संघर्ष अब भी जारी है : मेधा पाटकर

विनीत खरे
‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ को शुरू हुए 25 साल हो गए हैं. नर्मदा नदी पर बाँध बनाने के विरोध में शुरू हुआ ये अभियान शायद भारत के सबसे लंबे समय से चल रहा जन आंदोलन है.
आंदोलन का कहना है कि बाँध की वजह से कई हज़ारों हेक्टेयर ज़मीन में पानी भर गया है जिसकी वजह से कई हज़ार लोगों के घर उजड़ गए, लोगों को अपनी ज़मीन के बदले हर्जाना नहीं मिला है.
 विनीत खरे ने ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का पर्याय बन चुकी मेधा पाटकर से बात की.
मैं अगर आपसे पूछूँ कि पिछले 25 सालों में आपने क्या हासिल किया तो आप क्या कहेंगी?
देखिए सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में दो लाख लोग हैं. आगे इंदिरा सागर है जिसमें 93,000 हेक्टेयर ज़मीन डूब में है. उसके खिलाफ़ संघर्ष जारी है. ये हो ही नहीं सकता कि आंदोलन खत्म है.
मेधा पाटकर
हम लोग नहीं मानते कि आज भी संघर्ष का काम पूरा हुआ है लेकिन एक अहिंसक आंदोलन का 25 सालों तक जारी रहना ही ख़ास बात है. आदिवासी, मज़दूर, किसान, मछुआरे...सभी ने इस संघर्ष में हिस्सा लिया है. आज तक इस बाँध को रोककर रखा है क्योंकि इसके पुनर्वास में हमने 300 करोड़ के भ्रष्टाचार को उजागर किया जिसकी न्यायिक जाँच मध्य प्रदेश में चल रही है. साथ ही हमने सरकारों को पुनर्वास के लिए ज़मीन देने के लिए मजबूर किया नहीं तो ये कागज़ पर कानून लिखकर भागने वाले थे. आंदोलन के चलते 11,000 लोगों को ज़मीन के बदले ज़मीन देनी पड़ी. लेकिन मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में हज़ारों ऐसे परिवार हैं जिनका पुनर्वास नहीं हुआ. सरकारों के पास ज़मीन नहीं है, क्योंकि इसमें इन्होंने भ्रष्टाचार किया. हमने इसकी पोल खोली है.
क्या इसे आंदोलन की विफलता नहीं कहेंगे कि बाँध का काम आगे बढ़ता रहा है और सभी लोगों को हरजाना भी नहीं मिल पाया?
आज भी युद्ध जारी है. जो भी हरजाना मिला है, वो सबसे ज़्यादा सरदार सरोवर परियोजना में ही लोगों को मिला है. आज बाँध 122 मीटर पर खड़ा है.
आपके आलोचक आपको विकास विरोधी कहते हैं?
ये गलत समझ है कि अहिंसक संघर्ष विफल हो रहे हैं. आप बताईए कि माओवादी जिनका सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उनके पक्ष में कितने निर्णय आए हैं? सरकार आसानी से लोगों की बात नहीं सुनती. सरकार की नीतियाँ पूँजीपतियों के पक्ष में हैं. सरकार अगर लोगों की बात सुनती है तो वो है लंबी लड़ाईयों के बाद. लेकिन उन्हें जन आंदोलन होना होगा, न कि कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं का आंदोलन.
मेधा पाटकर
धरातल में रहने वाले लोगों के मन में ऐसा कोई भाव नहीं है. गुजरात में अभी तक मात्र 20 प्रतिशत ही नहरें बनीं. वहाँ किसान नहरों के लिए ज़मीन नहीं दे रहे हैं. ये चर्चा गुजरात की विधानसभा में कई बार हो चुकी है. महाराष्ट्र के पूरे उत्तर किनारे की नर्मदा वो आज गुजरात को दे रहे हैं, लेकिन आदिवासी वहाँ लड़ झगड़कर मछली पर, नदी पर, अपना हक़ कायम करने के लिए लड़ रहे हैं.
लेकिन मेधा जी, जिन लोगों को हर्जाने के तौर पर पैसा मिला, उनमें से कई लोगों ने पैसे का सही इस्तेमाल नहीं किया और भविष्य के लिए उसका सही निवेश नहीं किया. आलोचक कहते हैं कि इस बारे में आपके आंदोलन ने कुछ नहीं किया...
इस पर हमारा पूरा ध्यान है. न्यायालय में हमारे केस भी लगे हुए हैं. कानून को देखो तो नर्मदा मामले में पैसा देना ही नहीं है. कानून है कि ज़मीन के बदले ज़मीन देनी चाहिए. पैसा इसलिए दिया गया क्योंकि अधिकारियों के एक गिरोह ने पैसे लूटे. करीब ढाई हज़ार रजिस्टरियाँ झूठी साबित हुई हैं. फ़ोटो झूठे हैं, हस्ताक्षर झूठे हैं. इंट्रीज़ झूठी हैं. हमने विकास के विकल्प भी दिए हैं. बड़े बाँधों का विकल्प है पूरी नदी घाटी को बाँधना. एक-एक खेत, छोटी-छोटी नदी, नालों को बाँधना. हमने ये भी करके दिखाया कि छोटा बिजलीघर भी संभव है जिसपर स्वदेश फ़िल्म बनी.
लेकिन मेधा जी आप भी तो आगे निकल गई हैं. नर्मदा बचाओ आंदोलन के बाद आप मुंबई के घर के आंदोलन से जुड़ीं. आप नक्सल समस्या के मुद्दे से जुड़ीं. क्या ये कहना सही नहीं होगा कि आपको भी ऐसा लगने लगा है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन का औचित्य खत्म हो गया है और आपको भी अब आगे बढ़ने की ज़रूरत है?
देखिए सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में दो लाख लोग हैं. आगे इंदिरा सागर है जिसमें 93,000 हेक्टेयर ज़मीन डूब में है. उसके ख़िलाफ़ संघर्ष जारी है. ये हो ही नहीं सकता कि आंदोलन ख़त्म है.
एक बड़ा सवाल है कि भारत में जनआंदोलन हैं, उनका ऐसा हाल क्यों होता है कि कुछ समय के बाद वो क्षीण होने लगते हैं.
ये गलत समझ है लोगों की कि अहिंसक संघर्ष विफल हो रहे हैं. आप बताईए कि माओवादी जिनका सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उनके पक्ष में कितने निर्णय आए हैं? सरकार आसानी से लोगों की बात नहीं सुनती. सरकार की नीतियाँ पूँजीपतियों के पक्ष में हैं. सरकार अगर लोगों की बात सुनती है तो वो है लंबी लड़ाईयों के बाद. लेकिन उन्हें जन आंदोलन होना होगा, न कि कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं का आंदोलन



.साभार- बी बी सी हिंदी.कॉम 

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