1. मीडिया की दुनिया के लिए किशन जी का मतलब है माओवादियों के भूमिगत नेता किशनजी.
2. कुछ साल पहले तक किशन जी नाम एक दूसरी और बहुत भिन्न छवि से जुड़ा था.
3. कोशिश करें तो बंगाल की खाड़ी की गोद में पले इन दोनों क्रांतिकारियों में कुछ साम्य ढूंढा जा सकता है.
इधर जब भी अखबार या टीवी में ’किशन जी’ का जिक्र आता है, मेरे भीतर कुछ होता है. ढांपने की कोशिश करता हूं, लेकिन चेहरे पर शिकन आने से रोक नहीं पाता. गुस्सा नहीं आता,शायद कुछ उदास जरूर हो जाता हूं. दिलो-दिमाग में कई सवाल अनायास उतरने लगते हैं.
बंद आंखों के पर्दे पर कई चेहरे चुपचाप उतरने लगते हैं- बाणी जी, अशोक जी, लिंगराज भाई,नवीन भाई.. सोचता हूं उनके मन में क्या हो रहा होगा?मीडिया की दुनिया के लिए ’किशन जी’ का मतलब है माओवादियों के भूमिगत नेता मल्लोजुला कोटेश्वर राव उर्फ़ किशनजी. भारत सरकार के ’मोस्ट वांटेड’ (खतरनाक अपराधियों) की सूची में नंबर दो. शीर्ष नक्सली संगठन भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो के सदस्य. जन्म करीम नगर, आंध्र प्रदेश का, लेकिन ओड़िशा और झारखंड होते हुये अब बंगाल के लालगढ़ इलाके में सक्रिय.
इमरजेंसी के वक्त से ही भूमिगत. सशस्त्र संघर्ष के अगुवा और रणनीतिकार. गमछे से ढंका चेहरा और कंधे पर लटकी बंदूक (रपट के मुताबिक एके-46) याद दिलाते हैं कि ’बंदूक की नली से सत्ता प्राप्त करना’ उनके लिये सिर्फ़ मुहावरा नहीं है. फ़िर भी आपके मन में संदेह हो तो वे स्वयं अपने इंटरव्यू में खुलासा करते हैं- बुद्धदेब भट्टाचार्य को बारूदी सुरंग से उड़ाने की योजना स्वयं उनकी थी, उनके लोगों ने सत्तारूढ़ माकपा के 52 कार्यकर्ताओं का सफ़ाया किया है.
नक्सली संगठनों की जानकारी रखने वाले लोग बताते हैं कि वे सख्त लाइन के हिमायती हैं,पार्टी के भीतर और बाहर विरोधियों से कड़ाई से पेश आते हैं. मीडिया अपने ’किशनजी’ की छवि बारीकी से नहीं आंकता, लेकिन कभी-कभार आक्रोश से सुलगती आंखों, विद्रूप भरी मुस्कुराहट या फ़िर अदम्य संकल्प शक्ति की झलक दिख जाती है.
कुछ साल पहले तक ’किशन जी’ नाम एक दूसरी और बहुत भिन्न छवि से जुड़ा था. देशभर के जनांदोलनों में, रचनात्मक कार्यकर्ताओं में, भाषाई बुद्धिजीवियों में या फ़िर समाजवादी विचार और राजनीति से जुड़े हर कार्यकर्ता के लिये किशन जी का मतलब था किशन पटनायक. जब भी किसी बैठक में एक पेचीदा लेकिन बुनियादी सवाल खड़ा होता, या फ़िर बिखरे हुये सूत्रों को समेटने की बारी आती तो सबकी निगाहें एक कोने में सिमट कर बैठे किशन जी की ओर मुड़ जातीं.
जन्म ओड़िशा के कालाहांडी जिले में, लेकिन कर्मक्षेत्र ओड़िशा से बिहार होते हुये पूरा देश. युवावस्था से ही लोहिया के सानिध्य में समाजवादी आंदोलन से जुड़ाव. मात्र 32 साल की आयु में संबलपुर से लोकसभा के सदस्य. लेकिन 1967 में लोहिया के देहांत के बाद लोहिया के अनुयायियों और समाजवादी आंदोलन के भग्नावेशों से मोहभंग. इमरजेंसी के पहले से ही किशन जी भी ’भूमिगत’ हो गये.
संसद और संसदीय लोकतंत्र की शिखर राजनीति से ओझल हो गये. 2004 में अंतिम विदायी से पहले जीवन के अंतिम तीन दशक समाजवादी विचारधारा को नये सिरे से एक देशज विचार के रूप में गढ़ा. इस नये विचार के राजनैतिक संगठन बनाये. देशभर में घूम-घूम कर नयी पीढ़ी के कार्यकर्ता बनाये और सहमना जनांदोलनों को वैकल्पिक राजनीति की दिशा दिखायी.
किशन जी का व्यक्तित्व राजनीति और राजनेता की प्रचलित छवि को पुन: परिभाषित करने की मांग करता था. समाज परिवर्तन के लिये राजनैतिक शक्ति की आकांक्षा, लेकिन सत्ता राजनीति का परित्याग. वैचारिक आग्रहों पर अडिग रहते हुये भी कठिन से कठिन हालात में सच बोलने की जिद. सार्वजनिक जीवन में रहते हुये भी अनूठा संकोच.
चिकनी-चुपड़ी बातों से परहेज लेकिन अद्भुत सौम्यता और संवेदनशीलता. अगर कड़ाई थी तो केवल आचार, वाणी और राजनीति में मर्यादा पालन की.कोशिश करें तो बंगाल की खाड़ी की गोद में पले इन दोनों क्रांतिकारियों में कुछ साम्य ढूंढा जा सकता है. किशन जी के यह दोनों रूप अंतिम व्यक्ति की वेदना का राजनीति के औजार से उपचार करने के प्रयास हैं.
दोनों चेहरे लोकतंत्र के स्थापित स्वरूप को खारिज करते हैं, दोनों पूंजी की सत्ता के खतरों की शिनाख्त करते हैं, नव -साम्राज्यवाद के प्रति सजग हैं. दोनों की राजनीति में आमूल-चूल बदलाव का संकल्प है. दोनों के जीवन में अपरिग्रह है. लेकिन गहराई में देखें तो किशन जी के यह दो रूप 21वीं सदी के क्रांतिकारियों के लिए दो अलग-अलग दिशायें दिखाते हैं.
एक रास्ता बंदूक की नली से सत्ता हासिल कर राज्य सत्ता के जरिये समाज को बदलने के विचार से प्रेरित है. बीसवीं सदी में इस विचार ने दुनिया के हर कोने में क्रांतिकारियों को आकर्षित किया. लेकिन 21वीं की शुरुआत होते-होते इस विचार की सीमायें जगजाहिर होने लगीं. दिक्कत सिर्फ़ इतनी नहीं है कि समकालीन राज्यसत्ता की सैन्य शक्ति के सामने किसी गुरिल्ला क्रांतिकारी दस्ते की सफ़लता की संभावना नगण्य प्राय है.
राज्य व्यवस्था के दमन के शिकार समुदायों को न्याय दिलाने की बजाय सशस्त्र क्रांति की राजनीति लोकतांत्रिक राजनीति की बची-खुची जमीन को सिकोड़ देती है. दिक्कत यह भी है कि सशस्त्र क्रांति सत्ता उन्हें नहीं सौंपती जिनके नाम पर संघर्ष होता है, बल्कि उन्हें जिनके हाथ में शस्त्र होते हैं.दूसरा रास्ता लोकतांत्रिक परिवर्तन की लंबी और कठिन यात्रा के लिये आमंत्रित करता है. यहां लोकतांत्रिक का मतलब सिर्फ़ चुनाव और वोट नहीं है. क्रांति के लिए रचना और लोकतांत्रिक संघर्ष इस यात्रा के अभिन्न अंग हैं. पहली नजर में यह रास्ता रोमांस और रोमांच विहीन लग सकता है.
लेकिन अंतिम व्यक्ति को राजनीति का मोहरा नहीं बल्कि उसकी कसौटी मानने वाला हर क्रांतिकारी जानता है कि टिकाऊ बदलाव इसी रास्ते में आ सकता है. सशस्त्र संघर्ष की‘सफ़लता’ समाज की उर्वर जमीन को कई पीढ़ियों तक बंजर बना देती है. लोकतांत्रिक संघर्ष की ‘असफ़लता’ भी समाज में परिवर्तन के असंख्य बीज और विचार की नमी छोड़ कर जाती है.
यह दूसरा रास्ता इस देश की मिट्टी से बना है. रूस, चीन या किसी और देश के मॉडल का दोहराव करने की बजाय यह रास्ता क्रांति की अवधारणा में क्रांति करने का दुस्साहस रखता है. यूरोप और अमेरिका के विकास के मॉडल का अनुसरण करने की बजाय यह रास्ता भारतीय संदर्भ में एक नये मॉडल को गढ़ने का आमंत्रण देता है.
राज्य व्यवस्था ने तय कर लिया है कि वह किशन जी की कौन सी आवाज सुनेगी. लोकसभा में कालाहांडी में भूख का सवाल उठाने वाले, देश भर में अलख जगाने वाले और सुप्रीम कोर्ट में भूख का सवाल उठाने वाले किशन जी की आवाज को अनसुना कर सरकार ने इशारा कर दिया कि वह बंदूक की आवाज सुनेगी.
मीडिया ने भी तय कर लिया है कि सरकार का‘मोस्ट वांटेड’ही उसका भी सर्वप्रिय है. अब आपको-हमें तय करना है. इक्कीसवीं सदी में एक सुंदर भारत का सपना देखने वालों को तय करना है. हम ’किशनजी’ की आवाज सुनेंगे या किशन जी की.(लेखक सीएसडीएस दिल्ली में सीनियर फ़ेलो और जाने-माने चुनाव विेषक हैं) साभार- प्रभात खबर |
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