ayodhya aur bharat

इस मसले को राजनीति के दायरे से बाहर लाना होगा. इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का वक्त खत्म हो चुका है. अब इस मुद्दे में आम आदमी को उलझा कर नहीं रखा जा सकता. इस फ़ैसले के साथ ही न्यायपालिका की जिम्मेदारी खत्म हो जायेगी लेकिन ठीक यहीं से शुरू होगी कार्यपालिका की चुनौती. अब यह उसकी जिम्मेदारी होगी कि अदालत के फ़ैसले को लागू करवाये और कानून-व्यवस्था की हालत बिगड़ने न दे. अगर इस चुनौती से पार पा लिया गया तो पूरी दुनिया के सामने देश के लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उभर कर आ जायेगी.

छह दिसंबर 1992 की शाम के सात बज कर बीस मिनट. रेडियो पर प्रादेशिक समाचार की पहली खबर थी कारसेवकों ने राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद ढहाया. विवादित ढांचे के गिरने के साथ भय और उन्माद की जो तस्वीर अभी रेडियो के माध्यम से जेहन में खिंच रही थी ठीक 9 बजे दूरदर्शन के जरिए आए पहले फ़ुटेज को देख वह तस्वीर शक्ल लेने लगी.

सुबह अखबार पर झुकी कुछ नजरों में शिकन थी और कुछ में चमक. तब भी ऐसा नहीं था कि देश के सामने दूसरा कोई मसला नहीं था. दूसरा कोई मुद्दा नहीं था. लेकिन सांप्रदायिक नारों के बीच धार्मिक मनोभाव हर मुद्दे को पीछे छोड़ रहे थे.18 साल गुजर चुके हैं, एक पूरी पीढ़ी जवान हो चुकी है, मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के बीच देश बदला है और माहौल बदला है.

इन सबके बीच एक बार फ़िर अयोध्या लौट आया है. इस बार बदले माहौल के बीच अयोध्या अदालती फ़ैसले का दम साधे इंतजार कर रहा है.इसको लेकर आशंकाएं भी हैं और नई सुबह की उम्मीदें भी.बदलते माहौल में जन भावनाओं में इस मसले को लेकर गर्माहट कम हुई है. इसीलिए अदालत के किसी भी फ़ैसले को देश सहजता से स्वीकार करेगा.

अदालत के बाहर फ़ैसले की आस संजोने वाले लोगों की दलील रही है कि धार्मिक भावनाओं से जुड़े मसलों को कभी भी कोर्ट के गलियारे में नहीं सुलझाया जा सकता. आपसी समझ और मेलजोल ही इस मसले को हल कर सकता है. हल के तौर पर यह फ़ैसला सद्भाव के सबसे करीब दिखता है, लेकिन बातचीत के लिए हुई पिछली पच्चीस कोशिशें इस तरह के हल की संभावना को बस जुमला ही साबित करती हैं.

सबसे मौजूं सवाल है कि देश के सामने आज सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? आतंकवाद, गरीबी और महंगाई जैसी दूसरी समस्याओं से जूझते देश के सामने क्या मंदिर आज मुद्दा बन सकता है? शायद इसका जवाब खोजने की जरूरत ही नहीं है. क्योंकि जब भी सांप्रदायिकता के आधार पर देश के सामने कोई संकट खड़ा हुआ उस समय देश के सामने वही सबसे बड़ा मुद्दा नहीं था.

महंगाई और गरीबी देश के सामने हमेशा ही मुद्दा रही है. लेकिन धार्मिक उन्माद ने उन सभी मुद्दों को पीछे छोड़ा है. इतिहास इसका गवाह रहा है.राजनीतिक निहिताथरे के मद्देनजर भी आज यह मसला उतना ही जीवित है. जिन नायकों की पहचान ही इसी मुद्दे के आधार पर गढ़ी गई थी वे आज भले ही इस मुद्दे को लेकर हां और ना दोनों के साथ दिख रहे हों.

लेकिन 23 और 24 सितंबर को जिस तरह से ये चेहरे बयान जारी कर रहे थे उससे साफ़ जाहिर था हो रहा था कि इस मसले को राजनीतिक रंग देने के प्रयास आज भी कमजोर नहीं हुए हैं. दूसरी तरफ़ है आम जनता. महंगाई से जूझ रही आम जनता. कॉमनवेल्थ में गेम्स लेन के बगल जाम से जूझ रही जनता. दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रही आम जनता के मन में राम-रोटी की भूख आज क्या आज भी उतनी ही तेज है?देश में हम अभी तक गरीबी का प्रतिशत तय ही नहीं कर पाए हैं.

एनएसएस का आंकड़ा गरीबी को 27 फ़ीसदी दिखाता है तो अर्जुन सेन कमेटी में यह आंकड़ा 77 फ़ीसदी तक चला जाता है. 2008 के यूनीसेफ़ के आंकड़ों के अनुसार भारत में कुपोषित बच्चों की तादाद दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है. ऐसे हालात सिर्फ़ पिछड़े इलाकों में ही नहीं बल्कि देश की ओर्थक राजधानी मुंबई से सिर्फ़ 120 किलोमीटर की दूरी पर भी हैं. कुपोषण के मामले में हम इथोपिया जैसे देश से भी नीचे खड़े हैं.

दुनिया के पंद्रह करोड़ कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारत में हैं. शिक्षा का अधिकार हम अपने देश के बच्चों को अभी तक उपलब्ध नहीं करा पाए हैं. ऐसे हालात में मंदिर या मस्जिद का सवाल देश के आम आदमी की बेहतरी की दिशा में भला क्या योगदान कर पाएगा? अयोध्या के मंदिर-मसजिद विवाद से आगे बढ़कर देश के सामने पेश इन चुनौतियों के बारे में ठोस कदम उठाया जाए.बीते दो दशकों में देश के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और अयोध्या भी बदले.

90 के दशक में धर्म का जो बाजार अयोध्या में खड़ा हो रहा था, विवादित ढांचा ढहने और ओर्थक उदारीकरण के हावी होने के बाद वह भी टूटने लगा है. विवादित ढांचे के ढहने के बाद कई लोगों का रोजगार भी ढह गया.राम से जुड़े रामदाना और खड़ाऊं जैसी चीजें बाजार से गायब हो गयी हैं. राम वनवासी हो गये तो उनके नाम से जुड़ा रामदाना भी अयोध्यावासी नहीं रह गया.

राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद के बाहर रामजन्म भूमि का इतिहास बेच रहे बारह साल के किशोर के मन में राम के ईश्वरीकरण या मानवीकरण का प्रतिबिंब नहीं बनता. उसे शायद यह भी नहीं पता होगा कि जो वह बेच रहा है उसके इतिहास में क्या है. आस्था रोजाना की समस्याओं से पीछे छूट गई है. पिछले दस सालों में उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था में भी काफ़ी बदलाव हुए. 1990 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय 4,280 थी और अब 11,000 रुपये है.

तब उत्तर प्रदेश 2 प्रतिशत की विकास दर के साथ चल रहा था और आज यह दर 6.3 प्रतिशत है.कुल मिलाकर इस मसले को राजनीति के दायरे से बाहर आना होगा. इस पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का वक्त खत्म हो चुका है. अब इस मुद्दे में आम आदमी को उलझा कर नहीं रखा जा सकता. इस फ़ैसले के साथ ही न्यायपालिका की जिम्मेदारी खत्म हो जाएगी लेकिन ठीक यहीं से शुरू होगी कार्यपालिका की चुनौती.

अब यह उसकी जिम्मेदारी होगी कि अदालत के फ़ैसले को लागू करवाए और कानून-व्यवस्था के हालात बिगड़ने न दे. पिछले अनुभवों को देखते हुये चुनौतियों से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इस बार चुनौती से पार पा लिया गया तो पूरी दुनिया के सामने देश के लोकतंत्र की वास्तविक ताकत उभरकर आ जाएगी.

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