सुशिल झा
बात बहुत पुरानी नहीं है...बस 17-18 साल..मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था. दिन के ग्यारह बजे होंगे. हम सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे. तभी एक रिक्शा और उसके साथ लोगों का एक गुट आता हुआ दिखा...पास आए तो हमने देखने की कोशिश की कि आखिर रिक्शा पर है क्या?
कुछ नहीं था एक ईंट थी जिसके सामने कुछ रुपए पड़े थे और साथ चलने वाले, लोगों से कह रहे थे राममंदिर के लिए दान दीजिए. लाउडस्पीकर पर घोषणा हो रही थी कि इस ईंट से मंदिर बनेगा.
कारवां गुज़र गया लेकिन उसकी धूल कुछ महीनों बाद दिखी जब पता चला कि कहीं कोई मस्जिद तोड़ दी गई है. उसके बाद कॉलोनी में जगह जगह पोस्टर लगे माथे पर भगवा कपड़ा बांधे युवकों के जिनके नीचे लिखा था कि ये शहीद हुए हैं.
मैं सोचता रहा कि भारत ने कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं तो ये शहीद हुए कैसे और सैनिकों की तरह इन्होंने कपड़े भी नहीं पहने.
ये वो दौर था जब हमारी कॉलोनी के युवक काफ़ी उग्र होने लगे थे. चुनावों में नौजवानों को बुलाया जाता और वो बस एक ही नारा लगाते जय श्री राम मानो चुनाव राम जी लड़ रहे हों.
एक और नारा लगता था- अयोध्या तो झांकी है काशी मथुरा बाकी है..इसका अर्थ कुछ वर्ष पहले तब पता लगा जब काशी और मथुरा जाने का अवसर मिला.
साध्वी ऋतंभरा का एक भाषण भी बजता था. क्या बोलती थीं याद नहीं लेकिन इतना याद है कि जो भी बोलती थीं वह खून खौलाने वाला होता था. हिंदुओं को लड़ने के लिए उकसाने वाले ये भाषण नौजवानों में जोश भर देते थे. उमा भारती, लाल कृष्ण आडवाणी और वाजपेयी ये नाम तभी मानस पटल पर अंकित हुए अपने भाषणों से.
बाद में दंगों की ख़बर आई. छोटी कॉलोनी में कम अख़बार आते थे तो जानकारी भी कम मिलती थी. एक दिन मैदान में अचानक सुना कि मुसलमान पास की मस्जिद से लोगों को मारने आ रहे हैं. घर दूर था तो मैं पास में एक बड़े पेड़ पर चढ़कर इंतज़ार करने लगा ये सोचकर कि पेड़ पर तो कोई देख नहीं पाएगा.
हुआ कुछ नहीं..न मुसलमान आए और न दंगा देखने की मेरी इच्छा पूरी हुई....
ये बातें उस समय समझ में नहीं आती थीं..अब सोचता हूं तो याद आता है कि कैसे जय श्री राम का उदघोष करने में युवक गर्वान्वित होते थे. एक बार मंझले भाई को चुनाव वाली गाड़ी की छत पर जय श्री राम करते हुए पापा ने देखा तो जमकर पिटाई की थी. पिताजी तो जय श्री राम और चुनावी बखेड़े दोनों से नाराज़ थे.
अपने जय श्री राम, डंडे के डर से तभी भाग गए थे. लेकिन जय श्री राम ने मुसलमानों के मन में घर बसा लिया एक डर के रुप में. मुसलमान हमसे बात करने से कतराने लगे.
अब सोचता हूं तो याद आता है कि उस समय कई मुसलमान दोस्त हमने भी खोए क्योंकि हम नासमझी में उनके डर को नाराज़गी समझ बैठे.
फिर नौकरी करने लगे. 26 फरवरी 2002 को जब कारसेवकों को लेकर जा रही साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने की ख़बर फ्लैश हुई तो मेरे मुंह से यही निकला --- ये तो बड़ी हो जाएगी ख़बर.
उस दिन जेएनयू में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का मशाल जुलूस भुलाए नहीं भूलता. मशालों में आग और आंखों में चिंगारी. उस समय मेरे दिमाग पर बस तीन शब्द चोट कर रहे थे. जय श्री राम, जय श्री राम और जय श्री राम
ख़बर बहुत बड़ी हुई और मुझ जैसे शायद कई लोग सोचने पर मजबूर हुए. जय श्री राम के भक्तों के ग़ुस्से को गुजरात में खून से शांति मिली.
श्री राम का डर मूर्त रुप ले चुका था. वो दौर खुद से घृणा का था. क्योंकि भगवान राम तो त्याग के देवता हैं. उन्होंने कभी ख़ून बहाने की बात नहीं की. यहां तक कि उसका खून बहाने से पहले भी उससे बातचीत का प्रस्ताव रखा जो उनकी पत्नी को हर ले गया था.
लेकिन वो मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे. ये जय श्री राम थे जिनके लिए प्रतिशोध ज़रुरी था रक्तपान ज़रुरी था.
अगर किसी के भगवान इतने डरावने होते हैं तो भगवान न हों तो अच्छा है.अगर जय श्री राम इतने डरावने हैं तो मैं राम से काम चलाना अधिक पसंद करुंगा.
अब दशकों पहले की घटना का फ़ैसला आना है....कोई कहता है वहां अस्पताल बनाओ..कोई कहता है...लाइब्रेरी बनाओ....कोर्ट क्या कहेगा किसी को नहीं पता...
मैं तो बस इतना कहता हूं काशी और मथुरा में जब मंदिर मस्जिद साथ रह सकते हैं तो अयोध्या में क्यों नहीं...मंदिर भी बने और मस्जिद भी बने. दोनों की दीवारें लगती हों. अज़ान और घंटियां साथ साथ बजें क्योंकि ये दोनों आवाज़ें हम सभी ने एक साथ कहीं न कहीं ज़रुर सुनी होंगी. जिन्होंने नहीं सुनी उनसे मेरा वादा है कि दोनों आवाज़ें एक साथ बड़ी सुंदर लगती हैं..साभार-बीबीसी हिंदी
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