मीडिया दरअसल अब अपराध का एक औजार बन गया है
कल बीजेपी के गुंडों ने अरुंधती के घर पर हमला किया। उस वक्त मीडिया के कैमरे हमले को लाइव कवर करने के लिए पहले से तैनात थे। आज द हिंदू में अरुंधती ने इस हादसे के बारे में रिपोर्ट की है। वह रिपोर्ट हम हिंदी में आपलोगों को पढ़ा रहे हैं। उनकी रिपोर्टिंग की भाषाई सरहद को मिटाने का काम किया है युवा मीडिया विश्लेषकविनीत कुमार ने। उनका शुक्रिया :
A flower pot lies broken at the residence of writer Arundhati Roy at Kautilya Marg in New Delhi on Sunday, after a protest by BJP Mahila Morcha activists. Photo: RV Moorthy
31अक्टूबर की सुबह 11 बजे करीब सौ लोगों की उत्पाती भीड़ मेरे घर पहुंची। दरवाजे को तोड़ते हुए अंदर पहुंची और जमकर तोड़-फोड़ मचाया। सामने जो चीजें पड़ी मिलीं, उसे तहस-नहस किया। कश्मीर मामले पर मैंने जो अपने बयान दिये हैं, उसके विरोध में वो जमकर नारे लगा रहे थे और हमें सबक सिखाने की बात कह रहे थे। टाइम्स नाउ, एनडीटीवी और हिंदी न्यूज चैनल न्यूज 24 के ओबी वैन इस उत्पात को लाइव कवर करने के लिए पहले से ही तैनात नजर आये। टीवी में जो रिपोर्ट आये, उनके मुताबिक इसमें बड़ी संख्या में बीजेपी की महिला मोर्चा के लोग शामिल थे। जब वो लोग चले गये, तो पुलिसवालों ने हमें सलाह दी कि आगे से जब भी हमें चैनलों के ओबी वैन आसपास दिखाई दें, तो इसकी जानकारी हमें दें। ऐसा इसलिए क्योंकि ओबी वैन इस बात का संकेत देते हैं कि अगर वो हैं तो उसके पीछ जरूर रास्ते में भीड़ (उत्पात मचानेवाली) होगी। इसी साल के जून महीने में पीटीआई की एक झूठी खबर (जिसे कि तमाम अखबारों ने छापा) के बाद मोटरसाइकिल पर सवार दो लोगों ने मेरे घर की खिड़कियों पर पत्थरबाजी करने की कोशिश की। तब भी टेलीविजन के कैमरामैन साथ थे।
इस तरह का हंगामा मचानेवाली उत्पाती भीड़, तमाशा पैदा करनेवाले इन लोगों और इस तरह के मीडिया के बीच का जो सांठ-गांठ है, आखिर उसका चरित्र कैसा है? इस तरह के तमाशे के बीच मीडिया अपनी भूमिका जिस तरह से एडवांस के तौर पर निर्धारित करता है, क्या वो इस बात की गारंटी दे सकता है कि जो भी विरोध प्रदर्शन और हमले होंगे, वो अहिंसक होंगे? अगर इस तरह से आपराधिक सक्रियता बनती है, हंगामे किये जाते हैं जैसा कि आज हुआ, इससे भी बदतर हो सकते हैं – तो क्या हम मानकर चलें कि मीडिया दरअसल अब अपराध का ही एक औजार बन गया है। ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ टीवी चैनल और अखबार बड़ी ही बेशर्मी और ढिठाई से लोगों को मेरे खिलाफ उकसाने में सक्रिय हैं। खबरों में सनसनी पैदा करने की उनकी आपसी छटपटाहट और अंधी दौड़ ने खबर देने और खबर पैदा करने के बीच के फर्क को ब्लर कर दिया है, खत्म कर दिया है। इनके लिए फिर क्या फर्क पड़ता है, अगर इस टीआरपी की बेदी पर कुछ लोगों की बलि चढ़ जाती है?
सरकार की तरफ से जब इस बात के संकेत मिले कि कश्मीर मसले पर मैंने और दूसरे वक्ताओं ने कश्मीर के लिए आजादी विषयक सेमिनार में जो कुछ भी कहा, अपने वक्तव्य दिये, उसके आधार पर हमारे ऊपर राजद्रोह का मामला नहीं बनने जा रहा है, तब मुझे मेरी अपनी अभिव्यक्ति के लिए दंडित किये जाने का जिम्मा दक्षिणपंथी हंगामा माचनेवाले अगुआइयों ने अपने ऊपर ले लिया। बजरंग दल और आरएसएस के लोगों ने खुलेआम एलान किया है कि वो मुझे निबटाने (to fix me) जा रहे हैं। इस निबटा देने में देशभर में मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने से लेकर बाकी तमाम बातें भी शामिल हैं। पूरे देश ने देखा है कि वो क्या कर सकते हैं और कहां तक जा सकते हैं? इसलिए अब जब सरकार कुछ हद तक मैच्योरिटी दिखा रही है, ऐसे में क्या मीडिया और लोकतंत्र की मशीनरी ऐसे लोगों के हाथों भाड़े का टट्टू बनने जा रही है, जो कि उपद्रवी भीड़ के न्याय में यकीन रखते हैं। मैं समझ सकती हूं कि बीजेपी की महिला मोर्चा मुझ पर हमला करके इसका इस्तेमाल लोगों का ध्यान आरएसएस के वरिष्ठ कार्यकर्ता इन्द्रेश कुमार की तरफ से हटाने के लिए कर रही है, जिनका नाम अजमेरशरीफ में हुए बम ब्लास्ट, जिसमें कि कई लोगों की जानें गयीं और जख्मी हुए, में सीबीआई की चार्टशीट में शामिल है। लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया का ये गुट ठीक यही काम क्यों कर रहा है? क्या इस देश में एक लेखक का औरों से अलग विचार, बम ब्लास्ट के आरोप में फंसे व्यक्ति से ज्यादा खतरनाक है? या फिर विचारधारा के स्तर पर इन सबका एक ही कतार में खड़े हो जाना है।
(अरुंधती रॉय। अभिनेत्री। लेखिका। नॉवेल द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स को 1997 में बुकर सम्मान। मैसी साहब और ऐनी फिल्म में मुख्य अभिनेत्री। द एलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस निबंध संग्रह ख़ासी चर्चा में रहा, जिसमें समय-समय पर लिखे गये आलेख संकलित हैं। विभिन्न जनांदोलनों में भागीदारी।)
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