क्या मुल्क अब अयोध्या से आगे बढ़ेगा? लेनिन का मशहूर मुहावरा था, एक कदम आगे, दो कदम पीछे. सी क्रांति के संदर्भ में. अयोध्या फैसले के पहले भारत के गृह मंत्री पी चिदंबरम का बयान सटीक था. भारत 1991 से बहुत आगे निकल गया है. भारत की नयी पीढ़ी ने अतीत का बोझ उतार दिया है.
यह अयोध्या फैसले के बाद भारत का मूड- प्रतिक्रिया देख कर पुष्ट हो गया. पूरे देश में संयम, मर्यादा और अनुशासित बयान. राजनीतिक दल, सरकार और मीडिया सबका. 1991 में खासतौर से हिंदी मीडिया ने आग का बीजारोपण किया था, यह प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट का निष्कर्ष था. पर इस बार इलाहाबाद हाइकोर्ट (लखनऊ बेंच) के कोर्ट नंबर 21 में हुए अयोध्या फैसले के बाद, क्या राजनीतिक दल अयोध्या मुद्दे को पीछे छोड़ेंगे? वे एक कदम आगे बढ़ेंगे या दो कदम पीछे लौटेंगे? यह तो साफ हो गया है कि जनता इस मुद्दे से आगे निकल चुकी है, पर शायद राजनीतिक दल इस हथियार को नहीं छोड़नेवाले. यह प्रमाण भी मिल गया. तीन उदाहरण हैं. फ़ैसला आते ही संतों की उच्चाधिकार समिति ने असंतोष जताया. भारत बंद का आवाहन किया. इन संतों का क्या वैधानिक वजूद है?
शुक्रवार को (एक अक्तूबर) यह बंद नकार कर जनता ने इसका मुंहतोड़ जवाब दिया. देश की किसी गली की एक दुकान भी बंद नहीं हुई. अगले दिन मुलायम सिंह की गर्जना हुई, फ़ैसले के खिलाफ़. उत्तेजक और भावना भड़कानेवाला. याद करिए यह वही मुलायम सिंह हैं, जिन्हें उनके समर्थकों ने मौलाना मुलायम कहा था. फ़िर वह मायावती को हराने के लिए कल्याण सिंह को अपने दल में साथ लाये. वही कल्याण सिंह, जिनके कार्यकाल में विवादित ढांचा टूटा था. पर सही है कि गुजरे 20 वर्षो में जनता, इन नेताओं के असली चेहरे पहचानने लगी है. इसलिए संभव है कि जनता अब नेताओं के झांसे में न आये, पर नेता बार-बार यह उकसाते और उठाते रहेंगे. महज सत्ता और वोट के लिए. हजारीबाग में भी एक अक्तूबर को अफ़वाह उड़ी, पर कोई राजनीतिक दल आगे नहीं बढ़ा. समाज, विभिन्न समुदाय और वर्ग के लोगों ने पहल की और स्थिति संभाली.
बुद्धिजीवी सामने आये. इस अर्थ में समाज, देश, गुजरे दो दशकों में बहुत आगे बढ़े हैं. अनुभवों से सबक ली है. समझदार हुए हैं. पर नेता? शायद नहीं सीखे हैं? मौलाना बहउद्दीन का उल्लेखनीय बयान था, अब इस मामले को कोर्ट और प्रशासन के हवाले छोड़, देश आगे निकले. ऐसा ही कहा याचिकाकर्ता हाशिम अंसारी ने. मैं उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत करता हूं. ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली का बयान भी सकारात्मक था. पर क्या राजनीतिक दल आगे भी इस संयम-धैर्य का परिचय देंगे?
शायद नहीं. सरकारें चाहतीं, तो 60 वर्ष पहले यह मामला सुलझ सकता था. फोड़ा नासूर नहीं बनता. केंद्र या राज्य सरकारें जमीन अधिगृहीत कर, उस पर दोनों पक्ष की सहमति से कोई अनूठा राष्ट्रीय स्मारक बना सकती थी. पर यह नहीं होना था. क्योंकि होता, तो राजनीति की आग में अयोध्या का घी नहीं पड़ता और इस आग में घी सबने डाला. अपने-अपने नफा-नुकसान के अनुसार.
सबसे पहले भाजपा. भाजपा की पूरी राजनीति का ऊर्जास्रोत यह मुद्दा रहा.1984 में दोनों पक्षों में लगभग यह समझौता हो गया था. पर अंतिम समय में संघ और भाजपा के कुछ शीर्ष नेताओं के कारण यह संभव नहीं हुआ.तब से लेकर आज तक यह मुद्दा भाजपा के लिए अमृतबूंद की तरह रहा. अब भाजपा के लिए भी मौका है, वह चाहे, तो अपना पुराना चोला उतार कर नये प में उभर सकती है. एक मध्यमार्गी दल की तरह. आचार-विचार और संस्कृति में फिलहाल भाजपा, कांग्रेस की घटिया कार्बनकॉपी रह गयी है.
राजनीति में जिस तरह वह विश्वसनीय विकल्प के प में उभरना चाहती थी, वह सपना शायद नये भाजपाइयों को नहीं मालूम. भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटानेवाली पार्टी कैसे खुद भ्रष्टाचार के गंभीर प्रकरणों से घिरी? आज पार्टी ऊपर से दो धड़े में विभाजित है. वह भी कॉरपोरेट घरानों के प्रभाव में है. कर्नाटक सरकार की बुनियाद पड़ी थी, साफ-सुथरा और स्वच्छ शासन देने के नाम पर. पर उसके मंत्रियों के काम देश में सुर्खियां बन रहे हैं. पार्टी पर दलालों का कब्जा होने लगे, तो भय, भूख और भ्रष्टाचार नहीं मिटनेवाला. कभी राजनीतिक पतन के कीचड़ में कमल खिलने की बात होती थी, पर अब कमल ही कीचड़ में डूब-उतरा रहा है. इसका मूल कारण है कि पार्टी किसी कीमत पर सत्ता चाहती है. अब वह दीनदयाल उपाध्याय के सिद्धांतों पर चल कर सत्ता के बाहर बैठनेवाली पार्टी नहीं रही. झारखंड में झामुमो के साथ मिल कर सरकार बने या नहीं बने, इस बात पर पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दो भागों में बंटा था. सार्वजनिक प से. सिद्धांत या गद्दी, इसके मूल में यह सवाल है, इसलिए अयोध्या या अयोध्या सरीखे अन्य मुद्दे शायद यह दल नहीं छोड़ेगा.
क्योंकि ऐसे मुद्दे ऑक्सीजन देते हैं, ऐसा इस दल के अनेक बड़े नेता मानते हैं.पर भाजपाई समय का करवट नहीं पहचान रहे. भारत में एक मध्यवर्ग उभर चुका है. बीमार हिंदी इलाकों में भी यह मध्यवर्ग उदारीकरण के गर्भ से निकला है. इसका मानस नया है. वह पैसा और भोग की दुनिया में डूबना-रमना चाहता है. टीवी विज्ञापनों की पहली-सुनहली दुनिया में उड़ानें भरना चाहता है. उसके ख्वाब और सपने बड़े हो गये हैं. वह निजी जीवन में राजनीति से दूर हो रहा है, पर वह अच्छा शासन चाहता है. अच्छी व्यवस्था और सक्षम प्रणाली. उदारीकरण का यह सकारात्मक असर है. भोग, विकास और बेहतरी के सपने भी साथ जुड़ गये हैं. हालांकि इसका समाज पर नकारात्मक असर भी है.
उदारीकरण की संस्कृति को राजनीति नहीं सुहाती. उसे विचार से परहेज है. पर समाज, बिना राजनीति और विचार के नहीं बदलता. इसलिए इस समाज या अर्थव्यवस्था से कोई गांधी, नेह, लोहिया,जयप्रकाश, पटेल नहीं निकलनेवाला. हां, विचारों की राजनीति का एक ॅणपक्ष यह भी है. इससे फासिस्ट विचार भी निकलते हैं. इस तरह उदारीकरण के मानस का सकारात्मक पक्ष यह है कि फिलहाल फासिस्ट प्रवृत्तियां कमजोर हो रही हैं. पर उसका ॅणपक्ष बड़ा असरदार है. इस कारण ही राजनीति में साधन-साध्य, शुचिता, पारदर्शिता, ईमानदारी के लिए अब जगह नहीं. ईमानदारी बोझ है. एक पूर्व समाजवादी विधायक के शब्दों में कहें, तो मूर्खता. उदारीकरण का एक और असर हुआ है, जो चौतरफा है. सभी दलों पर समान प से लागू. वाम से लेकर दक्षिण विचारोंवाले संगठनों को अब कार्यकर्ता नहीं मिल रहे. चाहे आरएसएस हो या नक्सली. पहले की तरह विचारों की ऊर्जा से प्रेरित और प्रभावित युवा अब इन खेमों में नहीं आ रहे. अनेक संगठन पेड वर्कर के बल पर चल रहे हैं. मध्यमार्गी दलों में कार्यकर्ताओं का अकाल है. वहां सांसद-विधायक फंड से उपजनेवाले ठेकेदार हो गये हैं.
वही पार्टी चलाते हैं. ऊपर जड़हीन राजनीतिक दलाल पार्टियों की रीत-नीत तय करते हैं. इस माहौल में अति की राजनीति नहीं चलनेवाली. इस तरह भाजपा और उससे जुड़े संगठन कोशिश भी करें, तो पुराने मुद्दों को जीवित नहीं कर सकते. बात बहुत दूर चली गयी है. अब फिर उन्माद और उत्तेजना के काठ की हांडी, दोबारा चूल्हे पर नहीं चढ़नेवाली. इस नये मानस के अनुसार अपने को ढालने के लिए भाजपा के पास मौका है.पर सिर्फ भाजपा ही क्यों? इस पूरे प्रकरण की जड़ तो कांग्रेस है. जवाहरलालजी बहुत बड़े नेता थे. पर वह भी इस सवाल को टाल गये. कुछ लोग सरदार पटेल को गलत ढंग से याद करते हैं.
पर तथ्य अलग था. मधु लिमये ने ‘अयोध्या की पृष्ठभूमि‘ पर 1992 में लंबा लेख लिखा था. उसमें उन्होंने उल्लेख किया, वल्लभभाई पटेल ने एक शांतिपूर्ण समाधान का सुझाव रखा था और कहा था यथास्थिति में जबरदस्ती कोई परिवर्तन न किया जाये.इसके बाद लगातार कांग्रेस इस मुद्दे को लाभ-हानि के अनुसार इस्तेमाल करती रही. मधु लिमये ने इसी लेख में आगे लिखा है, सितंबर 1989 में उत्तरप्रदेश की नारायणदत्त तिवारी सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्री के आशीर्वाद से विश्व हिंदू परिषद से एक समझौता किया. राजीव गांधी प्रीतिभोज में शामिल होते रहे. उन्होंने लोकसभा चुनावों का प्रचार अभियान इस घोषणा से आरंभ किया कि कांग्रेस-इ का उद्देश्य रामराज्य की स्थापना करना है. यह हिंदुओं की सांप्रदायिक भावनाओं को सीधा न्योता था. राजीव की घोषणा की तुलना महात्मा गांधी के रामराज्य से नहीं की जा सकती है. गांधी का रामराज्य एक नैतिक व्यवस्था थी. बोफोर्स तथा अन्य घोटालों में फंसे राजीव गांधी की नैतिक व्यवस्था से दूर का संबंध नहीं था.पर राजीव गांधी को ही क्यों दोष दें? कांग्रेस में नेह और शास्त्रीजी को छोड़ दें, तो इंदिरा गांधी खांटी राजनीतिज्ञ हुईं. निर्णायक और खतरे उठानेवाली. उन्होंने भी इस नासूर का उपचार नहीं किया. शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी झुके. मधु लिमये के शब्दों में, कट्टरतावादी मुसलिम लॉबी की गलत सलाह पर राजीव ने मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए मुसलिम महिलाओं से संबंधित कानून बनाया.
वे इस अवसर का लाभ उठा कर मुसलमानों में बहुविवाह को सीमित कर सकते थे. बहुविवाह प्रणाली को बिल्कुल खत्म न भी करते , पर एकतरफा तलाक का निषेध कर सकते थे. पर उनमें ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई. इसकी हिंदुओं में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई.फिर आगे मधु लिमये बताते हैं कि इस प्रतिक्रिया से भयभीत होकर अण नेह, बूटा सिंह, उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह की सलाह पर राजीव गांधी ने एक और भयानक गलती की. 1949 से 1986 तक अयोध्या के उक्त स्थल पर स्थिति ज्यों कि त्यों रही. पर 86 में मुख्य द्वार का ताला कांग्रेस ने खुलवा दिया.यह जड़ है, नये विवाद का जिसने हालात यहां तक पहुंचा दिये. इसके बाद विश्वनाथ प्रसाद सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. भ्रष्टाचार मिटाने की लहर पर वह सत्ताशीर्ष पर पहुंचे. उन्होंने क्या किया यह भी मधु लिमये के ही शब्दों में, स्मरणीय है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने भी सन् 1990 में इस स्थान के अधिग्रहण के लिए अध्यादेश जारी किया था, जिसे उन्होंने तुरंत वापस ले लिया था. अत अब उनसे पूछा जा सकता है कि भूमि अधिग्रहण के मामले में उनकी बात की विश्वसनीयता क्या है?
उन दिनों विश्वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह को अपदस्थ करने और भाजपा को खुश करने के षड्यंत्र में लगे रहे, यह भी लिखा है मधु लिमये ने. फिर मधुजी के ही शब्दों में, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने विवादित ढांचे के आसपास की ही भूमि के अधिग्रहण के लिए एक अध्यादेश निकाला, लेकिन 24 घंटे के भीतर ही उसे वापस ले लिया. विवादित ढांचे की रक्षा में विश्वनाथ प्रताप सिंह का एकमात्र योगदान था मुलायम सिंह की पीठ में छुरा भोंकने का लगातार प्रयास. मैंने अक्तूबर 1990 में ज्योति बसु से बात की थी ओर उनसे कहा था कि वे विश्वनाथ प्रताप सिंह को समझायें कि वे मुलायम सिंह को अपदस्थ करने का खतरनाक खेल न खेलें.मधु लिमये को फ़िर उद्धृत करें. यह भी जान लें कि क्यों मधुजी के उद्धरण बार-बार पढ़ें? वह आधुनिक राजनीति में योगी थे. तपस्वी. सिद्धांतों पर ही राजनीति की. जीवन जिया.
फ़िर राजनीति छोड़ दी. उन दिनों वह एक तटस्थ दर्शक थे. महाभारत के संजय की तरह विश्वसनीय और प्रामाणिक. उनकी पुस्तक राजनीति का शतरंज (वीपी से पीवी तक) से उन दिनों की राजनीति का अंदरूनी चेहरा जान लेना जरूरी है, ताकि नेताओं का असल चरित्र सार्वजनिक हो सके. इसी अर्थ में अतीत समझना जरूरी है, ताकि भविष्य के लिए समाज, सबक ले सके.वह लिखते हैं, विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मुलायम सिंह यादव से अपने को दूर रखने की कोशिश की और विश्व हिंदू परिषद तथा मुसलिम प्रतिनिधियों के साथ बेमन से बातचीत की, किंतु उन्होंने समस्या का समाधान खोजने के उद्देश्य से दोनों पक्षों को इकट्ठा नहीं किया.आगे मधु लिमये विश्वनाथ प्रताप सिंह के व्यक्तित्व का राज खोलते हैं,चौधरी देवीलाल की बरखास्तगी के बाद विश्वनाथ प्रताप अपनी स्थिति को मजबूत करने के उपाय खोज रहे थे. उन्होंने राष्ट्रीय मोरचा के चुनाव घोषणा पत्र से आरक्षण की प्रतिबद्धता का मुद्दा उठा लिया.
अपने सहयोगियों से परामर्श लिये बगैर और पूरी तैयारी किये बगैर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल को मात देने के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा कर दी. उन्होंने आरक्षण के तहत आनेवाली जातियों की केंद्रीय सूची तैयार नहीं की और गंगा से लेकर पाकिस्तान की सीमा तक सारे इलाके के ग्रामीण समुदाय आरक्षण की परिधि से बाहर रह गये..विश्वनाथ प्रताप सिंह देवीलाल की रैली और उसके परिणामों से चिंतित थे. उन्होंने घबरा कर मंडल रिपोर्ट को उठा लिया..विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आरक्षण के मुद्दे को इसलिए चुना ताकि देवीलाल को उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा के पिछड़े वर्गो से अलग किया जा सके. अजीत सिंह का कद घटाया जा सके. भाजपा के पिछड़े वर्ग के आधार में सेंध लगायी जा सके. बिहार तथा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उच्च जातियों के तबके तक सीमित किया जा सके.आगे इसी लेख में वह विश्वनाथ प्रताप सिंह के व्यक्तित्व का बखान करते हैं, जो अयोध्या मामले में प्रासंगिक है.
जिसे देश को जानना चाहिए, विश्वनाथ प्रताप सिंह में दुष्ट प्रवृत्ति भी थी. इसकी एक झलक हमें उस दिन मिली थी, जब जनता दल संसदीय पार्टी के नेता के चुनाव में एक तिकड़म खेला गया. वास्तव में उन्होंने देवीलाल से गुप्त सौदा किया था, जिसके अंतर्गत देवीलाल को उपप्रधानमंत्री और उनके बेटे को हरियाणा के मुख्यमंत्री का पद देने का वायदा किया गया था. 1990 के पूरे वर्ष में विश्वनाथ प्रताप सिंह इस कोशिश में रहे कि भाजपा मुलायम सिंह की जड़ें खोदने में लगी रहे. यद्यपि वे धर्मनिरपेक्ष और न्यायालय की गरिमा भरी बातें बड़े जोश के साथ करते रहे और मुसलमानों से कहते रहे कि मसजिद की रक्षा की जायेगी.
किंतु उन्होंने कारसेवकों को चारों तरफ़ से उत्तर प्रदेश पर हमला करने की छूट दे दी. हर रोज हजारों स्वयंसेवक दिल्ली से गुजरते थे. हजारों तो दिल्ली के ही थे. किसी को भी रोका नहीं गया..क्या विश्वनाथ प्रताप सिंह इस बात को नहीं जानते थे कि वे केंद्रीय सरकार के प्रमुख हैं? क्या उन्हें यह पता नहीं था कि राज्य, संविधान, भारतीय दंड संहिता जैसे संघ के कानूनों और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था की रक्षा की जिम्मेदारी केंद्रीय सरकार पर आती है?इस लेख के अंत में मधु लिमये यह पूछते हैं कि इस देश का भविष्य क्या होगा? यह एक रहेगा?
वही जवाब देते हैं. जब अधिकांश राजनेता अपने स्वार्थ और अपने वोट बैंक के लिए प्रयत्नशील हों, तो इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या इस देश में राज्य की रक्षा के लिए प्रयत्नशील स्त्री-पुरूष पर्याप्त संख्या में हैं अथवा नहीं?दरअसल मधु लिमये का यह सवाल आज के नेताओं के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 1990 में तब के नेताओं के लिए था.पर राजनेता अपना चेहरा कुछ दिखाते हैं और गद्दी के लिए करते कुछ हैं. बाद में मधु लिमये ने यह भी लिखा कि कैसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देवीलाल को ठीक करने के लिए मंडल का दावं चला. किसी कनविक्सन (दृढ़ विचार) के तहत नहीं.दरअसल इन दिनों भी राजनेताओं के दो चेहरे हैं. पहले से अधिक विकृत और स्वार्थी. ऊपरी सिद्धांत अलग, कर्म अलग. कर्म और वाणी में, उत्तर और दक्षिण का रिश्ता. इसलिए शायद ये राजनीतिक दल अयोध्या मुद्दे को नहीं छोड़नेवाले. क्योंकि ऐसे मुद्दे भावनात्मक होते हैं.
जैसे-जैसे समाज आगे बढ़ेगा, संपन्न और शिक्षित होगा, उन्माद कम होगा. हर धर्म, जाति और तबके में. 1991 के भारत और 2010 के भारत में यही फ़र्क है. जनता समझदार हुई है, युवा अपने कैरियर-भविष्य के प्रति सजग. पर राजनीतिज्ञ भावना, उन्माद और अपुष्ट तथ्यों के इर्द-गिर्द ही राजनीति करते हैं. क्योंकि अगर राजनीति भावना से हट गयी, तो राजनीति के बुनियादी सवालों को फेस करने के लिए हमारे राजनेता तैयार नहीं. क्योंकि उसके लिए स्टेट्समैन चाहिए, डीलर नेता नहीं. गद्दी के भूखे लोग नहीं. अयोध्या प्रसंग में ही चंद्रशेखर को याद करना प्रासंगिक होगा. वह उस पीढ़ी के नेता थे, जो अपने काम और सोच का ढिंढोरा नहीं पीटते थे. जैसे अंदर थे, वैसे ही बाहर जीने की कोशिश करते थे. अयोध्या मसला उनके सत्ताढ़ होने के 40 वर्ष पहले से चल रहा था. पर पहली बार केंद्र सरकार ने गंभीर और सार्थक हस्तक्षेप कर बातचीत शु करायी. कभी चंद्रशेखर ने न सार्वजनिक प से यह कहा और न Þोय लिया. यह लिख कर पुष्ट किया है, देश के दो बड़े नेताओं, भारत के पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने. अपनी-अपनी किताबों में.
नरसिंह राव सरकार के बाद जो गृह मंत्री हुए, उन सबने कहा कि चंद्रशेखर सरकार कुछ दिन और रह जाती, तो यह मामला सुलझ जाता. दरअसल कांग्रेस ने हरियाणा के दो सिपाहियों की राजीव गांधी के यहां कथित जासूसी के नाम पर चंद्रशेखर सरकार की बलि दे दी. पर राजदरबार की असल खबर थी कि राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोग सावधान हो गये कि यह मामला सलट गया, तो फिर राजनीति कैसे चलेगी? यही नहीं अपने सबसे कम समय के कार्यकाल में चंद्रशेखर सरकार ने जो मुसीबतें ङोली और पहल की, वह भी स्मरण करना चाहिए. भविष्य के लिए ही सही. पंजाब संकट पर बातचीत की शुरुआत. असम में चुनाव. सबसे बड़ा मुद्दा था देश को दिवालिया होने से बचाना. 91 के पहले की सारी सरकारों ने कर्जखोरी से देश को दिवालिया बना दिया था. पर 1991 में कर्ज देनेवाले साहूकारों से देश को बचाने का भार मिला चंद्रशेखर सरकार को. अब उदारीकरण के जाने-माने हिमायती कहते हैं कि उस वक्त सोना गिरवी रखने का साहस और दृढ़संकल्प न दिखाया गया होता, तो आज देश कंगाल रहता. अंतरराष्ट्रीय बाजार से उसकी साख खत्म हो गयी होती. उदारीकरण की न पृष्ठभूमि बनती और न ही भारत विकसित होने या महाशक्ति बनने का सपना देखता.
दरअसल अयोध्या जैसे प्रसंगों को हल करने के लिए सत्ता के भूखे नेता या लोभी पार्टियां नहीं चाहिए. देश जिनका आराध्य है, जो देश के बुनियादी सवालों पर अपना जीवन, कैरियर सबकुछ दावं पर लगा सकते हैं, वे ही देश को नयी दिशा दे सकते हैं. अपना चुनाव, कैरियर दावं पर लगा कर चंद्रशेखर ने ऑपरेशन ब्लूस्टार के खिलाफ बोला था. इंदिराजी के न रहने पर सिख दंगों में सड़क पर उतर कर विरोध किया था, चौधरी चरण सिंह ने भी. तब कांग्रेसियों ने ही नारा दिया था, बलिया के भिंडरावाले. जिस मुल्क की राजनीति में साहसी और दूरदर्शी नेता नहीं हों, वे मुल्क का कायापलट नहीं कर सकते.पर यह आलोचना सिर्फ भाजपा या कांग्रेस की ही क्यों? जो विकल्प उभरे, जिन्हें जनता ने अभूतपूर्व ताकत और गद्दी दी, उनकी क्या भूमिका रही? मुलायम सिंह, लालू प्रसाद या मायावती या अन्य के लिए भी यही बातें लागू हैं. अयोध्या मुद्दा सलट जाये, तो इनकी भावी राजनीति के मुद्दे क्या होंगे?
मंडल मुद्दे के दौरान, कैसे मंडल विरोधी नेताओं को मंडल समर्थक शीर्ष नेताओं ने प्रायोजित किया, धन देकर, सत्ता का बल व समर्थन देकर, ताकि वे समाज-जातियों को आपस में लड़ाते रहें. उग्र बयान दें,बैठक करें, समाज को बांट कर रैलियां करें. विद्वेष-शत्रुता फ़ैलायें, ताकि वोट बैंक बने. ये अंदर की बातें अब समाज जानता है. धर्म, जाति, भाषा वगैरह के प्रसंग मनुष्य- समाज की भावना से जुड़े हैं. इन्हें उकसाना, वोट बैंक बनाना और राज करना, यही राजनेताओं का धर्म बन गया है. फ़र्ज करिए 1990 में मंडल लागू हो गया. पूरे समाज ने मान लिया. उसके बाद लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव ये दोनों नेता खुद को देश की बुनियादी समस्याओं से जोड़ लेते, तो आज देश में बड़े और निर्णायक नेताओं का अभाव न होता. दरअसल इतिहास मोड़नेवाले नायक धर्म और जाति की पूंजी से नहीं बनते हैं. वे पूरे समाज में कमोबेश स्वीकार्य होते हैं. इसी कारण भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे बड़े नेता हुए.
अपने उदारवादी सोच के कारण, व्यक्ितगत ईमानदारी के बावजूद आडवाणी शीर्ष पर नहीं पहुंच सके. क्योंकि उनके बारे में समाज के सभी समूहों में एक राय नहीं थी. इसी तरह लालू प्रसाद, मुलायम सिंह,मंडल क्रियान्वयन के बाद हर जाति-धर्म के पिछड़ों-वंचितों की आवाज बन जाते, तो देश आज विपक्ष विहीन नहीं होता. नीतीश कुमार की लोकप्रियता का राज क्या है? वह समाज के हर तबके से जुड़ना चाहते हैं. वह विकास की बात कर रहे हैं. सर्वधर्म समभाव की बात कर रहे हैं. लालू प्रसाद के व्यक्ितत्व में मास अपील रहा है. यही लालूजी की पूंजी है. पर नीतीश कुमार की खासियत क्या है? वह अपने काम, सोच में माध्यम से बोलना चाहते हैं. विकास के नारे पर वह बिहार में दोबारा सत्ताढ़ हो गये,तो वह मौजूदा राजनीति का नया अध्याय लिखेंगे.बिहार के चुनावों में जाति, धर्म और मजहब के मुद्दे उठानेवालों के लिए एक संकेत है. 30 सितंबर को अयोध्या का फ़ैसला आया. जिस तरह पूरे मुल्क ने इसे सुना, संयम बरता और आत्म अनुशासन का परिचय दिया, वह बदलते मानस का संकेत है.
नये सोच और रुझानों के साथ. इसलिए 1992 या 1995 के या 2000 के मुद्दे अब बिहार की राजनीति में निर्णायक नहीं बननेवाले. यह नया मानस संकेत है कि बिहार के चुनावों के इश्यू भी नये होंगे. विकास से जुड़े, जीवन बदलने से ताल्लुक रखनेवाले. बिजली, सड़क, रोजगार, उद्योग, कृषि में सुधार से जुड़े सवाल. कानून-व्यवस्था की बेहतर स्थिति, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण जैसे मुद्द हर वर्ग, जाति या धर्म को प्रभावित करेंगे.दरअसल यह देश भयावह संकट से गुजर रहा है. केंद्र से लेकर राज्य तक की सरकारें एक कृत्रिम सपने में डूबी है कि भारत महाशक्ति बन रहा है. पर हालात क्या हैं? कुछ दिनों पहले एक रिपोर्ट पढ़ी, एक थिंक टैंक केसरोली ग्रुप द्वारा तैयार. इस समूह में अत्यंत पढ़े-लिखे और जानकार लोग थे, जो भारत के भविष्य पर अध्ययन करना चाहते थे. इसमें बिजनेस, फाइनांस, पॉलिटिक्स, पॉलिसी, मीडिया और एनजीओ से जुड़े लोग थे. सबकी उम्र 50 से कम. इन्होंने भारत के भविष्य पर अध्ययन-मनन किया. इनके तथ्य पढ़ कर आप भारत का भावी यथार्थ समझ पायेंगे. हर भारतीय के लिए जरूरी रपट. शासन-राजनीति के लिए आंख खोलनेवाली पथ-प्रदर्शक. पर कोई दल इसकी चर्चा नहीं करेगा.
जानबूझ कर. रिपोर्ट का नाम है, इंडियाज डेमोग्रेफिक सूनामी (भारत का जनांकिक सूनामी). रिपोर्ट के अनुसार आनेवाले वर्षो में भारत भयानक अंदनी मुसीबतों से गुजरनेवाला है. ये चुनौतियां ढंग से हल नहीं की गयीं, तो देश बिखराव के कगार पर होगा. पहली चुनौती है कि जनसंख्या बढ़ने की दर यही रही,तो आनेवाले वर्षो में हर साल चार से पांच करोड़ नौजवानों को रोजगार देना होगा. सिर्फ बिहार-झारखंड को ही लें, तो हर साल लाखों की संख्या में कॉलेजों से स्नातक निकल रहे हैं. पर कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है? 2020 में भारत की शहरी आबादी 23 फीसदी बढ़ जायेगी. शहरी आबादी की संख्या साढ़े अट्ठाइस करोड़ से बढ़ कर, 54 करोड़. इस बढ़ी आबादी के लिए शहरों को ढालना, इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना,क्या ऐसे सवाल राजनीतिक दलों के एजेंडे में हैं?
संसद में कभी उठते हैं? गांवों की आबादी भी 15-20 वर्षो में बढ़ कर 82 करोड़ के आसपास हो जायेगी. तब देश की कुल आबादी होगी लगभग 82+54=136 करोड़. गांवों का क्षेत्रफल उतना ही होगा, पर उसमें35 करोड़ की नयी आबादी जुड़ जायेगी. इतने लोगों को रोजगार दिलाने, इन्हें खिलाने का काम कौन करेगा? इस बढ़ी आबादी के क्या असर-प्रभाव होंगे? इनके खाने, रहने, नौकरी के क्या बंदोबस्त होंगे?समाज-देश पर इस बढ़ी आबादी के क्या सामाजिक दबाव होंगे?क्यों ये राजनीतिक दल या नेता,अयोध्या जैसे भावनात्मक मुद्दों को नहीं छोड़ते या छोड़ेंगे? क्योंकि तब बुनियादी सवाल (ग्राउंड रियलिटी) उठने लगेंगे. लोग नेताओं से और व्यवस्था से हिसाब लेने लगेंगे. पूछेंगे कि जब आबादी इतनी बढ़ रही है, तो उन्हें खिलाने का इंतजाम क्या होगा?
क्या ऐसी ही महंगाई बढ़ती रहेगी? 2020 में बढ़ी आबादी के अनुसार 46 करोड़ टन खाद्यान्न चाहिए. पर उत्पादन हो रहा है, 19-20 करोड़ टन. फ़िर अन्न कहां से आयेगा?इसी तरह के अन्य बुनियादी सवाल अपने अध्ययन-रपट में केसरोली समूह ने उठाये हैं. अन्य गंभीर चुनौतियां हैं, नक्सलियों की बढ़ती ताकत. दूसरा, ध्वस्त होता गवर्नेस. चीन की बढ़ती ताकत, पाकिस्तान और बांग्लादेश से मिल रही चुनौतियां, भारत के अंदर बढ़ती क्षेत्रीय विषमता. प्रदूषण का खतरा अलग. तेज औद्योगिकीकरण से इकालाजी संतुलन बिगड़ने के खतरे अलग. इन सबके साथ अबाधित और अनियंत्रित भ्रष्टाचार. राजनीति या राजनेता इसलिए भी भावनात्मक मुद्दों को नहीं छोड़ते, क्योंकि ये मुद्दे नहीं रहे, तो राजनेताओं को अपने कुकर्मो के जवाब देने पड़ेंगे.
मसलन अगर अयोध्या मुद्दा बहुत पहले सलट गया होता, तो आज सवाल उठता कि कॉमनवेल्थ गेम्स में कितने हजार करोड़ की लूट हुई है? देश की प्रतिष्ठा को दुनिया में किन लोगों ने खत्म किया. इस खेल धंधे के लुटेरे कौन हैं? यह अव्यवस्था देश की राजधानी में हो और कोई आवाज न उठे? यह देश की प्रतिष्ठा से जुड़ा मसला है. भारत के टेलीकॉम मंत्री ए राजा पर एक लाख करोड़ से अधिक के घोटाले का आरोप विपक्षी दलों ने लगाया. माकपा समेत अन्य ने उन पर सवाल उठाये. फ़िर संसद समेत सब मौन हैं. आइपीएल घोटाले में क्या हुआ?
आइपीएल घोटाले के सूत्र कहां तक पहुंचते हैं? खद्यानों की कीमत कैसे बेतहाशा बढ़ी? एक तरफ सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहे हैं और दूसरी ओर देश के गरीबों को अनाज नहीं मिल रहा है? क्या संसद ऐसे सवालों पर अब यथोचित बहस करती है? स्विस बैंक में जमा भारतीय धन का क्या हुआ? क्यों उस पर चौतरफा चुप्पी है? ऐसे अनेक बुनियादी सवाल उठेंगे, अगर देश की राजनीति में भावनात्मक मुद्दे नहीं होंगे. नेताओं और उनकी ऐफशिएंसी (क्षमता), इंटीग्रीटी (निष्ठा) और ऑनेस्टी (ईमानदारी) पर सवाल उठते. उनसे लोग उनके काम का हिसाब-किताब मांगते. पर उन्माद की राजनीति तो नशे की तरह है. उस नशे में जनता का ध्यान धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र के मुद्दों पर लगाओ और ऐसे सवाल न उठने दो. इसी पटरी पर चल रही है, भारत की मौजूदा राजनीति. भारत को सबसे बड़ा खतरा अंदनी भ्रष्टाचार से है. यह अनेक विशेषज्ञों और महारथियों ने लिख और कह कर बार-बार बता दिया है. पर भ्रष्टाचार के सवाल अब राजनीति में मुद्दे नहीं रह गये.
हाल में शांतिनिकेतन में राहुल गांधी ने कहा, भ्रष्टाचार सबसे बड़ा खतरा है. मुद्दा है. यही बात राजीव गांधी ने 1984 में कही थी, मुंबई कांग्रेस अधिवेशन में. दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे रह जाता है. नेहजी का सपना था कि आजाद भारत के लैंपपोस्ट (चौराहे) पर भ्रष्ट लोगों को फांसी पर लटकाना चाहिए. फिर ‘74 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार उन्मूलन की आंधी आयी. पहली बार देश में गैरकांग्रेसी सरकार बनी. फिर सिर्फ भ्रष्टाचार का सवाल उठा कर विश्वनाथ प्रताप सिंह 1990 में गद्दी पा गये. पर इन सारी चीजों के बावजूद भ्रष्टाचार और व्यापक होता गया.
अनियंत्रित और बेकाबू. अब जानेमाने विशेषज्ञ-संस्थाएं चेता रहे हैं, भारत को आज सबसे बड़ा खतरा भ्रष्टाचार से है.ताजा न्यूजवीक (27 सितंबर 2010) का अंक देखें, जो भारत पर केंद्रित है. इंडियाज फैटल फ्लो (भारत की आत्मघाती खामियां), इस शीर्षक के नीचे न्यूजवीक के कवर पर लिखा है, इमर्जिग थ्रेट्स टू द फास्टेस्ट ग्रोइंग इकॉनोमी ऑफ द कमिंग डिकेड (आनेवाले दशक की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में उत्पन्न होते खतरे). इस लेख में उल्लेख है कि भारत में नक्सलियों का खतरा बढ़ रहा है. गवर्नेस के खराब मापदंड हैं, क्लेप्टोक्रेसी की संस्कृति और राजधानी यानी दिल्ली में बनती भ्रमपूर्ण बिखराव की नीतियां. इस लेख में उल्लेख है कि 1950 में कैसे बर्मा और फिलीपींस को पूर्वी ऐशया का भावी टाइगर माना जाता था. पर आज वह सपना बिखर गया है. किस हाल में और कैसे है, आज ये देश?बताने की जरूरत नहीं. 60 के दशक में दहाई अंकों में अपने विकास दर के साथ ब्राजील दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के प में देखा जाता था. 1970 में सीआइए ने ह्वाइट हाउस को लिख कर रिपोर्ट दी कि स में बढ़ता निवेश, अगले दशक में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा.
पर आज ये देश कहां हैं? भारत के महाशक्ति बनने के बारे में भी खूब चर्चाएं हैं. पर भारत के अंदर जो बुनियादी कमियां और चुनौतियां हैं, उन पर शासकों का ध्यान नहीं. इस रपट के अनुसार भारत का क्रॉनिक केपिटलिज्म (धूर्त पूंजीवाद) सबसे बड़ी समस्या है. यह रपट भी मानती है कि भारत में चौतरफा फैला भ्रष्टाचार, बड़ा मुद्दा रहा है. पर अब हालात सिर से ऊपर जा रहा है. अगर आपका संबंध सत्ता शिखर से है, तो व्यवसाय के किसी मापदंड की जरत नहीं. आप रातोरात दुनिया के धनाढ्य व्यक्तियों में शामिल हो सकते हैं. इस पत्रिका में यह सवाल भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के आकार और वहां मौजूद बिलिनेयर्स (खरबपतियों) की संख्या में कोई तालमेल या अनुपात है? आज भारत में अमेरिका और स के बाद तीसरे नंबर पर सबसे अधिक बिलिनेयर्स (खरबपति) हैं. पर ये खरबपति किस तरह से बन रहे हैं?
माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर और रियल स्टेट में यह संख्या बढ़ी. इन क्षेत्रों में आपका संग-साथ सरकार के बड़े लोगों से हो तो, फिर खाकपति से खरबपति बनने में देर नहीं. कामनवेल्थ गेम्स देख लीजिए, हजार रुपये का ठेका 15-20 लाख में. जो काम देश में कम पैसे में संभव है, वह विदेशी कंपनियों को भारी रकम पर ठेके के रूप में दिये गये. जानकारों का कहना है कि विदेशी ठेके देने के पीछे कारण है, सीधे विदेशी बैंकों में कमीशन जमा करा लेना. इस तरह भारत में सरकार की नीति को तोड़-मरोड़ या अपने पक्ष में प्रभावित कर आप रातोरात बिलिनेयर्स क्लब में शामिल हो सकते हैं. इसके लिए चाहिए चालबाजी,तिकड़म, दलाली में कुशलता. पैसे देकर कुछ भी हासिल करने में पारंगतता. 80 के दशक में देश के एक बड़े उद्योगपति ने एक समाचारपत्र घराने के प्रमुख को एक जुमला कहा था, मेरे पास दो जूते हैं.
एक सोने का दूसरा चांदी का. जिसे जो जरत होती है, उसे वह उपलब्ध कराता हूं. इस तरह भारत में मैन्यूफैक्चरिंग या उत्पादन से पूंजी का निर्माण नहीं हो रहा. श्रम से पूंजी नहीं बन रही. लॉबिंग और दलाली से संपत्ति बनाने की होड़ है. पूरी दुनिया में कुछेक हाथों में इतनी संपदा नहीं, जितनी आज भारत के कुछेक घरानों में हो गयी है. सरकार की कृपा, सहयोग या राजघरानों की साङोदारी से. न्यूजवीक की रपट के अनुसार भारत के दस टॉप बिलिनेयर्स की संपदा भारत के जीडीपी में 12 फीसदी के बराबर है. जबकि चीन में महज एक फीसदी, ब्राजील में पांच फीसदी और स में नौ फीसदी. क्या कभी संसद में ये या ऐसे अन्य सवाल उठ रहे हैं? किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में ये प्रश्न हैं? एक अक्तूबर के अखबारों में खबर आयी है.
ताजा फ़ोर्ब्स पत्रिका के हवाले से. देश के 100 बड़े अरबपतियों की संपत्ति में 2010 में आठ फीसदी का इजाफा हुआ. एक वर्ष पहले इन 100 बड़े लोगों की कुल संपत्ति थी, 276 बिलियन डॉलर. जो 2010 में बढ़ कर 300 बिलियन डॉलर हो गयी है. एक बिलियन यानी 4500 करोड़ से पांच हजार करोड़ के बीच. इसी बीच देश के सबसे गरीब दस फीसदी लोगों की संपत्ति में क्या इजाफा हुआ है? यह खबर या सूचना किसी के पास है क्या? इन 100 धनाढ्य लोगों में से चार टॉप लोगों के पास 86 बिलियन डॉलर की संपत्ति है. इनमें से दो अमीरों का कारोबार रियल स्टेट का है.
रियल स्टेट (जमीन, घर, निर्माण वगैरह) की समृद्धि में सरकारी कृपा सबसे बड़ा कारक है.बहरहाल अमीर बनना, लग्जरी भोग में जीना आज का मानस है, पर दुनिया में सबसे अधिक विषमता भारत में फ़ैले और बढ़े, और संसद चुप रहे, राजनीतिक दल सवाल न उठाएं, चुनाव या राजनीति पैसेवालों का खेल बनता जाये, और विपक्ष भी सांसदों के वेतन भत्ते, सुविधाएं बढ़ाने पर एकजुट हो, तो आप इस राजनीति को क्या कहेंगे?एक लोहिया, एक मधु लिमये, एक जार्ज जैसों की भूमिका लोकसभा में क्या रही? अगस्त 1963 में लोहिया ने लोकसभा सदस्य के रूप में शपथ ली. इसके बाद देश ने एक नयी भाषा व आवाज सुनी. उन्होंने तब सवाल पूछा था, 27 करोड़ हिंदुस्तानियों के लिए रोज तीन आने की आमदनी और ऊपर आसीन लोगों की आमद ?
यह सवाल देश में गूंजा. राजनीति में इश्यू बना. आज विपक्ष बहुत ताकतवर है, पर भारत की आवाज अब संसद में नहीं गूंजती ? क्यों?क्योंकि राजनीति जब भावना और उन्माद से चलेगी, तब ये सवाल नहीं उठेंगे. क्योंकि ये सवाल उठे तो हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, क्षेत्र और जाति के बंधन तोड़ कर लोग उठ खड़े होंगे. अपने नेताओं के खिलाफ, राजनीतिक दलों के खिलाफ, अपनी व्यवस्था के खिलाफ. भला कौन चाहेगा ऐसी परिस्थितियों में अयोध्या जैसे मुद्दों से छुटकारा? न्यूजवीक का ही ताजा अंक (चार अक्तूबर) हाथ में है. इस अंक की आमुख कथा चीन पर है. पिछले अंक की आमुख कथा भारत पर थी.
इस अंक के कवर पर लिखा है - चायनाज नेक्स्ट बूम टाउन (चीन का दूसरा गूंजता शहर), इसके नीचे लिखा है, बीजिंग एम्स टू बिल्ड ए न्यू शेंङोन इन रिमोट कसगार (नितांत दूरस्थ इलाके में एक नया शेंङोन बनाने की बीजिंग की कोशिश).यह पढ़ते हुए 2004 में शेंङोन की यात्रा याद आयी. हाल ही में चीन ने शेंङोन के 30 वर्ष होने का गौरव मनाया. पूरी दुनिया के मशहूर पत्र-पत्रिकाओं में विस्तार से चीन के इस प्रयोग की चर्चा हुई. देंग शियाओ पिंग ने शेंङोन से ही चीन की नयी अर्थव्यवस्था के प्रयोग की शुआत की थी. 30 वर्षो पहले का यह शहर देख कर 2004 में सिहर गया. वहां जाकर पता चला 1978 में यह मछुआरों का गांव था.
मछुआरों के गांव को 14 वर्षो में ही चीन ने दुनिया के सबसे ताकतवर और सुंदर औद्योगिक शहर में बदल दिया. वह संकल्प, काम करने की कला और असंभव को संभव बनाने के चीनी मानस को देख कर,शेंङोन की धरती पर ही नेपोलियन का कथन याद आया था, इस सोये देश को मत छेड़ो, जगा तो दुनिया को अपने आगोश में लेगाङ्ग उसी चीन ने 2009 के उत्तरार्ध में तय किया एक नया शेंङोन बसाने का,कसगार में. यह भी वैसा ही उजाड़, जंगल और रेतों से घिरा स्थल है. यह चीन के पश्चिमी छोर पर है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पड़ोस में. बीजिंग से छह घंटे की हवाई यात्रा है.
याद कीजिए 2009 में इसी इलाके में चीन में उपद्रव हुआ. दंगे, मुसलिम उइगार समुदाय और चीन के मूल वाशिंदों के बीच. ये लोग महसूस करते हैं कि ये चीन के सबसे उपेक्षित और गरीब लोग हैं. उस रेगिस्तान में बसे उजाड़ कसगार को अमेरिका के लॉस एंजिलिस से बढ़िया शहर बसाने का निर्णय लिया है चीन ने. 2009 में ही कंस्ट्रक्शन उद्योग में 7.4 बिलियन डॉलर पूंजी लगायी. उस उजाड़ जगह में 25मिलियन डॉलर लगा कर हवाईअड्डा बनाया. स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद. अगले पांच वर्षो में1.4 बिलियन डालर पूंजी वहां निवेश होगी.
यह स्पेशल इकॉनोमिक जोन के तहत होगा. कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय सचिव का कहना है कि कसगार विश्वस्तर का अंतरराष्ट्रीय शहर होगा. इसकी कोशिश होगी कि यह पश्चिमी ऐशया के आसपास के देशों का ओर्थक हब बने, ताकि स्थानीय लोग समृद्ध हों. इतना ही नहीं,, चीन कसगार से होकर पाकिस्तान के ग्वाडार बंदरगाह तक रेल पटरी बिछा रहा है. साथ में समानांतर तेल ढोने की पाइपलाइन. चीन और भारत इसे आयरन सिल्क रोड के प में याद करते हैं.
अतीत में इसी रास्ते ऐशया से सारा कारोबार होता था. इस योजना में भारतीय सीमा क्षेत्र के पास चीन मिल्रिटी इंफ्रास्ट्रक्चर भी बना रहा है. भारत को पश्चिम से घेरने के लिए. इस तरह चीन, भारत को उत्तर,पूरब, दक्षिण और पश्चिम से घेर चुका है.एक तरफ यह दृश्य है, चीन का, जो रेगिस्तान में नखलिस्तान बना रहा है. अपने कर्म, संकल्प और प्रतिबद्धता के कारण. दूसरी ओर हम हैं, जो अतीत के भूत बने भावनात्मक मुद्दों से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं |
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