिए इसे विज्ञान-प्रवाह की अविच्छिन्नता कहा गया है. इस तरह पुनर्भव का अर्थ हुआ--"परिवर्तनशील और गतिशील शरीर में नवीन और परिवर्तनशील विज्ञान का निरन्तर प्रवाह.
बौद्ध-दर्शन के पुनर्भव को समझने के लिए सर्वप्रथम विज्ञान, भव, जाति (उत्पन्न होना) शब्दों का अभिप्राय समझ लेते हैं --
(1) भव-- बौद्ध-दर्शन में भव क्या है ? 'होना' भव है. शरीर (चार महाभूतों- पृथिवी, जल, वायु, तेज से बना एक विशिष्ट आकार) और शरीर से संलिप्त चित्त (विज्ञान) का संयोग 'भव' है. परिवर्तनशील भौतिक शरीर से परिवर्तनशील चित्त व्यवहार या क्रिया कराता है. इस तरह शरीर और चित्त का संयुक्त रहना व्यक्ति की जिंदगी के लिए अति आवश्यक है. इसके तीन प्रकार है--- काम भव, रूप भव और अरूप भव.
(2) जाति (उत्पत्ति=जन्म)-- उत्पन्न होना जाति है. भगवान कहते हैं- ‘भव के कारण जाति होती है’, यह जो कहा इसे आनन्द ! इस प्रकार जानना चाहिये । यदि आनन्द ! सर्वथा .. सब किसी का कोई भव न होता, जैसे कि काम-भव, रुप-भव, अ-रुप-भव; तो भव के सर्वथा न होने पर, भव के सर्वथा अभाव होने पर, भव के निरोध होने पर, क्या आनन्द ! जन्म दिखाई पड़ता ?”
“नही भन्ते ।”
“इसलिये आनन्द ! जन्म का यही हेतु है, जो कि यह भव ।” जन्म दिखाई पड़ने का यही कारण है. आदमी वही पर भौतिक और मानसिक परिवर्तन पर लगातार नजर रखने पर जन्म दिखाई देता रहता है. सही मायनों में शरीर और चित्त दोनों का जन्म होता रहता है. महासतिपट्ठान में बुद्ध कहते हैं, " भिक्खुओं ! जन्म (=जाति) क्या है ॽ उन उन प्राणियों का उन उन योनियों (इसी जिंदगी की विभिन्न अवस्थाएं) में जो जन्म=सजाति,=अवक्रमण=अभिनिर्वृत्ति, (भौतिक और अभौतिक) स्कंधोका प्रादुर्भाव, आयतनो (=इन्द्रिय-विषयो) का लाभ है, यही भिक्खुओं । जन्म कहा जाता है ।"
(3) विज्ञान-- बौद्ध-दर्शन के सिद्धांत में 'विज्ञान' क्या है ? यहां इस 'विज्ञान' शब्द को समझने किए कुछ समय के लिए साइंस अर्थ वाले 'विज्ञान' को भूल जाइए. यहां विज्ञान का मतलब एक अर्जित चित्त या प्रवृत्ति है. यही भौतिक शरीर से व्यवहार या क्रिया कराता रहता है. महा-तण्हा-संखय-सुत्तन्त (मज्झिम निकाय) में विज्ञान को समझाते हुए बुद्ध कहते हैं --"भिखखुओं ! जिस जिस प्रत्यय ( निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा नाम) होती है। चक्षु आँख) के निमित्त रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। श्रोत्र के निमित्त शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। घ्राण नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। जिह्वा निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है । काया के निमित्त से स्प्रष्टव्य छूये जाने वाले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। मन के निमित्त से धर्म उपरोक्त पाँच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।"
'छब्बीसोधन-सुत्तन्त' के अनुसार छः आध्यात्मिक (शरीर संबंधी) और वादा आयतन, होते हैं. कौन से छः ? (1) चक्षु और रूप (2) श्रोत्र और शब्द, (3) घ्राण और गंध, (4) जिव्हा और रस (5) काया और स्पष्टव्य (6) मन ओर धर्म. इन छः आयतनों के विषय में कैसे जानते देखते हैं ? इनके अपने-अपने अलग-अलग गुण-धर्म होते हैं. चक्षु से रूप दिखाई देता है. चक्षु के माध्यम से जो विज्ञान (रूप और रूपों के वारे में चेतना) उतपन्न होती है और ज्ञान प्राप्त होता है, वह चक्षु-विज्ञान है. चक्षु विभिन्न प्रकार के रूप देखता है. तुलना भी कर लेता है. चक्षु द्वारा देखे गए रूप और उसके साथ व्यक्ति द्वारा की गई अन्तःक्रिया के विषयों को चक्षुर्विज्ञान कहेंगे. इस अन्तःक्रिया के अनुभव और परिणाम व्यक्ति की स्मृति में संग्रहीत होते रहते हैं और चित्त/मन का एक हिस्सा बनते रहते हैं. ( सम्भव है कि देखे गए के साथ व्यक्ति की आसक्ति व्यक्ति में कुछ विकार (छनद-राग, नन्दी-तृष्णा) उत्पन्न कर दें )
श्रोत्र (कान) का काम है शब्द सुनना. कान विभिन्न प्रकार के शब्द सुनता है. कान के माध्यम से जो विज्ञान (शब्द और शब्दों के वारे में जानना) चेतना उत्पन्न होती है, वह श्रोत्र-विज्ञान है. इस विज्ञान में कान और शब्दों की प्रवृत्ति-- कर्कश, कर्णप्रिय, मृदुल, सम ; और उनके साथ की गई अन्तःक्रिया और परिणामतः सीखे-जाने गए का संग्रह होता रहता है.
इसी प्रकार घ्राण-विज्ञान (घ्राण-गंध), जिव्हा विज्ञान (जिव्हा-रस/स्वाद), काय-विज्ञान (काया- स्प्रष्टव्य), मनोविज्ञान (मन का धर्म) हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति निरन्तर अन्तःक्रिया करता रहता है, और परिणामस्वरूप सीखता-जानता रहता है. यह क्रिया जिंदगी भर चलती रहती है. व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार/चरित्र/प्रवृत्ति पिछले क्षण तक के विज्ञान ( सीखी-जानी गई विद्या / conciousness ) की प्रतिक्रिया है. चूंकि सीखना-जानना निरन्तर जारी रहता है, इसलिए विज्ञान (प्रवृत्ति/चित्त) भी बदलता रहता है, तो साथ ही प्रतिक्रिया भी निरन्तर बदलती रहती है. Same condition में वह पूर्व प्रतिक्रियाओं को नहीं दोहराता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो विद्या अर्जन करता रहता है, और चित्त का भाग बनाकर उपस्थित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया करता रहता है, इनके कुल योग को बौद्ध-धम्म का 'विज्ञान' कह सकते हैं. व्यक्ति हर पल नया जानता-सीखता रहता है, इसलिए यह विज्ञान भी स्थायी नहीं होता, जल्दी जल्दी बदलता रहता है.
एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक वही व्यक्ति रहता है, उसके शारीरिक लक्षण बदलते रहते हैं. अनित्यता, परिवर्तनशीलता और गतिशीलता प्रकृति का नियम (नियम के भी कारण हैं) है. इसी नियम के अनुसार व्यक्ति का शरीर और विज्ञान (चित्त) भी परिवर्तनशील रहता है. शरीर की तुलना में विज्ञान तीब्र गति से बदलता रहता है. इसलिए उस व्यक्ति का विज्ञान कभी भी स्थायित्व या परिपक्वता नहीं दिखाता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो कुछ भी सीखता है या विद्या अर्जन करता है, वह उसके शिक्षा स्रोतों पर निर्भर करता है. अर्थात व्यक्ति का विज्ञान/चित्त उसके पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक माहौल पर निर्भर करता है.
एक अस्थायी उदाहरण से अपनी बात आगे बढाते हैं. एक व्यक्ति वर्तमान में युवा अवस्था में है. इसने अपनी पांच इंद्रियों और छटे तत्व मन से अर्जित विद्या (प्रज्ञा, अविद्या, या दोनों का मिश्रण) द्वारा अपना व्यक्तित्व या विज्ञान बनाया. वह सीखता रहा और विषयों के साथ प्रतिक्रिया करता रहा. परिवर्तनशीलता की अनिवार्यता के कारण उसने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया. यहां ध्यान से देखने पर पता चलता है कि आदमी वही है पर फिर भी वह वही नहीं है जो युवावस्था में था. उसके शरीर ने नया रूप ले लिया है, और उसके चित्त/विज्ञान ने भी नया रूप ले लिया है. आदमी (रूप) वही परन्तु उसके होने में अंतर है. उसके साथ क्या हुआ ? हुआ यह कि उस व्यक्ति के अंतिम विज्ञान ने समाप्त (move) होकर उसी व्यक्ति के प्रारम्भिक विज्ञान को जन्म दे दिया. आचार्य नागसेन कहते हैं -- "एक जन्म के अंतिम विज्ञान (=चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है." व्यक्ति के अंतिम विज्ञान की मौत हो गई और बदले शरीर में एक नया विज्ञान पैदा हो गया. यही है पुनर्भव. यही प्रक्रिया जिंदगी भर आगे भी जारी रहती है.
उपरोक्त उदाहरण समझने के लिए अस्थाई था. असली पुनर्भव में इतना मोटा अंतर नहीं होता है. वास्तव में तो 'विज्ञान' वर्तमान स्थिति में क्षण भर के लिए रहता है, इसलिए इसे क्षणिक-विज्ञान कहते हैं. व्यक्ति की जिंदगी में प्रतीत्य-समुत्पाद की द्वादश कड़ियों का चक्र अर्थात 'पुनर्भव-चक्र' चलता रहता है. आचार्य नागसेन ने पुनर्भव को दीपक की लौ के उदाहरण से समझाया है. एक दीपक रातभर जला या घर को प्रकाश देता रहा. परन्तु रातभर उसी लौ ने प्रकाश नहीं दिया जो प्रारम्भ में थी. दीपक वही था. तेल निरन्तर बदलता रहा, लौ में भी लगातार परिवर्तन होता रहा. विज्ञान (चैतन्य) की अंतिम लौ अगले विज्ञान (चैतन्य) की पहली लौ को जन्म देती रहती है, इसलिए दीपक की लौ अविच्छिन्न (अनवरत) अस्तित्व में रही.
एक व्यक्ति की जिंदगी का अविच्छिन्न-प्रवाह नदी -प्रवाह जैसा ही है. आंखों के ठीक सामने वाला पानी आगे बढ़ गया, परन्तु पीछे से आए पानी ने बीच में कोई अंतर (distance) नहीं देखने दिया.
व्यक्ति की इसी जिंदगी में बिना कारण पुनर्भव नहीं होता है. अविद्या, और अविद्या जनित कर्म या संस्कार पुनर्भव कराते हैं. किए जाने वाले व्यवहार एवं कर्मों का संयुक्त नाम संस्कार है. अविद्या से असद और दूषित कर्म होते हैं. और प्रज्ञा से सम्यग्कर्म होते हैं. कर्म (पुण्य या अपुण्य कर्म) चित्त के साथ जुड़ता रहता है, यानी संचित होता रहता है. चित्त में सुख-दुख इत्यादि भावनाओं (emotions) को महसूस करने की क्षमता होती है. यह चित्त अपने अंदर और बाहर के माहौल की अनुभूति करता है, वेदना की अनुभूति करता है और कर्म-कामना-प्रयत्न करता है. यही कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं.
पुनर्भव में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत किस तरह काम करता है ? जो चित्त तृष्णा में बंधा होता है उसकी ऊर्जा ऋणात्मक होती है. इस ऋणात्मक चैतसिक ऊर्जा को ही 'आस्रव' कहा जाता है. आस्रवों से युक्त व्यक्ति इसी जिंदगी में बार बार पुनर्भव और पुनर्भव के बाद जन्म (जाति) लेता है, जीर्ण होता है, और मरता रहता है. इसी जिंदगी में मरण के क्षण जो चित्त शरीर में आगे जाता है, उसे च्युत चित्त कहा जाता है. यदि अवशिष्ट के रूप में ऋणात्मक कर्म की अधिकता होती है तो च्युत-चित्त एक निश्चित आस्रव से युक्त हो मरता है और अविद्या के कारण फिर से भव की ओर आगे बढ़ता है. और व्यक्ति को कर्मफल के रूप में 'निरन्तर दुख की अनुभूति' होती रहती है. यही दुख व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करता रहतै है. आस्रवों का प्रतिशत व्यक्ति के फल को तय करता है. हम व्यक्ति की स्थितियों को विभिन्न नाम दे सकते हैं, जैसे---अपाय, पतन, नरक, पशु पक्षी योनि, मनुष्य योनि, प्रेतयोनि. अर्थात ये अवस्थाएं हैं, इहलोक से परे दूसरे काल्पनिक लोक नहीं हैं.
यही है पुनर्भव ! एक ही शरीर में अविद्या द्वारा भव और पुन:भव ! यहां संचित चैतसिक ऊर्जा किसी दूसरे आदमी के शरीर में नहीं जा रही है, इसलिए पुनर्जन्म नहीं है. यहां किसी कथित आत्मा की आवश्यकता भी नहीं है. यहां तो एक ही शरीर में विज्ञान (चित्त) moov कर रहा है. उसके साथ बुद्ध द्वारा प्रतिपादित प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धांत लागू रहता है. मतलब इस जिन्दगी का भवचक्र स-कारण है और इसका निरोध किया जा सकता है. प्रज्ञा, शील, समाधि द्वारा निर्वाण की अवस्था पाई जा सकती है.
विनोद कुमार
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जिस तरह भगवान बुद्ध ने भव शब्द से 'पुनब्भव' शब्द का प्रयोग किया है, क्या उसी तरह उन्होंने जाति शब्द से पुनज्जाति शब्द का प्रयोग किया है ? यदि भगवान 'पुनज्जाति' शब्द का प्रयोग करते तो जाति=जन्म के आधार पर 'पुनर्जाति' या 'पुनर्जन्म' अनुवादित किया जा सकता था. पर मुझे लगता है कि पुनब्भव का अनुवाद पुनर्जन्म किया गया है. ये अनुवाद गलत है. मेरा सुझाव है कि भव और भवचक्र को आसानी से समझने के लिए आप पुनर्भव का अर्थ पुनर्जन्म मत कीजिए. 'पुनःभव' को व्यक्ति की इसी जिंदगी में देखिए. 'पुनर्जन्म' शब्द मरने के बाद के सफर की संकल्पना है, इसलिए पुनर्जन्म शब्द को विल्कुल अलग रख लीजिए. ऐसा करने से पुनर्भव के चक्र को समझना आसान हो जाता है. अविछिन्नता (continuity) पुनर्भव की विशेषता है, और ये एक ही व्यक्ति की जिंदगी से सम्बंधित है. जबकि पुनर्जन्म की संकल्पना एक शरीर से दूसरे व्यक्ति के शरीर में जाने से सम्बंधित है जिसमें अविछिन्नता का उच्छेद हो जाता है. इसलिए पुनर्भव को पुनर्जन्म कहने से पुनब्भव का सिद्धांत समझने में बेहद जटिल हो जाता है. प्रस्तुत लेख में केवल पुनर्भव को समझने की कोशिश की है. पुनर्जन्म, जो बुद्ध वाणी में थोपा हुआ है, की विस्तृत समीक्षा पृथक लेख में करेंगे.
बौद्ध-दर्शन की शब्दावली में आए दो शब्दों-- 'भव' और 'जाति' (उत्पन्न होना=जन्म) पर ध्यान देने से पता चलता है कि दोनों शब्दों का सम्बन्ध व्यक्ति की वर्तमान जिंदगी से है. भव के बाद जाति की अविच्छिन्नता (continuity) है. अविच्छिन्नता का अर्थ है होने का अनवरत जारी रहना. मतलब बुद्ध के सिद्धांत में भव का सम्बन्ध व्यक्ति से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं है. यदि सम्बन्ध जोड़ते हैं तो अविच्छिन्नता खत्म हो जाती है. सवाल ये कि किसका अनवरत जारी रहना ? विज्ञान-प्रवाह का अनवरत जारी रहना. इसलिए इसे विज्ञान-प्रवाह की अविच्छिन्नता कहा गया है. इस तरह पुनर्भव का अर्थ हुआ--"परिवर्तनशील और गतिशील शरीर में नवीन और परिवर्तनशील विज्ञान का निरन्तर प्रवाह.
बौद्ध-दर्शन के पुनर्भव को समझने के लिए सर्वप्रथम विज्ञान, भव, जाति (उत्पन्न होना) शब्दों का अभिप्राय समझ लेते हैं --
(1) भव-- बौद्ध-दर्शन में भव क्या है ? 'होना' भव है. शरीर (चार महाभूतों- पृथिवी, जल, वायु, तेज से बना एक विशिष्ट आकार) और शरीर से संलिप्त चित्त (विज्ञान) का संयोग 'भव' है. परिवर्तनशील भौतिक शरीर से परिवर्तनशील चित्त व्यवहार या क्रिया कराता है. इस तरह शरीर और चित्त का संयुक्त रहना व्यक्ति की जिंदगी के लिए अति आवश्यक है. इसके तीन प्रकार है--- काम भव, रूप भव और अरूप भव.
(2) जाति (उत्पत्ति=जन्म)-- उत्पन्न होना जाति है. भगवान कहते हैं- ‘भव के कारण जाति होती है’, यह जो कहा इसे आनन्द ! इस प्रकार जानना चाहिये । यदि आनन्द ! सर्वथा .. सब किसी का कोई भव न होता, जैसे कि काम-भव, रुप-भव, अ-रुप-भव; तो भव के सर्वथा न होने पर, भव के सर्वथा अभाव होने पर, भव के निरोध होने पर, क्या आनन्द ! जन्म दिखाई पड़ता ?”
“नही भन्ते ।”
“इसलिये आनन्द ! जन्म का यही हेतु है, जो कि यह भव ।” जन्म दिखाई पड़ने का यही कारण है. आदमी वही पर भौतिक और मानसिक परिवर्तन पर लगातार नजर रखने पर जन्म दिखाई देता रहता है. सही मायनों में शरीर और चित्त दोनों का जन्म होता रहता है. महासतिपट्ठान में बुद्ध कहते हैं, " भिक्खुओं ! जन्म (=जाति) क्या है ॽ उन उन प्राणियों का उन उन योनियों (इसी जिंदगी की विभिन्न अवस्थाएं) में जो जन्म=सजाति,=अवक्रमण=अभिनिर्वृत्ति, (भौतिक और अभौतिक) स्कंधोका प्रादुर्भाव, आयतनो (=इन्द्रिय-विषयो) का लाभ है, यही भिक्खुओं । जन्म कहा जाता है ।"
(3) विज्ञान-- बौद्ध-दर्शन के सिद्धांत में 'विज्ञान' क्या है ? यहां इस 'विज्ञान' शब्द को समझने किए कुछ समय के लिए साइंस अर्थ वाले 'विज्ञान' को भूल जाइए. यहां विज्ञान का मतलब एक अर्जित चित्त या प्रवृत्ति है. यही भौतिक शरीर से व्यवहार या क्रिया कराता रहता है. महा-तण्हा-संखय-सुत्तन्त (मज्झिम निकाय) में विज्ञान को समझाते हुए बुद्ध कहते हैं --"भिखखुओं ! जिस जिस प्रत्यय ( निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा नाम) होती है। चक्षु आँख) के निमित्त रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। श्रोत्र के निमित्त शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। घ्राण नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। जिह्वा निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है । काया के निमित्त से स्प्रष्टव्य छूये जाने वाले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। मन के निमित्त से धर्म उपरोक्त पाँच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।"
'छब्बीसोधन-सुत्तन्त' के अनुसार छः आध्यात्मिक (शरीर संबंधी) और वादा आयतन, होते हैं. कौन से छः ? (1) चक्षु और रूप (2) श्रोत्र और शब्द, (3) घ्राण और गंध, (4) जिव्हा और रस (5) काया और स्पष्टव्य (6) मन ओर धर्म. इन छः आयतनों के विषय में कैसे जानते देखते हैं ? इनके अपने-अपने अलग-अलग गुण-धर्म होते हैं. चक्षु से रूप दिखाई देता है. चक्षु के माध्यम से जो विज्ञान (रूप और रूपों के वारे में चेतना) उतपन्न होती है और ज्ञान प्राप्त होता है, वह चक्षु-विज्ञान है. चक्षु विभिन्न प्रकार के रूप देखता है. तुलना भी कर लेता है. चक्षु द्वारा देखे गए रूप और उसके साथ व्यक्ति द्वारा की गई अन्तःक्रिया के विषयों को चक्षुर्विज्ञान कहेंगे. इस अन्तःक्रिया के अनुभव और परिणाम व्यक्ति की स्मृति में संग्रहीत होते रहते हैं और चित्त/मन का एक हिस्सा बनते रहते हैं. ( सम्भव है कि देखे गए के साथ व्यक्ति की आसक्ति व्यक्ति में कुछ विकार (छनद-राग, नन्दी-तृष्णा) उत्पन्न कर दें )
श्रोत्र (कान) का काम है शब्द सुनना. कान विभिन्न प्रकार के शब्द सुनता है. कान के माध्यम से जो विज्ञान (शब्द और शब्दों के वारे में जानना) चेतना उत्पन्न होती है, वह श्रोत्र-विज्ञान है. इस विज्ञान में कान और शब्दों की प्रवृत्ति-- कर्कश, कर्णप्रिय, मृदुल, सम ; और उनके साथ की गई अन्तःक्रिया और परिणामतः सीखे-जाने गए का संग्रह होता रहता है.
इसी प्रकार घ्राण-विज्ञान (घ्राण-गंध), जिव्हा विज्ञान (जिव्हा-रस/स्वाद), काय-विज्ञान (काया- स्प्रष्टव्य), मनोविज्ञान (मन का धर्म) हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति निरन्तर अन्तःक्रिया करता रहता है, और परिणामस्वरूप सीखता-जानता रहता है. यह क्रिया जिंदगी भर चलती रहती है. व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार/चरित्र/प्रवृत्ति पिछले क्षण तक के विज्ञान ( सीखी-जानी गई विद्या / conciousness ) की प्रतिक्रिया है. चूंकि सीखना-जानना निरन्तर जारी रहता है, इसलिए विज्ञान (प्रवृत्ति/चित्त) भी बदलता रहता है, तो साथ ही प्रतिक्रिया भी निरन्तर बदलती रहती है. Same condition में वह पूर्व प्रतिक्रियाओं को नहीं दोहराता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो विद्या अर्जन करता रहता है, और चित्त का भाग बनाकर उपस्थित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया करता रहता है, इनके कुल योग को बौद्ध-धम्म का 'विज्ञान' कह सकते हैं. व्यक्ति हर पल नया जानता-सीखता रहता है, इसलिए यह विज्ञान भी स्थायी नहीं होता, जल्दी जल्दी बदलता रहता है.
एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक वही व्यक्ति रहता है, उसके शारीरिक लक्षण बदलते रहते हैं. अनित्यता, परिवर्तनशीलता और गतिशीलता प्रकृति का नियम (नियम के भी कारण हैं) है. इसी नियम के अनुसार व्यक्ति का शरीर और विज्ञान (चित्त) भी परिवर्तनशील रहता है. शरीर की तुलना में विज्ञान तीब्र गति से बदलता रहता है. इसलिए उस व्यक्ति का विज्ञान कभी भी स्थायित्व या परिपक्वता नहीं दिखाता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो कुछ भी सीखता है या विद्या अर्जन करता है, वह उसके शिक्षा स्रोतों पर निर्भर करता है. अर्थात व्यक्ति का विज्ञान/चित्त उसके पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक माहौल पर निर्भर करता है.
एक अस्थायी उदाहरण से अपनी बात आगे बढाते हैं. एक व्यक्ति वर्तमान में युवा अवस्था में है. इसने अपनी पांच इंद्रियों और छटे तत्व मन से अर्जित विद्या (प्रज्ञा, अविद्या, या दोनों का मिश्रण) द्वारा अपना व्यक्तित्व या विज्ञान बनाया. वह सीखता रहा और विषयों के साथ प्रतिक्रिया करता रहा. परिवर्तनशीलता की अनिवार्यता के कारण उसने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया. यहां ध्यान से देखने पर पता चलता है कि आदमी वही है पर फिर भी वह वही नहीं है जो युवावस्था में था. उसके शरीर ने नया रूप ले लिया है, और उसके चित्त/विज्ञान ने भी नया रूप ले लिया है. आदमी (रूप) वही परन्तु उसके होने में अंतर है. उसके साथ क्या हुआ ? हुआ यह कि उस व्यक्ति के अंतिम विज्ञान ने समाप्त (move) होकर उसी व्यक्ति के प्रारम्भिक विज्ञान को जन्म दे दिया. आचार्य नागसेन कहते हैं -- "एक जन्म के अंतिम विज्ञान (=चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है." व्यक्ति के अंतिम विज्ञान की मौत हो गई और बदले शरीर में एक नया विज्ञान पैदा हो गया. यही है पुनर्भव. यही प्रक्रिया जिंदगी भर आगे भी जारी रहती है.
उपरोक्त उदाहरण समझने के लिए अस्थाई था. असली पुनर्भव में इतना मोटा अंतर नहीं होता है. वास्तव में तो 'विज्ञान' वर्तमान स्थिति में क्षण भर के लिए रहता है, इसलिए इसे क्षणिक-विज्ञान कहते हैं. व्यक्ति की जिंदगी में प्रतीत्य-समुत्पाद की द्वादश कड़ियों का चक्र अर्थात 'पुनर्भव-चक्र' चलता रहता है. आचार्य नागसेन ने पुनर्भव को दीपक की लौ के उदाहरण से समझाया है. एक दीपक रातभर जला या घर को प्रकाश देता रहा. परन्तु रातभर उसी लौ ने प्रकाश नहीं दिया जो प्रारम्भ में थी. दीपक वही था. तेल निरन्तर बदलता रहा, लौ में भी लगातार परिवर्तन होता रहा. विज्ञान (चैतन्य) की अंतिम लौ अगले विज्ञान (चैतन्य) की पहली लौ को जन्म देती रहती है, इसलिए दीपक की लौ अविच्छिन्न (अनवरत) अस्तित्व में रही.
एक व्यक्ति की जिंदगी का अविच्छिन्न-प्रवाह नदी -प्रवाह जैसा ही है. आंखों के ठीक सामने वाला पानी आगे बढ़ गया, परन्तु पीछे से आए पानी ने बीच में कोई अंतर (distance) नहीं देखने दिया.
व्यक्ति की इसी जिंदगी में बिना कारण पुनर्भव नहीं होता है. अविद्या, और अविद्या जनित कर्म या संस्कार पुनर्भव कराते हैं. किए जाने वाले व्यवहार एवं कर्मों का संयुक्त नाम संस्कार है. अविद्या से असद और दूषित कर्म होते हैं. और प्रज्ञा से सम्यग्कर्म होते हैं. कर्म (पुण्य या अपुण्य कर्म) चित्त के साथ जुड़ता रहता है, यानी संचित होता रहता है. चित्त में सुख-दुख इत्यादि भावनाओं (emotions) को महसूस करने की क्षमता होती है. यह चित्त अपने अंदर और बाहर के माहौल की अनुभूति करता है, वेदना की अनुभूति करता है और कर्म-कामना-प्रयत्न करता है. यही कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं.
पुनर्भव में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत किस तरह काम करता है ? जो चित्त तृष्णा में बंधा होता है उसकी ऊर्जा ऋणात्मक होती है. इस ऋणात्मक चैतसिक ऊर्जा को ही 'आस्रव' कहा जाता है. आस्रवों से युक्त व्यक्ति इसी जिंदगी में बार बार पुनर्भव और पुनर्भव के बाद जन्म (जाति) लेता है, जीर्ण होता है, और मरता रहता है. इसी जिंदगी में मरण के क्षण जो चित्त शरीर में आगे जाता है, उसे च्युत चित्त कहा जाता है. यदि अवशिष्ट के रूप में ऋणात्मक कर्म की अधिकता होती है तो च्युत-चित्त एक निश्चित आस्रव से युक्त हो मरता है और अविद्या के कारण फिर से भव की ओर आगे बढ़ता है. और व्यक्ति को कर्मफल के रूप में 'निरन्तर दुख की अनुभूति' होती रहती है. यही दुख व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करता रहतै है. आस्रवों का प्रतिशत व्यक्ति के फल को तय करता है. हम व्यक्ति की स्थितियों को विभिन्न नाम दे सकते हैं, जैसे---अपाय, पतन, नरक, पशु पक्षी योनि, मनुष्य योनि, प्रेतयोनि. अर्थात ये अवस्थाएं हैं, इहलोक से परे दूसरे काल्पनिक लोक नहीं हैं.
यही है पुनर्भव ! एक ही शरीर में अविद्या द्वारा भव और पुन:भव ! यहां संचित चैतसिक ऊर्जा किसी दूसरे आदमी के शरीर में नहीं जा रही है, इसलिए पुनर्जन्म नहीं है. यहां किसी कथित आत्मा की आवश्यकता भी नहीं है. यहां तो एक ही शरीर में विज्ञान (चित्त) moov कर रहा है. उसके साथ बुद्ध द्वारा प्रतिपादित प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धांत लागू रहता है. मतलब इस जिन्दगी का भवचक्र स-कारण है और इसका निरोध किया जा सकता है. प्रज्ञा, शील, समाधि द्वारा निर्वाण की अवस्था पाई जा सकती है.
जिस तरह भगवान बुद्ध ने भव शब्द से 'पुनब्भव' शब्द का प्रयोग किया है, क्या उसी तरह उन्होंने जाति शब्द से पुनज्जाति शब्द का प्रयोग किया है ? यदि भगवान 'पुनज्जाति' शब्द का प्रयोग करते तो जाति=जन्म के आधार पर 'पुनर्जाति' या 'पुनर्जन्म' अनुवादित किया जा सकता था. पर मुझे लगता है कि पुनब्भव का अनुवाद पुनर्जन्म किया गया है. ये अनुवाद गलत है. मेरा सुझाव है कि भव और भवचक्र को आसानी से समझने के लिए आप पुनर्भव का अर्थ पुनर्जन्म मत कीजिए. 'पुनःभव' को व्यक्ति की इसी जिंदगी में देखिए. 'पुनर्जन्म' शब्द मरने के बाद के सफर की संकल्पना है, इसलिए पुनर्जन्म शब्द को विल्कुल अलग रख लीजिए. ऐसा करने से पुनर्भव के चक्र को समझना आसान हो जाता है. अविछिन्नता (continuity) पुनर्भव की विशेषता है, और ये एक ही व्यक्ति की जिंदगी से सम्बंधित है. जबकि पुनर्जन्म की संकल्पना एक शरीर से दूसरे व्यक्ति के शरीर में जाने से सम्बंधित है जिसमें अविछिन्नता का उच्छेद हो जाता है. इसलिए पुनर्भव को पुनर्जन्म कहने से पुनब्भव का सिद्धांत समझने में बेहद जटिल हो जाता है. प्रस्तुत लेख में केवल पुनर्भव को समझने की कोशिश की है. पुनर्जन्म, जो बुद्ध वाणी में थोपा हुआ है, की विस्तृत समीक्षा पृथक लेख में करेंगे.
बौद्ध-दर्शन की शब्दावली में आए दो शब्दों-- 'भव' और 'जाति' (उत्पन्न होना=जन्म) पर ध्यान देने से पता चलता है कि दोनों शब्दों का सम्बन्ध व्यक्ति की वर्तमान जिंदगी से है. भव के बाद जाति की अविच्छिन्नता (continuity) है. अविच्छिन्नता का अर्थ है होने का अनवरत जारी रहना. मतलब बुद्ध के सिद्धांत में भव का सम्बन्ध व्यक्ति से भिन्न किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं है. यदि सम्बन्ध जोड़ते हैं तो अविच्छिन्नता खत्म हो जाती है. सवाल ये कि किसका अनवरत जारी रहना ? विज्ञान-प्रवाह का अनवरत जारी रहना. इसलिए इसे विज्ञान-प्रवाह की अविच्छिन्नता कहा गया है. इस तरह पुनर्भव का अर्थ हुआ--"परिवर्तनशील और गतिशील शरीर में नवीन और परिवर्तनशील विज्ञान का निरन्तर प्रवाह.
बौद्ध-दर्शन के पुनर्भव को समझने के लिए सर्वप्रथम विज्ञान, भव, जाति (उत्पन्न होना) शब्दों का अभिप्राय समझ लेते हैं --
(1) भव-- बौद्ध-दर्शन में भव क्या है ? 'होना' भव है. शरीर (चार महाभूतों- पृथिवी, जल, वायु, तेज से बना एक विशिष्ट आकार) और शरीर से संलिप्त चित्त (विज्ञान) का संयोग 'भव' है. परिवर्तनशील भौतिक शरीर से परिवर्तनशील चित्त व्यवहार या क्रिया कराता है. इस तरह शरीर और चित्त का संयुक्त रहना व्यक्ति की जिंदगी के लिए अति आवश्यक है. इसके तीन प्रकार है--- काम भव, रूप भव और अरूप भव.
(2) जाति (उत्पत्ति=जन्म)-- उत्पन्न होना जाति है. भगवान कहते हैं- ‘भव के कारण जाति होती है’, यह जो कहा इसे आनन्द ! इस प्रकार जानना चाहिये । यदि आनन्द ! सर्वथा .. सब किसी का कोई भव न होता, जैसे कि काम-भव, रुप-भव, अ-रुप-भव; तो भव के सर्वथा न होने पर, भव के सर्वथा अभाव होने पर, भव के निरोध होने पर, क्या आनन्द ! जन्म दिखाई पड़ता ?”
“नही भन्ते ।”
“इसलिये आनन्द ! जन्म का यही हेतु है, जो कि यह भव ।” जन्म दिखाई पड़ने का यही कारण है. आदमी वही पर भौतिक और मानसिक परिवर्तन पर लगातार नजर रखने पर जन्म दिखाई देता रहता है. सही मायनों में शरीर और चित्त दोनों का जन्म होता रहता है. महासतिपट्ठान में बुद्ध कहते हैं, " भिक्खुओं ! जन्म (=जाति) क्या है ॽ उन उन प्राणियों का उन उन योनियों (इसी जिंदगी की विभिन्न अवस्थाएं) में जो जन्म=सजाति,=अवक्रमण=अभिनिर्वृत्ति, (भौतिक और अभौतिक) स्कंधोका प्रादुर्भाव, आयतनो (=इन्द्रिय-विषयो) का लाभ है, यही भिक्खुओं । जन्म कहा जाता है ।"
(3) विज्ञान-- बौद्ध-दर्शन के सिद्धांत में 'विज्ञान' क्या है ? यहां इस 'विज्ञान' शब्द को समझने किए कुछ समय के लिए साइंस अर्थ वाले 'विज्ञान' को भूल जाइए. यहां विज्ञान का मतलब एक अर्जित चित्त या प्रवृत्ति है. यही भौतिक शरीर से व्यवहार या क्रिया कराता रहता है. महा-तण्हा-संखय-सुत्तन्त (मज्झिम निकाय) में विज्ञान को समझाते हुए बुद्ध कहते हैं --"भिखखुओं ! जिस जिस प्रत्यय ( निमित्त) से विज्ञान उत्पन्न होता है, वही वही उसकी संज्ञा नाम) होती है। चक्षु आँख) के निमित्त रूप में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, चक्षुर्विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। श्रोत्र के निमित्त शब्द में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है; श्रोत्र-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। घ्राण नाक) के निमित्त से गंध में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, घ्राण-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है। जिह्वा निमित्त से रस में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, रस-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है । काया के निमित्त से स्प्रष्टव्य छूये जाने वाले विषय) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, काय-विज्ञान ही उसका नाम होता है। मन के निमित्त से धर्म उपरोक्त पाँच बाहरी इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान) में (जो) विज्ञान उत्पन्न होता है, मनो-विज्ञान ही उसकी संज्ञा होती है।"
'छब्बीसोधन-सुत्तन्त' के अनुसार छः आध्यात्मिक (शरीर संबंधी) और वादा आयतन, होते हैं. कौन से छः ? (1) चक्षु और रूप (2) श्रोत्र और शब्द, (3) घ्राण और गंध, (4) जिव्हा और रस (5) काया और स्पष्टव्य (6) मन ओर धर्म. इन छः आयतनों के विषय में कैसे जानते देखते हैं ? इनके अपने-अपने अलग-अलग गुण-धर्म होते हैं. चक्षु से रूप दिखाई देता है. चक्षु के माध्यम से जो विज्ञान (रूप और रूपों के वारे में चेतना) उतपन्न होती है और ज्ञान प्राप्त होता है, वह चक्षु-विज्ञान है. चक्षु विभिन्न प्रकार के रूप देखता है. तुलना भी कर लेता है. चक्षु द्वारा देखे गए रूप और उसके साथ व्यक्ति द्वारा की गई अन्तःक्रिया के विषयों को चक्षुर्विज्ञान कहेंगे. इस अन्तःक्रिया के अनुभव और परिणाम व्यक्ति की स्मृति में संग्रहीत होते रहते हैं और चित्त/मन का एक हिस्सा बनते रहते हैं. ( सम्भव है कि देखे गए के साथ व्यक्ति की आसक्ति व्यक्ति में कुछ विकार (छनद-राग, नन्दी-तृष्णा) उत्पन्न कर दें )
श्रोत्र (कान) का काम है शब्द सुनना. कान विभिन्न प्रकार के शब्द सुनता है. कान के माध्यम से जो विज्ञान (शब्द और शब्दों के वारे में जानना) चेतना उत्पन्न होती है, वह श्रोत्र-विज्ञान है. इस विज्ञान में कान और शब्दों की प्रवृत्ति-- कर्कश, कर्णप्रिय, मृदुल, सम ; और उनके साथ की गई अन्तःक्रिया और परिणामतः सीखे-जाने गए का संग्रह होता रहता है.
इसी प्रकार घ्राण-विज्ञान (घ्राण-गंध), जिव्हा विज्ञान (जिव्हा-रस/स्वाद), काय-विज्ञान (काया- स्प्रष्टव्य), मनोविज्ञान (मन का धर्म) हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति निरन्तर अन्तःक्रिया करता रहता है, और परिणामस्वरूप सीखता-जानता रहता है. यह क्रिया जिंदगी भर चलती रहती है. व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार/चरित्र/प्रवृत्ति पिछले क्षण तक के विज्ञान ( सीखी-जानी गई विद्या / conciousness ) की प्रतिक्रिया है. चूंकि सीखना-जानना निरन्तर जारी रहता है, इसलिए विज्ञान (प्रवृत्ति/चित्त) भी बदलता रहता है, तो साथ ही प्रतिक्रिया भी निरन्तर बदलती रहती है. Same condition में वह पूर्व प्रतिक्रियाओं को नहीं दोहराता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो विद्या अर्जन करता रहता है, और चित्त का भाग बनाकर उपस्थित विषय पर अपनी प्रतिक्रिया करता रहता है, इनके कुल योग को बौद्ध-धम्म का 'विज्ञान' कह सकते हैं. व्यक्ति हर पल नया जानता-सीखता रहता है, इसलिए यह विज्ञान भी स्थायी नहीं होता, जल्दी जल्दी बदलता रहता है.
एक व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक वही व्यक्ति रहता है, उसके शारीरिक लक्षण बदलते रहते हैं. अनित्यता, परिवर्तनशीलता और गतिशीलता प्रकृति का नियम (नियम के भी कारण हैं) है. इसी नियम के अनुसार व्यक्ति का शरीर और विज्ञान (चित्त) भी परिवर्तनशील रहता है. शरीर की तुलना में विज्ञान तीब्र गति से बदलता रहता है. इसलिए उस व्यक्ति का विज्ञान कभी भी स्थायित्व या परिपक्वता नहीं दिखाता. व्यक्ति इन इंद्रियों द्वारा जो कुछ भी सीखता है या विद्या अर्जन करता है, वह उसके शिक्षा स्रोतों पर निर्भर करता है. अर्थात व्यक्ति का विज्ञान/चित्त उसके पारिवारिक, सामाजिक और प्राकृतिक माहौल पर निर्भर करता है.
एक अस्थायी उदाहरण से अपनी बात आगे बढाते हैं. एक व्यक्ति वर्तमान में युवा अवस्था में है. इसने अपनी पांच इंद्रियों और छटे तत्व मन से अर्जित विद्या (प्रज्ञा, अविद्या, या दोनों का मिश्रण) द्वारा अपना व्यक्तित्व या विज्ञान बनाया. वह सीखता रहा और विषयों के साथ प्रतिक्रिया करता रहा. परिवर्तनशीलता की अनिवार्यता के कारण उसने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया. यहां ध्यान से देखने पर पता चलता है कि आदमी वही है पर फिर भी वह वही नहीं है जो युवावस्था में था. उसके शरीर ने नया रूप ले लिया है, और उसके चित्त/विज्ञान ने भी नया रूप ले लिया है. आदमी (रूप) वही परन्तु उसके होने में अंतर है. उसके साथ क्या हुआ ? हुआ यह कि उस व्यक्ति के अंतिम विज्ञान ने समाप्त (move) होकर उसी व्यक्ति के प्रारम्भिक विज्ञान को जन्म दे दिया. आचार्य नागसेन कहते हैं -- "एक जन्म के अंतिम विज्ञान (=चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है." व्यक्ति के अंतिम विज्ञान की मौत हो गई और बदले शरीर में एक नया विज्ञान पैदा हो गया. यही है पुनर्भव. यही प्रक्रिया जिंदगी भर आगे भी जारी रहती है.
उपरोक्त उदाहरण समझने के लिए अस्थाई था. असली पुनर्भव में इतना मोटा अंतर नहीं होता है. वास्तव में तो 'विज्ञान' वर्तमान स्थिति में क्षण भर के लिए रहता है, इसलिए इसे क्षणिक-विज्ञान कहते हैं. व्यक्ति की जिंदगी में प्रतीत्य-समुत्पाद की द्वादश कड़ियों का चक्र अर्थात 'पुनर्भव-चक्र' चलता रहता है. आचार्य नागसेन ने पुनर्भव को दीपक की लौ के उदाहरण से समझाया है. एक दीपक रातभर जला या घर को प्रकाश देता रहा. परन्तु रातभर उसी लौ ने प्रकाश नहीं दिया जो प्रारम्भ में थी. दीपक वही था. तेल निरन्तर बदलता रहा, लौ में भी लगातार परिवर्तन होता रहा. विज्ञान (चैतन्य) की अंतिम लौ अगले विज्ञान (चैतन्य) की पहली लौ को जन्म देती रहती है, इसलिए दीपक की लौ अविच्छिन्न (अनवरत) अस्तित्व में रही.
एक व्यक्ति की जिंदगी का अविच्छिन्न-प्रवाह नदी -प्रवाह जैसा ही है. आंखों के ठीक सामने वाला पानी आगे बढ़ गया, परन्तु पीछे से आए पानी ने बीच में कोई अंतर (distance) नहीं देखने दिया.
व्यक्ति की इसी जिंदगी में बिना कारण पुनर्भव नहीं होता है. अविद्या, और अविद्या जनित कर्म या संस्कार पुनर्भव कराते हैं. किए जाने वाले व्यवहार एवं कर्मों का संयुक्त नाम संस्कार है. अविद्या से असद और दूषित कर्म होते हैं. और प्रज्ञा से सम्यग्कर्म होते हैं. कर्म (पुण्य या अपुण्य कर्म) चित्त के साथ जुड़ता रहता है, यानी संचित होता रहता है. चित्त में सुख-दुख इत्यादि भावनाओं (emotions) को महसूस करने की क्षमता होती है. यह चित्त अपने अंदर और बाहर के माहौल की अनुभूति करता है, वेदना की अनुभूति करता है और कर्म-कामना-प्रयत्न करता है. यही कर्म संस्कार के रूप में संचित होते रहते हैं.
पुनर्भव में कर्म और कर्मफल का सिद्धांत किस तरह काम करता है ? जो चित्त तृष्णा में बंधा होता है उसकी ऊर्जा ऋणात्मक होती है. इस ऋणात्मक चैतसिक ऊर्जा को ही 'आस्रव' कहा जाता है. आस्रवों से युक्त व्यक्ति इसी जिंदगी में बार बार पुनर्भव और पुनर्भव के बाद जन्म (जाति) लेता है, जीर्ण होता है, और मरता रहता है. इसी जिंदगी में मरण के क्षण जो चित्त शरीर में आगे जाता है, उसे च्युत चित्त कहा जाता है. यदि अवशिष्ट के रूप में ऋणात्मक कर्म की अधिकता होती है तो च्युत-चित्त एक निश्चित आस्रव से युक्त हो मरता है और अविद्या के कारण फिर से भव की ओर आगे बढ़ता है. और व्यक्ति को कर्मफल के रूप में 'निरन्तर दुख की अनुभूति' होती रहती है. यही दुख व्यक्ति को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करता रहतै है. आस्रवों का प्रतिशत व्यक्ति के फल को तय करता है. हम व्यक्ति की स्थितियों को विभिन्न नाम दे सकते हैं, जैसे---अपाय, पतन, नरक, पशु पक्षी योनि, मनुष्य योनि, प्रेतयोनि. अर्थात ये अवस्थाएं हैं, इहलोक से परे दूसरे काल्पनिक लोक नहीं हैं.
यही है पुनर्भव ! एक ही शरीर में अविद्या द्वारा भव और पुन:भव ! यहां संचित चैतसिक ऊर्जा किसी दूसरे आदमी के शरीर में नहीं जा रही है, इसलिए पुनर्जन्म नहीं है. यहां किसी कथित आत्मा की आवश्यकता भी नहीं है. यहां तो एक ही शरीर में विज्ञान (चित्त) moov कर रहा है. उसके साथ बुद्ध द्वारा प्रतिपादित प्रतीत्य-समुत्पाद का सिद्धांत लागू रहता है. मतलब इस जिन्दगी का भवचक्र स-कारण है और इसका निरोध किया जा सकता है. प्रज्ञा, शील, समाधि द्वारा निर्वाण की अवस्था पाई जा सकती है.
विनोद कुमार
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