मैं नसीमा बिहार की नहीं, रेड लाइट एरिया की बेटी हूं!

♦ निराला
रात के बारह-एक बजे अचानक से दरवाजा खटखटाने की आवाज आती। अब्बा तीसी तेल लगे तीन तहों वाले दरवाजे के छेद से ताक-झांककर देखते? हड़बड़ाकर आते, तुरंत नींद से जगाकर मुझे बिठा देते। कंपकंपा देनेवाली ठंड में मैं अधनींदे बैठकर जोर-जोर से अली, बे, से… का रट लगाने लगती। फिर कभी ऐसा भी होता कि दरवाजे पर दस्‍तक पड़ी नहीं कि अम्मी, झट मुझे टांगकर छत पर ले जाती और हड्डी बेधनेवाली जानलेवा ठंड की रात में भी बाउंड्री वॉल पर बिठा देती ताकि जरूरत पड़े तो तुरंत मुझे धक्का देकर नीचे दूसरे छत पर धकेल दे। आपको मालूम, अब्बा-अम्मी यह दोनों तरीके किनसे बचने-बचाने के लिए अपनाते थे? पुलिसवालों से। पुलिस कभी भी मेरे मोहल्ले में, किसी के घर में, किसी भी समय घुस जाती थी। अपने इस पारंपरिक और सुविधाजनक फॉर्मूले के साथ कि रेड लाइट एरिया में जो भी रहता है, वह बच्चा- बच्ची , बेटा-बेटी, बहू … कोई भी हो, सब या तो धंधेवालियां होती हैं या दलाल-भंडु़वा। तो रेड लाइट एरिया में रेड करने का एक बड़ा मतलब-मकसद यह भी होता था कि रेड के बहाने, मुंह काला कर लें।
ह वाकया सुनाते-सुनाते आंसुओं की मिलावट के साथ ठठाकर हंसने की कोशिश करती हैं नसीमा। बचपने से निकलकर किशोरावस्था में जब कदम रख रही थी, तब की बात बता रही होती हैं। फिर अपने को संभालने की कोशिश करते हुए कहती हैं, लेकिन अब नहीं डरती नसीमा। न रेड लाइट एरिया में रहने से, न इस बदनाम गली की बिटिया कहने-कहलाने से। बल्कि डंके की चोट पर, एलानिया कहती है सबसे कि मैं नसीमा, रेड लाइट इलाके की बेटी हूं।
नसीमा से मिलने हम मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में पहुंचे थे। यूं तो चतुर्भुज स्थान का नामाकरण चतुर्भुज भगवान के मंदिर के कारण हुआ था लेकिन लोकमानस में इसकी पहचान वहां की तंग, बंद और बदनाम गलियों के कारण है, जहां अहले सुबह से लेकर देर रात तक नाल, ढोलक और घुंघरुओं की आवाज के साथ कभी सुरों की महफिल सजती थी। वह महफिल अब भी सजती है लेकिन बदरंगी फिल्मी और कामुक आइटम गीतों के बीच कहीं दबकर रह जाती है। कद्रदान घटे तो तवायफों ने भी तवायफी से तौबा कर देह के धंधे को सुगम रास्ते के तौर पर चुन लिया। चतुर्भुज स्थान के करीब 600 घरों में बसनेवाली 10 हजार की आबादी की नियति अब ऐसी ही है। नसीमा से मिलने हम चतुर्भुज स्थान के शुक्ला रोड में पहुंचे थे। इस रोड किनारे बसे अमूमन हर घर के बाहर एक-दो बोर्ड लगे हुए मिलेंगे – स्वीटी नर्तकी, सुमन डांस पार्टी, कबिता-बबिता ग्रुप वगैरह-वगैरह। इन्हीं बोर्डों के बीच में ‘परचम’ का बोर्ड भी लगा हुआ है। परचम नसीमा का ऑफिस है। वहीं बैठकर वह बदलाव की बुनियाद तैयार कर रही है।
नसीमा ने इस बार बिहार चुनाव में सार्वजनिक तौर पर जो सवाल हवा में उछाले हैं, उसे भले ही कास्ट, कैश, क्राइम के बाद डेवलपमेंट की राजनीतिक चाल में लगे राजनीतिक दलों को अभी महत्वहीन लगता हो लेकिन आनेवाले कल में इन सवालों से पीछा छुड़ाना संभव न हो सकेगा। नसीमा कहती हैं कि हमारे इलाके से यानी रेड लाइट एरिया से राजनीतिक दलों को चुनाव के वक्त वोट और बोटी यानि जिस्म, दोनों चाहिए होता है लेकिन उसके एवज में अब तक हमें क्या मिला। राजनीति ने हमें क्या दिया। जबकि शेष भारत की बात न भी करें तो सिर्फ इसी बिहार के 38 जिलों में 50 रेड लाइट एरिया हैं, जहां दो लाख से अधिक आबादी बसती है। 80 प्रतिशत घरों से कर अदायगी होती है। इन रेड लाइट इलाकों की बसाहट 200 साल पूर्व से लेकर दो साल पहले तक का है। यह बात कोई हवाबाजी में नहीं बल्कि नसीमा ने सी-वोटर के सहयोग से व्यापक सर्वेक्षण किया है।
नसीमा से हमारी बातचीत करीब पांच घंटे तक होती रहती है। घंटे भर उनका स्वर इस कदर आक्रोश से भरा हुआ होता है कि वह मना करने से भी नहीं मानतीं। हम वहां सवालों का पुलिंदा लेकर पहुंचे थे लेकिन नसीमा सवालों की बौछार करती हैं। वह कहती हैं कि सरकार ने पिछले 40 सालों में हमारे नाम पर सिर्फ इतना ही किया है कि कभी रेड करवाकर जबरिया जिसे मन उसे पकड़ा, कभी ऑपरेशन उजाला और परिवर्तन चलाकर कल्याण का ढकोसला किया लेकिन उससे होता क्या है? जिन्हें पकड़कर ले जाया जाता है, उनमें से दो प्रतिशत ही सही जगह पर जा पाती हैं, बाकि तो नये रेड लाइट एरिया का ही विकास करती हैं। वह चतुर्भुज स्थान से निकलती हैं तो पटना में जाकर छोड़ दी जाती हैं, जहां फ्लाइंग सेक्स, मोबाइल सेक्स, ओपन सेक्स के धंधे में लग जाती हैं। किसी ब्यूटी पार्लर में, रेलवे स्टेशन पर या कहीं और। नसीमा पूछती हैं कि सरकार भी हमारे समाज को सामंती समाज के नजरिये से देखती है। सरकारी विभागों में कहीं कोई बतानेवाला नहीं, कोई रिकार्ड नहीं कि पिछले 40 सालों में रेड लाइट इलाके में रेड मारने के बाद जो 7000 लड़कियां निकाली गयीं, वह आज कहां रह रही हैं? बिना किसी पैकेज के पुनर्वास की बात होती है तो सीधा मतलब होता है नये रेड लाइट एरिया की संभावना को बढ़ाना। अगर ऐसा नहीं होता तो किशनगंज में दो साल पहले प्रेमनगर नाम का नया एरिया नहीं बसता, जो बिहार का सबसे नया रेड लाइट एरिया है।
नसीमा कहती हैं, सरकार डंडे के जोर पर धंधा बंद करवाकर सभी समस्याओं पर पार पाना चाहती है लेकिन ऐसा होता है क्या? दूसरी ओर देखिए, रोज ही तो अखबारों में इश्तेहार छपते हैं कि मस्ती भरी बातें कीजिए, मोबाइल फोन पर मैसेज आते हैं कि गर्मागर्म बात कीजिए दस रुपये प्रति मिनट में। कहां कभी किसी मोबाइल कंपनियों के खिलाफ रेड हुआ कि तुम यह कौन सा सेक्स रैकेट चला रहे हो, जबकि यह सबको पता है कि गर्मागर्म बातें करनेवाली लड़कियां या फ्रेंड्स क्लब के नाम पर सबकुछ करने वाली लड़कियां कोई विदेश की नहीं होतीं बल्कि अपने यहां की ही होती हैं। तो वे करें तो कुछ नहीं, हम करें तो छी-छी। इंटरव्यू देकर सेक्स वर्कर बहाल की जा रही हैं, समाज चुप है।
नसीमा पूछती हैं कि एक बात तो जाहिर है कि सेक्स की डिमांड बढ़ती जा रही है, इसलिए एक मिनट का दस रुपया देकर भी लोग सिर्फ बात करना पसंद कर रहे हैं। वह कहती हैं कि हमारा सिर्फ एक फंडा है – पुराने को तोड़ो नहीं, नये को जोड़ो नहीं। हमारे यहां सुधार नहीं, परिवर्तन चाहिए। जो धंधे में लगी हैं, उन्हें जबरिया इसे बंद करने के लिए कहकर कोई परिवर्तन नहीं होनेवाला। वैकल्पिक इंतजाम क्या हैं। आखिर इतनी बड़ी आबादी एकबारगी से करेगी क्या? समाज में तरह-तरह की स्कीम जाति, संप्रदाय के आधार पर चल रही हैं, तो हमारे लिए कोई स्कीम क्यों नहीं। सरकार कहती है कि महिलाओं के लिए तो आरक्षण है ही। मैं पूछती हूं कि क्या रेड लाइट की महिलाएं और समाज की सामान्य महिलाएं एक ही कटेगरी की हैं। सरकारी कार्यालयों में, समाज में, सड़कों पर कहीं एक समान नजरिये से ट्रीट किया जाता है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर सबके लिए मिलने वाले लाभ को यहां लागू करने की गुंजाइश बचती कहां है। सदियों से वेश्याओं को बांट कर रखा गया है, अछूत की तरह। अब जब दलित में महादलित, पिछड़ों में अति पिछड़ों की बात हो रही है तो हमारे लिए क्या? अगर कुछ नहीं तो सिर्फ हर रेड इलाके में प्रतिवर्ष दस-दस बच्चों को स्कॉलरशिप भी मिले तो देखिए कैसे देखते ही देखते परिवर्तन की बयार बहती है। लेकिन सबको एक ही सीधा तरीका नजर आता है कि धंधे को बंद करवा दो। नसीमा कहती हैं कि मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूं कि यहां बदलाव की छटपटाहट है लेकिन विकल्पों के अभाव में और सामाजिक उपेक्षा के डर से कोई बंद गलियों की बंदिशें तोड़ने की कोशिश नहीं करता।
इन सवालों के साथ नसीमा नीतीश कुमार से भी रू-ब-रू हो चुकी हैं। पिछले साल नीतीश कुमार जब बिहार विकास यात्रा के क्रम में मुजफ्फरपुर के जारंग पहुंचे थे तो नसीमा भी वहां पहुंच गयी। बताती हैं कि दो बजे दिन में पहुंची, दस बजे रात में मेरी बारी आयी। हमने यही सवाल नीतीश कुमार के सामने रखे। सबसे खास बात यह रही कि नीतीश धैर्यपूर्वक बातों को सुनते रहे, उन्होंने तुरंत पदाधिकारियों से सारी बातें पूछीं। फिर नसीमा को उन्होंने ही कहा कि आप सर्वे-अध्ययन करवाओ तो जरूर कुछ न कुछ करेंगे। नीतीश के कहने पर ही नसीमा व उनके साथियों ने सी-वोटर के मार्गदर्शन में बिहार के रेड लाइट एरिया में व्यापक अध्ययन भी किया, जिसकी रिपोर्ट तैयार हो रही है। नसीमा को यह भरोसा है कि पहली बार किसी सरकार ने या खुद मुख्यमंत्री ने गंभीरता से उनकी बातें सुनी हैं। नसीमा रेड लाइट एरिया में एक आइकन की तरह उभरी हैं, जिन्होंने और कुछ किया हो या नहीं लेकिन यह साहस जरूर भरा है कि अब रेड लाइट एरिया की बेटियां अपनी पहचान नहीं छुपातीं। नसीमा कहती हैं – दस साल तो इसी में लग गये। अपनी पहचान के साथ जीना कोई आसान काम नहीं लेकिन अब कुछ-कुछ पटरी पर आ रहा है। नसीमा को सचिन तेंदुलकर सम्मानित कर चुके हैं। मुंबई में मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी भी नसीमा के दुख से दो चार हो चुकी हैं।
नसीमा फिर अपनी बातों पर लौटती हैं। बताती हैं मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में भी दो टोलियां हैं। एक चतुर्भुज स्थान, जहां नृत्य-गायन आदि प्रमुख है और दूसरा ललटेनपट्टी, जहां सेक्स वर्कर ही ज्यादातर रहते हैं। नसीमा का घर ललटेनपट्टी में ही है। लेकिन नसीमा की परवरिश सीतामढ़ी के गोहाटोला में हुई। गोहाटोला भी प्रसिद्ध रेडलाइट एरिया हुआ करता था। नसीमा का वहां ननिहाल है। 21 अप्रैल 2008 को गोहाटोला को सामंती ताकतों ने आग के हवाले कर दिया था। तब नसीमा वहां पहुंची थी। वह बताती हैं कि आंखों के सामने लाशें ही लाशें थीं। चीत्कार और विलाप। लेकिन रेड लाइट की बेबसी को सुनता कौन? लाशों का पता नहीं चला, मरनेवालों की संख्या का हिसाब नहीं रखा गया। एक नरसंहार को दफन कर दिया गया। तब से मन में आक्रोश पला-बढ़ा। विद्यापीठ, देवघर से मैट्रिक करने के बाद एक संस्था के साथ काम करती थी, सब छोड़छाड़कर अपने इलाके में, अपने लोगों के बीच आ गयी और ‘हमारी आवाज’ नाम से एक मुहिम शुरू कर दी। अब वह परचम के रूप में सामने है, जिसमें कई-कई नसीमाएं तैयार हो रही हैं। निखत, रिंकी, चंदा, जुबैदा आदि, सबसे वहीं मुलाकात होती है। निखत कहती हैं कि अब हमलोग भी एलानिया कहते हैं कि रेड लाइट इलाके से हैं। हालांकि अभी चुनौतियां कम नहीं हुई है। एक वाकया सुनाती हैं निखत जब वह पिछले साल अपनी नुक्कड़ टीम के साथ आरा-बक्सर के इलाके में ‘एक सही आशियाने की ओर’ तथा ‘अब और नहीं’ नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन करने गयी थीं। तब वहां लोगों ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया, उससे दुख होता है। कोई कहता रंडियां आ गयीं। लंबी सांस लेते हुए फिर निखत कहती हैं – लेकिन अब हम ऐसी परेशानियों से इतनी दूर निकल चुके हैं कि लक्ष्य और मकसद सिर्फ आगे बढ़ना है।
निखत जैसी कई लड़कियों को अपने साथ जोड़ती जा रही हैं नसीमा। नसीमा कहती हैं – हमारा मकसद सिर्फ यही है कि हर रेड लाइट इलाके में एक नसीमा खड़ी हो। नसीमा की जिंदगी पर अब एक किताब लिखने में लगे पत्रकार हसनैन अरिज कहते हैं – नसीमा का यह काम सबसे बड़ा है कि वह अपने साथ-साथ कई नसीमाओं को तैयार कर रही हैं। वह भी चतुर्भुज स्थान की बनी-बनायी व्यवस्था से बिना छेड़छाड़ किये हुए।

शादी के बाद अपने पति और परिवार के साथ नसीमा
घंटों बात होने के बाद नसीमा अपने ऑफिस में धीरे से एक युवक से परिचय कराती हैं। यह हैं हंसराज। मेरे पति। हंसराज से नसीमा ने शादी की तो यह भी एक साहस भरा कदम ही है। हंसराज राजस्थान के उस इलाके से आते हैं, जहां समाज में कट्टर व्यवस्था कायम है। सात साल पहले नसीमा और हंसराज की मुलाकात पटना के एक वर्कशॉप में हुई। तब से ही हंसराज नसीमा को शादी का प्रस्ताव देते रहे लेकिन नसीमा की शर्त एक ही थी कि वह पहले घर में बताये कि मैं रेड लाइट एरिया की बेटी हूं। पहचान छुपाकर न प्यार कर सकती और न ही शादी। सात साल हंसराज के घरवालों को समझने-समझाने में लग गये। दूसरी ओर नसीमा के घरवाले थे, जो अपनी बिटिया के काम-काज से खुश नहीं रहते थे और बार-बार कहते थे कि तुम्हें मदर टेरेसा बनना है क्या, चलो अपनी बिरादरी में शादी कर लो। नसीमा कहती हैं कि उसने तो कभी सोचा भी नहीं था वह कभी शादी करेगी। लेकिन हंसराज के माता-पिता से जब मुलाकात हुई तो उन्हेांने देखते ही कहा – लड़की तो बहुत भली है… और फिर बन गयी बात। हंसराज के माता-पिता ने तमाम सामंती व्यवस्था का खौफ परे कर नसीमा को अपनी बहू बनाया और यह भी बड़ा मजेदार रहा कि इस साल जनवरी में जब चित्रकुट में गायत्री परिवार की रीति से शादी करने के बाद नसीमा अपने ससुराल गयीं तो अगले ही दिन ईंट भट्ठे पर काम करने वाली 20-30 लड़कियों के साथ वहां एक मीटिंग कर दी। नसीमा कहती हैं – अब तो ससुराल से फोन आता है कि बेटा नसीमा आज यहां पर ऐसे हुआ, वहां पर ऐसे हुआ।
नसीमा से जब हम विदा होने के होते हैं तो हमारी मुलाकात चुन्नी खातून से होती है। चुन्नी खातून नसीमा, निखत, चंदा आदि की अभिभावक तुल्य हैं। सब उन्हें चुन्नी आंटी कहते हैं और नसीमा को नसीमा बाजी। चुन्नी आंटी कहती हैं – जैसे विकास की बातें सभी जगहों पर हो रही हैं, वैसी ही कुछ बातें रेड लाइट इलाके में भी हो तो सरकार को कभी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी इस धंधे को हटाने के लिए। कभी स्कूल-कॉलेज, आईटीआई वगैरह की बात तो हो। कभी शिक्षा की बात तो हो। मैं यानी चुन्नी आंटी अपने तमाम उम्र के अनुभव के आधार पर यह बात कह सकती हूं कि यहां सब तैयार बैठे हैं बदलाव के लिए… लेकिन छद्म रहनुमाई के भरोसे नहीं। (यह रिपोर्ट अपने संपादित रूप में तहलका में छपी है)
nirala(निराला। युवा और प्रखर पत्रकार। झारखंड और बिहार के गांवों-कस्‍बों में घूम घूम कर रिपोर्टिंग की। भोजपुरी साइट बिदेसिया के मॉडरेटर। एक समय झारखंड से निकलने वाली पत्रिका माइंड के विशेष संवाददाता। प्रभात खबर से लंबे समय के जुड़ाव के बाद फिलहाल तहलका के झारखंड-बिहार संवाददाता। उनसे niralabidesia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
साभार- मोहल्ला लाइव 

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