सुरक्षा+विकास+सपना = बिहार की लहर

फ़रवरी, 2010 के आरंभिक दिन. होली के ठीक पहले. नीतीश कुमार सारण और सीवान की यात्रा पर गये थे. उनके साथ जाना हुआ. पहली बार बिहार के किसी मुख्यमंत्री के साथ यह यात्रा थी. बिहार के मुख्यमंत्री के सरकारी उड़ान की जगह भी पहली बार देखी. लगभग ढाई दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ रहना हुआ. उनके कार्यक्रमों और जनता दरबार का पहला प्रत्यक्ष अनुभव. दरस-परस.लौटने पर अग्रज डॉ शैबाल गुप्ता (सचिवआद्री) ने पूछा ड्ढ कैसा लगाक्या राजनीतिक स्थिति हैउत्तर अनुभव पर आधारित था. एक पंक्ति में कहा - दो तिहाई समर्थन. तब पृष्ठभूमि यह थी कि उस अंचल के महत्वपूर्ण नेता प्रभुनाथ सिंह नीतीश कुमार का साथ छोड़ गये थे. डॉ शैबाल गुप्ता ने पूछा- प्रभुनाथ सिंह के छोड़ने के बाद यह अनुमानजवाब था- हां. 
आज (24 नवंबर, 2010) बिहार के चुनाव परिणाम उसी प्रत्याशा के अनुप हैं. 1977 से भी ऐतिहासिक. 1985 से भी उल्लेखनीय.1995 के लालू प्रसाद की ऐतिहासिक जीत से भी बहुत आगे. यह अभूतपूर्व जीत अचानक नहीं हुई. छपरा-सीवान की उस यात्रा में दो संकेत साफ़ दिखाई दिये.एकमा में अचानक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अगली सुबह पूर्व सांसद-केंद्रीय मंत्री राम बहादुर सिंह के घर जाने का प्रोग्राम बनाया. देर रात में. वह तड़के चुपचाप जाना चाहते थे. सुबह जाने में उनके साथ था. उस गांव में जाने का यह प्रोग्राम अचानक बना. पर पुरुषों से अधिक महिलाओं की भीड़ उमड़ी थी. किसी समाजशास्त्री या भविष्य की आहट पानेवालों के लिए यह गहरा और गंभीर संकेत था. आगत भविष्य का.उसी यात्रा की दूसरी घटना.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बसाव गांव गये थे. अपने एक मित्र अजय कुमार जी के घर. अजय जी का परिवार बाहर रहता है. उस गांव भी अचानक ही यात्रा हुई. उस अत्यंत पिछड़े गांव में औरतों की उमड़ी भीड़ भविष्य के हालात समझने के लिए दूसरा बड़ा संकेत थी. आसपास के गांवों से नीतीश कुमार के आने की चर्चा सुन कर बड़ी संख्या में अत्यंत पिछड़े और दलित उमड़े थे. तुरही लेकर. यह न प्रायोजित भीड़ थी
न ढोकर लायी. उस भीड़ के चेहरे उम्मीद को ले बहुत कुछ कहते थे. उन आंखों में सपने झलकते दिखाई पड़े थे.इन दो जगहों के अलावा एकमा में आयोजित मुख्यमंत्री दरबार में सुबह से ही जिस तरह से लोग उमड़े वह देखना एक अनुभव था. आठ घंटे तक लगातार मुख्यमंत्री का गांव की भीड़ के बीच होना,सुव्यवस्थित ढंग से उनकी बातें सुननायह वैशाली के गणतंत्र की धरती में एक नया प्रयोग था.

अंगरेजी मुहावरे - पावर टू द पीपुल का व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन.  इसी यात्रा में मुख्यमंत्री चिरांद गांव गये. ढाई हजार वर्ष पहले के संपन्न ऐतिहासिक विरासत देखने. पूरी यात्रा में वह बिहार के शानदार अतीत का उल्लेख भी करते रहे. इस तरह इस यात्रा से जो समीकरण समझ में आया
वह बड़ा साफ़ था. स्त्री शक्ति का उदय + जनता दरबार में अति पिछड़ों और गरीबों की उपस्थिति+ गवर्नेस यानी कानून-व्यवस्था के राज की लगातार मजबूत होती स्थिति (यानी सुरक्षा) + विकास के सपने (लड़कियों के स्कूल जाने से लेकर पंचायतों के काम) + हर सभा में चिरांद या वैशाली या नालंदा की स्मृति के बहाने बिहार के गौरव का स्मरण और स्वर्णिम भविष्य बनाने का संकल्प= नीतीश कुमार की आंधी या यह जीत.नीतीश कुमार ने लगातार यात्राएं कीं. सीधे जनता से संवाद. न्याय यात्रा (2005), विश्वास यात्रा,जनादेश यात्रा (2009), धन्यवाद यात्रा (2009), फ़िर प्रवास यात्रा (2009). इसके बाद विकास यात्रा. इन यात्राओं को देख करश्रीमती गांधी का स्मरण आया. 1970 में कांग्रेस विभाजन के बाद उन्होंने एक अमेरिकी मित्र को पत्र लिखा. अपना अनुभव. कहामैंने 36हजार मील यात्रा की है. 200 सभाएं कीं. दो करोड़ लोगों के बीच अपनी बात ले गये. फ़िर लिखा - इट इज वंडरफ़ुल टू सी द लाइट इन देयर (पीपुल्स) आइज (लोगों की आंखों में रोशनी देखनाएक अद्भुत अनुभव है).       
नीतीश कुमार की इस यात्रा में यही चमक लोगों की आंखों में दिखी. वह सपाट बोलते हैं. भावना से नहीं खेलते. इससे जो संवाद बनता है
वह विश्वास का है. और विश्वास का यही संबंध और संवाद उन्होंने सीधे जनता से बना लिया था.        
और यह आहट या समीकरण बिहार आये हर समझदार पत्रकार ने समझा और लिखा. राजदीप सरदेसाई ने लिखा - यह कोई मामूली हवा नहीं हैजो 2010 के बिहार में बह रही है. यह अंधड़ है. तूफ़ान है. यह राज्य के राजनीतिक समाजशास्त्र का पुनर्लेखन करेगा. इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता ने लिखा ड्ढ बिहार का यह चुनाव हाल की स्मृति में बिल्कुल अलग है. शायद राजीव गांधी की 1984 की लैंडस्लाइड विक्टरी (ऐतिहासिक जीत) के सिवा कोई दूसरा उदाहरण नहीं. इसी तरह स्तंभकार स्वामीनाथन अकंलेश्वरैया अय्यर ने लिखा- नीतीश के बिहार में लाखों- लाख गदर या क्रांति. उनकी यह अवधारणा वीएस नॉयपाल की पुस्तक इंडिया  ए मिलियन म्यूटिनीज नाउ पर आधारित है.

इसी तरह द टेलीग्राफ़ के देवाशीष भट्टाचार्य ने लिखा ड्ढ नीतीश  बिहार्स  ग्रेट होप. ये सारी चीजें चुनाव परिणाम आने के चार-पांच दिन पहले लिखी गयीं. लगभग महीने भर पहले दुनिया स्तर पर विख्यात समाजशास्त्री और राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव ने बिहार की सघन यात्रा की. लगभग महीने भर पूर्व उन्होंने प्रभात खबर में चार रपटें लिखीं. उन रपटों के संकेत और संदेश बिल्कुल साफ़ थे. बिहार इतिहास रचने के कगार पर है. चुनाव के ठीक एक सप्ताह पहले आइबीएन-सीएनएन चैनल पर उनकी सर्वे रिपोर्ट भी आयी
जो सबसे सटीक और सही निकली.        
ये सारे संकेत साफ़ थे कि बिहार किस रास्ते है. पर लालू प्रसाद नहीं समझ पाये. इसके लिए वह बार-बार मीडिया को गाली दे रहे थे. रिजल्ट आने के दो दिनों पहले उन्होंने खास तौर से मीडिया को और अखबारों को निशाना बनायाचार लोगों को कोसा. लगभग पिछले 10 महीने से कुछेक पत्रकारों के खिलाफ़ वह निंदा अभियान चला रहे थे. वह भूल गये कि मीडिया न किसी को जिता सकती हैन हरा सकती है. अगर मीडिया के अंदर यह ताकत ड्ढ कूबत होतीतो 1995 में लालू प्रसाद जी चुनाव नहीं जीतते. क्योंकि वह खुद ही कहते हैं कि पूरी मीडिया उनके खिलाफ़ थी. इसी तरह 2004 में एनडीए की सरकार बननी चाहिए थी. क्योंकि मीडिया में तब उनकी हवा थी.1977 में जनता पार्टी की जीत नहीं होनी चाहिए थीक्योंकि पूरी मीडिया इंदिरा जी के खेमे में थी. अपवाद छोड़ कर.        
मीडिया की एक बड़ी भूमिका है कि वह समय के संकेत को पहचाने. बिहार में नीतीश कुमार ने पॉलिटिक्स के ग्राउंड रूल्स (राजनीति के जमीनी सूत्र) बदल दिये थे. अपने काम से. अपनी दृष्टि से. अपनी क्षमता से. और अपनी प्रतिबद्धता से. मीडिया के लोगों ने यह पहचान कर लिखा. लालू प्रसाद दावा तो ग्रासरूट लीडर होने का करते रहेपर जनता  की नब्ज से उनका हाथ हट गया था. मीडिया को गाली देने के बजाय वह मीडिया में आ रहे संकेतों को समझतेतो शायद उनकी यह गत न होतीन उन्हें शिव सेना की भूमिका का स्मरण करा करमीडिया के लोगों को अप्रत्यक्ष धमकी देने की जरूरत पड़ती.       
लालू प्रसाद भूल गये कि द इकोनॉमिस्ट
द न्यूजवीकफ़ोर्ब्सन्यूयॉर्क टाइम्स जैसे दुनिया स्तर पर स्थापित और मानिंद पत्र-पत्रिकाओं को कोई मैनेज नहीं कर सकता. वहां विशुद्ध काम और उपलब्धि के आधार पर ही आकलन होता है. बिहार में बह रही परिवर्तन की यह बयार दुनिया में पहुंच रही थी,  सिवा बिहार के नीतीश विरोधी नेताओं के घर के. जाने-माने राजनीतिक विेषक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने वर्षो पहले लिखा ड्ढ नीतीश कुमार भारत के ओबामा हैं. रामचंद्र गुहा का नीतीश कुमार से कोई संपर्क नहीं है. पर बदलते इतिहास की पदचाप को उन्होंने रेखांकित कर दिया था. बिहार ने फ़िर इतिहास लिखा है. पुरुषों से लगभग 10 फ़ीसदी अधिक महिलाओं ने इस बार वोट दिये हैं. इसके पहले आंध्र और अन्य  राज्यों में ही ऐसा हुआ है.        
दरअसलनीतीश कुमार ने बिहार के राजनीतिक खेल के नियम पलट दिये हैं. उनका सबसे बड़ा और ऐतिहासिक काम है अपराध और अराजकता के बीच कानून का राज कायम करना. पूरे देश में लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दृष्टि से यह कारगर प्रयोग है. स्पीडी ट्रायल कोर्ट बनाना और अपराधियों को सजा दिलवाना. यह कोई मामूली काम नहीं था. परदे के पीछे से अपराधी सत्ता नियंत्रित करते थे. इससे लोक आक्रोश बन रहा था. इस लोक आक्रोश को नीतीश ने पहचाना. पहल की. और आज उसका परिणाम सामने है.       
दूसरा बड़ा काम भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सक्रियता का है. यह सही है कि निगरानी की सतर्कता के बाद भी भ्रष्टाचार के मामले बढ़े हैं. पर नीतीश सरकार ने कानून बनाया है भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए. यह अपने ढंग का देश में पहला प्रयोग है. लोकतंत्र को दूसरा बड़ा खतरा भ्रष्टाचार से है
यह देश देख रहा है. पर पहल बिहार ने की है. कांग्रेस ने इस कानून को दिल्ली में तीन वषरें तक लटकाया. मंजूरी न देकर. हाल ही में यह केंद्र से स्वीकृत होकर लौटा है. बिहार सरकार इसे कानून का रूप दे रही है. इस बीच चुनाव आ गये. नीतीश कुमार हर चुनावी सभा में कहते घूमे - अबकी बारी भ्रष्टाचारी. इस काम में अगर वह कारगर हो गयेतो नीतीश कुमार देश के फ़लक पर एक नयी इबारत लिखेंगे. जिस बिहार से 1974 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पनपाउस बिहार का यह नया प्रयोग देश का भविष्य तय और प्रभावित करेगा.        
दरअसलबिहार में दो संस्कृतियों के बीच चुनाव था. एक तरफ़ थे नीतीश कुमारजिनके परिवार का कोई बेटा-बेटीस्वजन या ससुराल पक्ष का कोई व्यक्ति उनका दल नहीं चला रहा था. उनकी व्यक्तिगत इंटिग्रिटी (निष्ठा)ईमानदारी पर कोई उंगली नहीं उठ सकी. वह बड़बोले नहीं हैं. धमकी भरे लफ्जों में बाते नहीं करते. मर्यादित आचरण और संयमित व्यवहार. एक तरफ़ यह धारा थी. दूसरी तरफ़ जो धारा थीवह आक्रामकता की थीपरिवारवाद की थी. ससुरालवाद की थी. पत्नी और बेटे की थी. भाई और समधीवाद की थी. इन दो धाराओं के बीच चयन होना था. परिणाम सामने है. राबड़ी देवी का दोनों जगहों से हारना और क्या संकेत देता है?        
बिहार के चुनावदेश की राजनीति में परिवर्तन के नया पड़ाव का संकेत है. 1971-72 में गरीबी हटाओ मुद्दा बना. 1974 में शुरू भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन ने नया मुद्दा दिया- लोकतंत्र बचाओ. 1980 में राजनीतिक स्थिरता के सवाल पर इंदिरा जी लौटीं. 1984 में भावात्मक चुनाव हुआ. इंदिरा जी के न रहने पर. 1989 में भ्रष्टाचार मुद्दा बना. फ़िर मंडल और कमंडल मुद्दा बने. अब राजनीतिविकास के सवाल पर तय होगी,यह बिहार ने और नीतीश कुमार की जीत ने साबित कर दिया. नीतीश कुमार की इस जीत से कांग्रेस में खलबलाहट होगी. केंद्रीय स्तर पर. आज (24-11-10)ही आंध्र में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बदलने की पहल कर दी.

वह भ्रष्टाचार को मुद्दा मानते हुए दिखाई दे रही है. नीतीश कुमार को सबसे पहले बधाई देनेवालों में सोनिया गांधी थीं. वहीं उन्होंने कहा - भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कैसे नटवर सिंह या विलासराव देशमुख के खिलाफ़ कांग्रेस कार्रवाई करती है
पर भाजपा की दोहरी संस्कृति है. उनका आशय कर्नाटक में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे येदियुरप्पा को न हटाये जाने के भाजपा के निर्णय से था. पर उससे भी अधिक नीतीश कुमार की जीत ने एक साफ़ संकेत दिया है. साफ़-सुथरी छविाले ईमानदार नेता और काम करने वाले नेता ही अब भविष्य के नये खिलाड़ी होंगे.

बिहार के चुनाव का यह भी संकेत है. कांग्रेस ने इस संकेत से तुरंत सबक लेने की कोशिश की है. माना जाता था कि इलेक्शन मैनेज करके जीता जाता है. विकास से वोट नहीं मिलते. भारी पूंजी चाहिए चुनाव जीतने के लिए. पर बिहार के चुनाव ने साफ़ कर दिया. साफ़-सुथरी छवि से भी चुनाव जीता जा सकता है. काम- परफ़ॉरमेंस से नया इतिहास लिखा जा सकता है.       
बिहार में यह धारणा थी कि विकास से वोट नहीं मिलते. नीतीश कुमार के इन चुनावों में कहा जाता था ड्ढ चंद्रबाबू नायडू का क्या हश्र हुआ
दिग्विजय सिंह (मध्य प्रदेश) क्यों हार गयेराजस्थान में गहलोत जी क्यों पिछली दफ़ा भाजपा से हार गये?कहा जाता था कि इन सबने अच्छा काम किया,पर क्या हश्र हुआनीतीश कुमार की चंद्रबाबू नायडू से तुलना करनेवाले नीतीश कुमार को समग्रता में नहीं समझते. फ़िर भी नीतीश कुमार की इस जीत ने पुख्ता कर दिया है कि अब वोट काम पर ही मिलेंगे. नीतीश कुमार ने ठीक कहा ड्ढ राजनीति में अच्छे कामों का पुरस्कार है यह जीत.        
यह सही है कि जाति आसानी से नहीं टूटने या खत्म होनेवालीपर वह कमजोर हुई है, इसका प्रमाण भी है यह चुनाव. जब-जब बड़े मुद्दों को चुनने का मौका आयाबिहार की जनता ने जाति से ऊपर उठ कर बड़े मुद्दों को चुना. 1977 में लोकतंत्र और तानाशाही के बीच चुनाव होना था.1984 में इंदिरा जी के न रहने पर एक दूसरे माहौल में चुनाव हुआ.1989 में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चुनाव का मुद्दा था. 1991 में मंडल का सवाल था. 1995 में भी जमात का सवाल था. ऐसे क्षणों में लोगों ने संकीर्ण घेरे तोड़े. पर विकास के सवाल पर ऐतिहासिक ढंग से 2010 के विधानसभा चुनाव में अपना जातिगत बंधन लोगों ने पीछे रखा,बिहार का भविष्य पहले रखा.

हर जाति व धर्म के लोगों का यह प्रबल समर्थन न होता
तो नीतीश कुमार को यह ऐतिहासिक जीत कतई नहीं मिलती. खासतौर से लालू जी का माइ समीकरण भहराया नहीं होतातो नीतीश कुमार को यह जीत नहीं मिलती. इतिहास गवाह है कि हर जाति और धर्म में पैठ और जगह बना लेनेवाले लोग ही ऐतिहासिक नेता होते हैं. नीतीश कुमार ने अगड़ों से लेकर पिछड़ों तक को एक मंच पर खड़ा कर दिया है. इस सामाजिक समीकरण के गठन,फ़िर भविष्य के लिए बेहतर सपनों की बातही महत्वपूर्ण कारण हैंलालू प्रसाद के शब्दों में- इस रहस्यपूर्ण जीत के. लालू प्रसाद का पूरा गणित एम -वाइ के इर्द-गिर्द घूम रहा था. जैसे सूरज की रोशनी या हवा सबको एक बराबर चाहिएउसी तरह सुरक्षा  बुनियादी जरूरत है इनसान की. सुरक्षा के धरातल पर खड़े होकर वह विकास और प्रगति के सपने देखता है. नीतीश कुमार ने यह सपना जगाया.

एक राजनीतिक समीक्षक की टिप्पणी थी - मंडल और मार्केट को नीतीश कुमार ने जोड़ा है. मार्केट से उनका आशय विकास और प्रगति की उस बयार से है
जो देश के दूसरे राज्यों में बह रही है. बिहारियों के खिलाफ़ देश के दूसरे हिस्से में जो भेदभाव हुआउसने बिहारी उपराष्ट्रीयता को भी ऊर्जा दी है. इन चीजों ने सारे बिहारियों को एक सपने में बांधा. नीतीश कुमार ने उस सपने को स्वर दिया. उसी दिशा में ठोस काम कियाएक साइलेंट वर्कर की तरह. बिना ढिंढोरा पीटे. यही राज है 1977, 1985 और 1995 से भी बढ़ कर रिकॉर्ड दर्ज करानेवाली जीत का.        
नीतीश कुमार वनमैन आर्मी रहे. बीजेपी के साथ अनेक संगठन हैं. दल का भी संगठन है. उस रूप में जेडीयू लुंजपुंज संगठन है. यह समाजवादियों की विरासत है. वे संगठन बनाने और चलाने में बहुत कारगर नहीं रहे. बीजेपी के पास नेताओं की लंबी फ़ौज थी. उधर लालू जीरामविलास जी के पास भी नेता थे. अब्दुल बारी सिद्दीकीरामचंद्र पूर्वेजगतानंद सिंह,रघुवंश सिंह वगैरह. इसके मुकाबले नीतीश कुमार के पास कमजोर टीम थी. नीतीश कुमार के कुछ खास लोगों ने अंत समय में उन्हें छोड़ कर उन्हें हराने में सारी ऊर्जा लगा दी थी. फ़िर भी नीतीश कुमार को यह अविश्वसनीय कामयाबी मिली. एक बेहतर राजनीति के कारण.अब आगे क्यानीतीश कुमार ने खुद अपने लिए अपनी चुनौती तय कर दी है. विपक्ष साफ़ है. पर भ्रष्टाचार नियंत्रण से लेकर विकास के जो सपने नीतीश कुमार ने दिखाये हैंउन्हें धरती पर उतारना बड़ी चुनौती है. 1980 से हिंदी राज्य बीमारू माने जाते थे. अर्थशास्त्रियों के अनुसार. उस बीमारू राज्य में विकास का सपना पैदा कर नीतीश कुमार ने माहौल तो बना दिया हैउस माहौल को साकार कर वह इतिहास पुरुष बन सकते हैं. उनकी जीत ने देश के स्तर पर गैर कांग्रेसवाद को एक नयी ऊर्जा दी है. बिहार मॉडल या नीतीश मॉडल की राह दिखा कर.



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