अयोध्या कांड और न्याय का सौंदर्य शास्त्र

अयोध्या कांड और न्याय का सौंदर्य शास्त्र


 मुग़ल बादशाह के ज़माने की एक कहानी का थोडा संशोधन के साथ भावानुवाद. चार व्यक्ति चोरी के आरोप में धरे गए. उन सभी को न्यायाधीश ने एक ही अपराध के लिए अलग-अलग दंड दिया. पहला अपराधी एक पेशेवर चोर था और चौथा एक विद्वान का बेटा. पहले को मूंह काला कर, गधे पर बैठा घुमाने का दंड मिला. चौथे को भरी सभा में ज़लील कर यह कहते हुए छोड़ दिया गया कि उसे शर्म आनी चाहिए, उसने अपने पुरखों का नाम मिट्टी में मिला दिया. फ़िर हुआ यूं कि विद्वान के बेटे ने तो ग्लानि से आत्महत्या कर ली लेकिन आदतन अपराधी को जब मोहल्ला-मोहल्ला घुमाते हुए अपनी गली में ले जाया गया तो चिल्ला कर उसने अपनी बीवी से कहा कि नाश्ता तैयार रखना बस अब एक ही गली घूमना शेष रह गया है.
इसी तर्ज़ पर हाल का एक उदाहरण देखें. आपने हाल के कई ऐसे आतंकियों की खबर पढ़ी होगी जो मौत की सज़ा पाने के बाद भी आराम से भारतीय जेल में मज़े से बिरयानी तोड़ रहे हैं. लेकिन मंगलवार को बिहार के शेखपूरा नरसंहार मामले में दोषी साबित होते ही पूर्व मंत्री संजय सिंह को दिल का दौरा पड़ा और कोर्ट में ही उसकी मौत हो गयी. तो ये फर्क है एक पेशेवर अपराधी और किसी कारणवश बन गए अपराधियों में. तो निश्चय ही नैसर्गिक न्याय का यह भी तकाजा होना चाहिए कि वह फैसले लेते समय ना केवल कोरे तर्क अपितु हर संभावित पहलुओं पर गौर करे.
आशय यह कि ‘न्याय’ कोई कम्प्युटर के विश्लेषण की तरह सीधी और सपाट प्राप्त करने वाली अवधारणा नहीं होती. अगर ऐसा होता तो दशकों तक फैसले के लिए चक्कर काटने की ज़रूरत नहीं होती और न ही न्यायालयों पर करोड़ों मुकदमों का बोझ होता. बस सारे उपलब्ध तथ्य सिस्टम में डाले, डिजिटल हस्ताक्षर किया, प्रिंट आउट निकाला और सभी पक्षों को कापी मेल कर दिया. लेकिन क्या ऐसा होना संभव है?
अयोध्या मामले पर कुछ विघ्नसंतोषियों द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायायल के फैसले की की जा रही आलोचना को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है. इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि न्यायालय को उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ही फैसला देना होता है. उसे हर तरह के राग-द्वेष से खुद को ऊपर रख कर फैसला देने की अपेक्षा की जाती है. लेकिन वह फैसला देते समय वर्तमान हालात या फैसले के दूरगामी प्रभाव से बिल्कुल ही आंख मूंद ले, ऐसा नहीं हो सकता. न्याय की यह पश्चिमी प्रणाली ही दुर्भाग्य से हमें अपनाना पड़ा है जिसमें न्याय की देवी की आंख पर गांधारी की तरह पट्टी बांध दिया गया है. लेकिन ज़रूरत कई बार आंख खोल देने वाले फैसले की भी होती है जैसा अयोध्या मामले में किया गया है.
हो सकता है कानूनी पेचीदगियों के हिसाब से अयोध्या का फैसला ‘पंचायत’ जैसा लगे. इस तरह का पंचायती फैसले बाहर ही हो जाय, इसके लिए कई समूह अरसे से प्रयासरत भी थे. अगर फैसला न्यायालय से बाहर हो जाता तो वास्तव में अभी से वह ज्यादा स्वागतेय होता. लेकिन अगर किसी मामले में लोकतंत्र का कोई एक स्तंभ नकारा साबित हो जाय तो दुसरे को प्रयास करने में कोई हर्ज भी नहीं है. ऐसा ही नजीर आप अनाज मामले पर कोर्ट द्वारा सरकार को दी गयी घुरकी में देख सकते हैं. लेकिन सोच कर आश्चर्य तो होगा ही कि प्रधानमंत्री के अलावा किसी को भी उस फैसले पर कोई ऐतराज़ नहीं हुआ. यह घोषित तथ्य है कि नीतिगत निर्णय लेना सरकार का काम है, न्यायालय से कभी इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपेक्षा नहीं की जाती है. लेकिन जन सरोकारों से सीधे जुड़ा होने के कारण सबने उस फैसले का भी स्वागत ही किया.
तो असली सवाल नीयत का है. साथ ही ‘पालिका’ चाहे कोई हो अंतिम लक्ष्य उसका यही होता है कि देश और समाज में शांति और सद्भाव कायम रखने का प्रयास करना. फैसले पर काफी बात की जा चुकी है. तो उसका जिक्र ज्यादा नहीं करते हुए बस आलोचकों से यही पूछना चाहूँगा कि आखिर इसके उलट वो किस फैसले की उम्मीद कर रहे थे? क्या इसके अलावा कोई और फैसला हो सकता था जिनमें इस हद तक स्वीकार्य होने का सामर्थ्य होता.
और आप ये देखिये कि विरोध कौन लोग कर रहे हैं और इस मामले से उनका क्या सरोकार है? सीधा सा सवाल यह है कि केवल वामपंथ के कुछ लोग इसका विरोध कर अपना असली चेहरा जनता के सामने दिखा रहे हैं. अन्यथा मुक़दमे से जुड़े किसी भी पक्ष का कोई भी असंतुलित बयान अभी तक नहीं आया है. सद्भाव का तो यह आलम है कि एक मुस्लिम समूह ने जहां मंदिर के लिए पन्द्रह लाख रूपये देने की घोषणा की है तो मुक़दमे से जुड़े एक मुश्लिम पक्ष ने अपने वकील को ही यह ताकीद कर दिया कि वे उनकी तरफ से न बोले. ऐसे में ‘मान ना मान मैं तेरा मेहमान’ वाले वामपंथियों को जिनके लिए धर्म अफीम की तरह है इस धार्मिक मामले टांग अड़ाने की इजाज़त क्यूंकर दिया जाय?
इस फैसले से जो एक अच्छी बात और हुई है वो यह कि देश के दुश्मनों की पहचान आसान हो गयी. लोग कम से कम अब यह ज़रूर समझ गए होंगे कि आखिर वह कौन से तत्व हैं जिनके लिए साम्प्रदायिक सद्भाव उनके भूखे मरने का सबब है. अभी तक ज़ाहिर तौर पर हिंदू और मुस्लिम पक्ष एक दुसरे को इस मामले में दोषी ठहरा रहे थे वहां अब यह तय हो गया कि कोई तीसरा ही दोषी है जो अपना हित इस देश की धरती से कही बाहर तलाशते हैं. “तुमने दिल की बात कह दी आज ये अच्छा हुआ, हम तुझे अपना समझते थे बड़ा धोखा हुआ.”
जान बूझ कर फैसले के किसी भी अंश को उद्धृत ना करते हुए बस यही निवेदन करना चाहूँगा कि देश ने पिछले तिरेसठ सालों में पहली बार इस तरह के सद्भाव का स्वाद चखा है. निश्चित ही किसी भी पक्ष के लिए ऊपरी अदालत में जाने का रास्ता खुला है. अगर कोई अपील ना करे और बातचीत से मामला सुलझ जाय इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता. कुछ अच्छे लोग और समूह इस मामले में प्रयासरत भी हैं. लेकिन अगर जाना ही पड़े न्यायालय फिर भी हम इस परिपक्वता का दामन कभी नहीं छोडें यह ज्यादे ज़रूरी है. इसके लिए करना यह होगा कि हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मनिष्ठ समूह को अपनी ठेकेदारी करने के लिए कमान, किसी अधर्मी और नास्तिक के हाथ, किसी विदेशी विचारों के कठपुतली के हाथ नहीं सौपना चाहिए. ऐसे समूहों की जितनी उपेक्षा कर सकते हैं करें.
पुनः न्यायालय के कथित पंचायती फैसले पर इतना ही कहना चाहूँगा कि न्याय व्यवस्था की आंख पर भले ही पट्टी बंधी हो, लेकिन वह गांधारी की तरह अपना कार्य बदस्तूर संपादित कर रही है. लेकिन इतिहास में कभी ऐसे मौके भी आते हैं जब गांधारी को भी अपने आंख की पट्टी खोल लेनी होती है. निश्चित ही ‘पट्टी’ इस बार और बड़े सरोकारों के लिए खोली गयी है. हां हमें पहले के ज़माने के उलट अभी के समाज के ‘कृष्ण पक्ष’ से सावधान होगा जो यही चाहते हैं कि समाज के सद्भाव में कोई ना कोई ऐसी चीज़ को, किसी कडी को खुला छोड़ दें जिससे किसी मामले पर समाज कमज़ोर हो और इन पाखंडियों का काम चलता रहे. जहां कृष्ण के सरोकार व्यापक थे वहां ये लोग अपने ब्रेड-बटर को ही पुख्ता करने के फिराक में देश से खिलवाड करना जारी रखे हुए हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह नयी पीढ़ी ज़रूर इनके झांसे में नहीं आयेगी. वास्तव में देश की  न्याय व्यवस्था ने न केवल लोकतंत्र अपितु समग्र मानवता के हित में एक अनूठा आर अभिनंदनीय फैसला दिया है.

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