बिबेक देबरॉय
1. पीएम के भाषण में बिहार की रैंकिंग का जिक्र शामिल करनेवालों को थोड़ी बेहतर जानकारी रखनी चाहिए थी. 2. मानव विकास सूचकांक 2001 में 15 राज्य शामिल किये गये थे, जिनमें बिहार 15वें स्थान पर था. 3. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिहार ने विकास के अपने पुराने रास्ते से छलांग लगायी है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 27 मई 2006 को‘खाद्यान्न के लिए कृषि, पोषण सुरक्षा और राष्ट्रीय विकास’विषय पर एक सेमिनार को संबोधित किया था. उन्होंने कहा था, ‘हमें कृषि अनुसंधान और तकनीकी विकास पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है. हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिये कि बिहार, जिसे सबसे पहले भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की स्थापना के लिए चुना गया था, बाकी देश के विकास से पिछड़ क्यों गया? 1950 में प्रसिद्ध पॉल एप्लेबी रिपोर्ट ने बिहार को दूसरा सुशासित राज्य बताया था. उस समय और उस मानक से बिहार आज कहां पहुंच गया है?
यह विचारणीय है कि बिहार जैसा राज्य बाकी दुनिया से कदम क्यों नहीं मिला सका?’पहले तो हमें पॉल एप्लेबी को दरकिनार करना चाहिए. पॉल हेन्सन एप्लेबी (1891-1963) ने 1952, 1954, 1956 और 1960-61 में भारत की यात्रा की. फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के सलाहकार के रूप में उन्होंने अपनी पहली रिपोर्ट 1953 में प्रकाशित करायी, जिसका शीर्षक था‘भारत में लोक प्रशासन : सर्वे रिपोर्ट. 1956 में दूसरी रिपोर्ट प्रकाशित हुयी, जिसका शीर्षक था ‘भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की पुनर्परीक्षा : सरकारी औद्योगिक और वाणिज्यिक संस्थाओं के प्रशासन के विशेष संदर्भ में. 1950में कोई पॉल एप्लेबी रिपोर्ट नहीं प्रकाशित हुई थी.
इसे 1953 या 1956 होना चाहिये था, लेकिन उन रिपोर्टो में भी एप्लेबी ने बिहार को दूसरा सुशासित राज्य कहां बताया था? दोनों रिपोर्टो में तो इस तरह का कोई उल्लेख ही नहीं है. ठीक-ठीक कहें तो दूसरी रिपोर्ट का विषय कहीं से भी राज्यों की रैंकिंग से संबंधित नहीं है. यदि एप्लेबी ने इस तरह की कोई रैंकिंग की है तो इसे पहली रिपोर्ट में होना चाहिए था. और निश्चित रूप से 1950 में राज्यों या देशों के बीच में तुलना करना इतने फ़ैशन में नहीं था.‘प्रशासन’आज की तरह प्रचलित शब्द भी नहीं था.
न ही इस तरह की सामग्री थी जो उन मानकों को तय करती, जिनके आधार पर प्रशासन के विविध पक्षों को नापा जाता और उन सबको मिलाकर कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता.एप्लेबी ने इसी समय के आसपास‘इंडियन जर्नल ऑफ़ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’में तीन शोधपत्र प्रकाशित करवाये, लेकिन इनमें से किसी में भी बिहार की ऐसी कोई रैंकिंग नहीं की गयी है.1950 में बिहार को एप्लेबी द्वारा इतनी ऊंची रैंक देना महज शहरी मिथक है, प्रधानमंत्री का भाषण लिखने वालों को थोड़ी बेहतर जानकारी रखनी चाहिये थी.
लेकिन यह बिहार के आपेक्षिक पतन की अच्छी कहानी है. पतन, न सिर्फ़ उस दौर से जब बिहार संस्कृति, साम्राज्य, धर्म, शैक्षणिक संस्थाओं, प्रशासन और संपन्नता का केंद्र था, बल्कि1950 के दौर से भी पतन. यदि 1950 में प्रशासन के मामले में कोई रैंकिंग हुई होती तो निश्चित ही बिहार और उत्तर प्रदेश ऊपर होते.किसी भी मानक से बिहार विकास के मामले में सबसे नीचे रहता आया है. 2001 में योजना आयोग द्वारा प्रकाशित‘राष्ट्रीय मानव विकास रिपोर्ट’पर एक निश्चित तारीख पड़ी है.
मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) 2001 में 15 राज्यों को शामिल किया गया था, जिसमें बिहार 15वें स्थान पर था. हर साल इंडिया टुडे के लिए विवेक देवराय और लवीश भंडारी द्वारा विभिन्न मदों और वैरियेबल्स के जरिये राज्यों की रैंकिग की जाती है. चाहे कोई भी मद हो बिहार की जगह हमेशा सबसे नीचे की ओर ही होती है. 2004-05 में 42.1 प्रतिशत ग्रामीण बिहार गरीबी रेखा के नीचे रह रहा था.
इस आंकड़े से आगे सिर्फ़ झारखंड और उड़ीसा ही निकल सके थे. भारत के ओर्थक विकास और प्रशासन में जो कुछ भी गड़बड़ है, बिहार उन सब की छवि का मूर्त रूप बन गया है. अकादमिक काम और लोकप्रिय धारणा में आमतौर पर इन राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान,उत्तर प्रदेश) के लिए बीमारू शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसमें इनकी बीमार व्यवस्था पर व्यंग्य भी है.
अविभाजित मध्य प्रदेश और राजस्थान आज उतने वंचित और पिछड़े नहीं हैं जितना कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश. इन इलाकों को दरकिनार कर भारत ओर्थक रूप से संपन्न नहीं हो सकता. विस्थापन किसी इलाके के आकर्षण और संपन्नता का सूचक है. कुछ हजार साल पहले बिहार विस्थापित होकर आने वाले लोगों का केंद्र था, पर आज विस्थापित होकर बाहर जाने वालों का सबसे बड़ा केंद्र है.बिहार पिछड़ा और गरीब क्यों है, उसकी रैंकिंग नीचे क्यों चली गई है?
राज्य और केंद्र के बीच राजस्व बंटवारे की समतामूलक नीतियां न होना इसके कारण के रूप में गिनाये जा सकते हैं, लेकिन समतामूलक नीतियां अब इतिहास हो कर रह गई हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात है प्रशासन, जिसका मतलब है भौतिक और सामाजिक संसाधनों के लिए बड़े पैमाने पर खर्च, जनता के पैसे के खर्च पर निगरानी और कानून-व्यवस्था की गारंटी. ऐसा वातावरण कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र के लिए आवश्यक है.
बाढ़ की समस्या के बावजूद कृषि योग्य जमीन और मौसम के चलते कोई कारण नहीं कि वहां और बेहतर खेती न हो सके. बिहार के प्राकृतिक संसाधनों, महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति और संभावित परिवहन संसाधनों के चलते बिहार में उद्योग भी फ़ल-फ़ूल सकते हैं. बिहार के शैक्षणिक संसाधनों की क्षमता इतनी है कि बिहार के सेवा क्षेत्र को बहुत बेहतर प्रदर्शन करना चाहिये. ओर्थक सुधारों के एजेंडे को यहां दोहराने की जरूरत नहीं है.
यह एजेंडा विश्व बैंक द्वारा 2005 में सूत्रबद्ध किया गया था ताकि सामाजिक सेवा, राजस्व व प्रशासन के क्षेत्र में निवेश का बेहतर माहौल बनाया जा सके और राजस्व को प्रशासन के अभिन्न अंग के रूप में विकसित किया जाये.जटिल चुनावी राजनीति के इस दौर में, जिसमें बिहार में जाति एक बड़ी भूमिका तय करती है, हमेशा यह नहीं होता कि अच्छे प्रशासन को सत्ता में लाया जाये और बुरे प्रशासन को सत्ता से बाहर कर दिया जाये.
इतना जरूर कहा जा सकता है कि 2005 के चुनावों में अच्छे प्रशासन की आकांक्षा अभिव्यक्त हुई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छा प्रशासन 2010 के चुनावों में चुनावी लाभ देगा ही.ऐसे स्पष्ट प्रमाण हैं कि बिहार ने प्रशासन और कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में काफ़ी प्रगति की है. यह 2008-09 के जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) के आंकड़ों से भी पुष्ट होता है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बिहार ने विकास के पुराने रास्ते से छलांग लगाई है.
लेकिन क्या इसका श्रेय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दिया जा सकता है? पहले और अब की विकास दर में अंतर इतना ज्यादा है कि निश्चय ही इसका जवाब सकारात्मक होगा. बिहार में प्रशासन और सेवा क्षेत्र बेहतर होने का एक कारण 2007 से 2009 के बीच विश्व बैंक द्वारा चलाये गये ॅण कार्यक्रम भी हैं. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिये कि बिहार और पटना में ही काफ़ी सारे ऐसे तत्व हैं जो इस विकास को भटकाने की कोशिश करते रहते हैं.
(लेखक सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च में प्रोफ़ेसर हैं) साभार- प्रभात खबर |
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
sujhawon aur shikayto ka is duniya me swagat hai