लोकतंत्र के पहरुए और चौथे स्तंभ की भूमिका से नवाजे जा चुके मीडिया की खबरें क्या हमेशा तटस्थ रही हैं. राष्ट्रीय आपातकाल के समय कई बार मीडिया को लेकर कसीदे क़ढ़े गये कि मीडिया सरकार के हाथों की कठपुतली बन गया है. क्या आज के दौर में मीडिया अपने सामाजिक दायित्वों के साथ न्याय कर पा रहा है. या फ़िर कॉरपोरेट और सरकार के बीच में पिस रहा है. कई सामाजिक मुद्दों पर मीडिया के कवरेज को कठघरे में खड़ा कर रही हैं -अरुंधति रॉय
1. समानता अभी भी दूर की सोच है. गरीबों को गरीबी की दलदल में ढकेला जा रहा है.
2. न्याय और बराबरी का सपना देखने और मांग करने वाले लोग पुलिस की पिटाई के जरिये खामोश कर दिये गये.
3. चमीडिया ने बहुत सी झूठी कहानियां गढ़ी हैं जिसमें एक कहानी यह भी थी कि माओवादी मारे गये पुलिसवालों के शवों का अंग-भंग कर रहे हैं.
4. इमरजेंसी के दिनों में यह कहावत आम थी कि जब इंदिरा गांधी ने प्रेस को झुकने के लिए कहा तो प्रेस रेंगने लगा.
25जून 1975 की आधी रात को इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लागू की थी. इसके जरिये अपने खिलाफ़ उठे शुरूआती विद्रोह को दबाना ही उनका मकसद था. लेकिन स्थिति पहले की तुलना में और भी भयानक हो गयी. लोगों की सलामती और उचित न्याय पहले के तरह ही एक सपना ही रह गया. उस समय बंगाल में नक्सलवादियों का उदय हो रहा था. लेकिन लाखों लोग जयप्रकाश के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में हिस्सा ले रहे थे. सभी की एक मांग थी.
किसानों के लिए जमीन मिले. आज 35वर्ष बाद परिस्थितियों में भयानक बदलाव आया है. मानव अधिकारों के रूप में न्याय की भावना आयी है. समानता अभी भी दूर की सोच है. गरीबों को गरीबी की दलदल में ढकेला जा रहा है. बीच भूमि के बंटवारे का एक तरीका ये हो सकता है कि धनी लोगों से भूमि को छीन कर भूमिहीनों को दे दें. ज्यादतर भूमिहीन,बेरोजगार, स्लम बस्ती में रहने वाले और शहरी काम-काजी किसी गिनती में नहीं हैं.
पश्चिम बंगाल के लालगढ़ जैसे जगहों में लोग पुलिस और सरकार से उन्हें अकेला छोड़ देने की मांग करते हैं. पुलिस रुक-रुक कर हिंसा बढ़ाती है. इसका लोग गुस्से से इजहार करते हैं. इन दो सालों के अंतराल में ही उस जगह से रेप, हत्या और फ़रजी एंकाउटर के कितने मामले उजागर हुए हैं.पीसीएपीए को एक माओवादी संगठन बताकर प्रतिबंधित कर दिया गया है.
(इसी तरह से ओड़िसा के नारायण पटना में चासी मूल्या आदिवासी संघ और पोटका झारखंड में विस्थापन विरोधी एकता मंच को भी प्रतिबंधित किया गया)न्याय और बराबरी का सपना देखने और जोतने वालों के लिए जमीन की मांग करने वाले लोग पुलिस की पिटाई के जरिये खामोश कर दिये गये हैं और माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं.
या यही विकास है? इमरजेंसी के दिनों में यह कहावत चलती थी कि जब इंदिरा गांधी ने प्रेस को झुकने के लिए कहा तो प्रेस रेंगने लगा. लेकिन तब भी बहुत से राष्ट्रीय अखबारों ने नाफ़रमानी की और सेंसर का विरोध संपादकीय पृष्ठ को बिना कुछ लिखे सादा ही निकाला.
(यह भी विडंबना ही है कि उन बागी संपादकों में से एक थे वीजी वर्गीज) इस बार अघोषित आपातकाल के दौर में इस तरह की बगावत की कोई संभावना नहीं है क्योंकि मीडिया खुद ही सरकार बन गया है. इसे नियंत्रित करने वाले कारपोरेट घरानों के अलावा कोई भी नहीं बता सकता कि इन्हें क्या करना चाहिए. वरिष्ठ राजनेता और बड़े सुरक्षा अधिकारी टीवी पर अर्नब गोस्वामी या बरखा दत्त के सामने दिन के ओखरी कर्मकांड में हस्तक्षेप करने के लिए गिड़गिड़ाते देखे जा सकते हैं.
बहुत से टीवी चैनल और अखबार ऑपरेशन ग्रीन हंट के युद्धकक्ष को मूर्त रूप देते हुए उनके गलत सूचनाओं के प्रसारण में सीधे-सीधे हिस्सेदार हैं. 1500 करोड़ का माओवादी उद्योग जैसे एक ही शीर्षक से कई अखबारों में खबरें छपी थीं. लगभग सभी अखबारों और समाचार चैनलों में पीसीएसीए को (जिसे बार-बार माओवादी भी कहा जा रहा था) पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम में ट्रेन को पटरी से उतारने की भयानक घटना के लिए जिम्मेदार बताया जा रहा था, जिसमें 140लोगों की मृत्यु हुई थी.
मुख्य आरोपियों में से दो को पुलिस तथाकथित एन्काउन्टर में मार चुकी है लेकिन इस हादसे के रहस्य से अभी तक पर्दा नहीं उठा है. प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ने बहुत सी झूठी कहानियां गढ़ी जो इंडियन एक्सप्रेस ने लगातार छापी. इनमें से एक कहानी यह भी थी कि माओवादी मारे गये पुलिसवालों के शवों का अंग-भंग कर रहे हैं.
(पुलिस की तरफ़ से ही ऐसी घटना से इनकार की खबर डाक टिकट के आकार में कहीं बीच के पृष्ठ पर छिपाकर छापी गयीथी.) माओवादी गुरिल्ला महिलाओं के ऐसे बहुत से इंटरव्यू छापे जाते हैं जिनमें वे बताती हैं कि कैसे माओवादी नेताओं ने उनके साथ बलात्कार किया और बार-बार बलात्कार किया. ऐसी महिलाओं के बारे में बताया जाता है कि वे अभी-अभी जंगल और माओवादियों के चंगुल से बचकर किसी तरह बाहर आयी हैं ताकि अपनी कहानी दुनिया को सुना सकें.
बाद में इस बात का पर्दाफ़ाश हुआ कि वह कई महीनों से पुलिस की हिरासत में थी.दुर्घटना आधारित विेषण करते हुए हमारी टीवी स्क्रीन पर जिस तरह से चीखा जाता है वह हमें इस चिंता में डुबाने की कोशिश करता है कि‘‘हां ओदवासियों को नजरअंदाज किया गया है. वे बहुत बुरे दौर से गुजर रहे हैं, उन्हें विकास चाहिए और इस सबके लिए सरकार जिम्मेदार है. लेकिन अभी संकट का समय है.
हम माओवादियों से मुक्ति चाहते हैं, पहले देश की रक्षा कर लें फ़िर हम ओदवासियों की मदद करेंगे.’’जैसे-जैसे युद्ध करीब आता गया है सशस्त्र बलों ने भी घोषणा कर दी है (जिस तरीके से वे कर सकते हैं) कि वे भी अब हमारे सिर पर नाचने के लिए तैयार हो रहे हैं. कुछ ही दिनों बाद नक्सल प्रभावित राज्यों ने मुख्यमंत्रियों ने निर्णय लिया कि नक्सल विरोधी युद्ध को तेज किया जाए. बड़े पैमाने पर सशस्त्र बलों की भरती और नक्सल प्रभावित इलाकों में उनकी तैनाती का दौर जारी है.
कुछ ही समय पहले सेनाध्यक्ष ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को ‘नक्सलवाद से लड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहने’ को कहा. उन्होंने कहा कि ‘‘इसमें 6 महीने लग सकते हैं या फ़िर एक या दो साल. लेकिन अगर हमें राज्य के हाथ में एक औजार के बतौर अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखना है तो हमें वे चीजें करनी पड़ेंगी, जिनकी उम्मीद राष्ट्र हमसे करता है.’’( अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक से साभार) |
लेख अच्छा लिखा है ........
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