मैं अफ़ज़ल गुरु की फ़ाइल हूँ



मैं अफ़ज़ल की फ़ाइल हूँ. पिछले चार सालों से मैं दिल्ली के गृह मंत्रालय में आराम से सो रही थी. धूल की चादर ओढ़े. मेरे आस पास घुप्प अंधेरा था, कहीं कोई हलचल नहीं.
मैं और केवल मैं, साथी के नाम पर मेरे सपने थे. कभी अच्छे तो कभी दिल दहलाने वाले. अच्छों में मेरे दिन बदलने वाले थे. मुझे आस थी कि मेरे पन्नों पर लिखा होगा कि आप सुरक्षित है. आप जा सकती है. और बुरों में नज़र आता था काली स्याही से लिखा पैग़ाम--- अब बस काम तमाम.
फ़ाइल बंद की जा रही है. सर्वोच्च न्यायालय के फ़रमान का पालन होने जा रहा है. सोच के ही नींद टूट जाती है. पर अपनी दुनिया में अच्छे बुरे दिन समेटे मैं आराम से जी रही थी. बीच-बीच में बंद कमरे के बाहर से आवाज़ सुनाई देती थी. राजनीति छोड़ो. अफज़ल को फांसी दो.

कभी कभी अफज़ल के मानवाधिकारों की चर्चा भी सुनाई देती थी. पर इस सबको भी एक अर्सा हो गया. फिर लंबे समय तक सब कुछ शांत हो गया. मुझे लगा कोई ख़बर न होना ही अच्छी ख़बर है. पर फिर मई के शुरु में मेरे आसपास हलचल तेज़ हो गई. अजमल कसाब को 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमलों के लिए फांसी की सज़ा सुनाई गई. और तब से अब तक मानो भूचाल ही आ गया है.
मेरी धूल की चादर मुझ से खींच ली गई. मुझे नींद से जगा कर तेज़ रोशनी के कमरे में पहुंचाया गया. मैं दिल्ली की सड़को को लंबे समय बाद देख पाई. मेरे बारे में हर ओर बात होने लगी. मुख्यमंत्री और लेफ़्टिनेंट गवर्नर के दफ़्तरों के बीच पिंग-पांग की गेंद की तरह मुझे भेजा जाने लगा.
मुझे लगा कि मुझे छूने भर से लोग डर रहे थे. मैं एक मुसीबत बन गई थी जिसे कोई पालना नहीं चाहता था. दिल्ली की गर्मी को मेरी चर्चा और बढ़ा रही है तो लोग कश्मीर के अफ़ज़ल गुरु की फांसी की बात से बढ़ने वाले तापमान की बात कर रहे थे.
मैं प्राइम टाइम टीवी पर नज़र आ रही थी. पर मन ही मन सोच रही थी. क्यों रे कसाब तू क्यों आया? क्यों पकड़ा गया? तू न होता तो मैं कहीं किसी कमरे के किसी कोने में कई साल और चैन से रह सकती थी.
मन में ग़ुस्सा भी आ रहा है कि सबको फ़ाइल क्लोज़ करने की इतनी जल्दी क्यों हो रही है. क्यों अब कोई मेरे मानवाधिकारों की चिंता नहीं कर रहा... क्यों?
क्या इसलिए कि पाकिस्तानी कसाब को फांसी पर लटका देखने की जल्दी है? और उस इच्छा के सामने अफ़ज़ल गुरु के फांसी के फंदे पर लटकने में हो रही देरी खटक रही है. फांसी पर चढ़ने वालों की लाईन तो बहुत लंबी बताई गई थी. फिर मुझ पर ही क्यों सबकी नज़र है.
मैं फिर बंद कमरे में रहना चाहती हूँ. पर क्या कोई मेरी सुनेगा? शायद नहीं! शायद फ़ाइल बंद होने का समय आ गया है! पर शायद कोई चमत्कार हो जाए! आशा तो मैं कर ही सकती हूँ. वैसे भी और क्या है मेरे पास इसके अलावा..
.साभार- बीबीसी हिंदी.com

टिप्पणियाँ