पहले देश, समाज, तब “मैं”
20 NOVEMBER 2010 NO COMMENT
♦ हरिवंश
अभी पिछले दिनों झारखंड के एक शहर में कुछ दिन रहा, तो एक दिन प्रभात खबर में हरिवंश जी का ये रिपोर्ताज पढ़ा। हमने पिछले महीने भारतीयता के संदर्भ में बहसतलब आयोजित की थी, उसी कड़ी में इस रिपोर्ताज को पढ़ने से पता चलता है कि कैसे जापान ने अपनी राष्ट्रीयता की बिखरी हुई किरचों को समेटा और विश्व के दर्पण में खुद को सबसे साफ देखना चाहा। हालांकि मेरी एक सहज जिज्ञासा ये है कि इस रिपोर्ताज से जिस जापानी दर्शन का बोध होता है, वह है – मिटो और बढ़ो। लेकिन भारत में जिस दर्शन के ज्यादा चर्चे होते हैं, वह है – जीयो और जीने दो। हम दोनों दर्शन के बीच की दूरियों को कैसे पाटें, कैसे भारत के संदर्भ में जापानी दर्शन से प्रेरणा लें? हमारे यहां सामाजिक स्तर पर जितने बंटवारे हैं और संघर्ष और सत्ता की अलग अलग गलियों में भी जिस तरह से सामाजिक वर्चस्व की रणनीति काम करती है – उसमें हमारे आगे बढ़ने के लिए क्या रास्ता हो सकता है – इसका उत्तर उतना सरल नहीं है। अभी तो हम हरिवंश जी का रिपोर्ताज फिर से पढ़ते हैं : अविनाश
जापान देखने की ललक थी। चीन देखने की बालसुलभ उत्सुकता जैसी ही।
क्यों? कब से?
विद्यार्थी जीवन से ही। इसलिए कि एशिया का पहला देश जो आधुनिक बना। गैर पश्िचमी जमात का मुल्क, पश्िचम की प्रगति को टक्कर देनेवाला। जहां जीवन से ऊपर, आत्मसम्मान माना गया, निजी, समाज या मुल्क का। जिसकी शिष्टता-शालीनता, झुक-झुक कर अभिवादन, पर अपने हितों के प्रति दृढ़ता के अनेक प्रसंग सुने थे। मेजी सुधारकों ने जहां पश्िचम की श्रेष्ठ चीजों को अपनाया, पर अपनी शर्तों और आबोहवा के अनुकूल। अपनी भाषा – अपनी संस्कृति को साबुत रख कर। 1895 में जिसने चीन को हराया। 1905 में रूस को। यूरोप (रूस) को शिकस्त देनेवाला पहला एशियाई मुल्क। एशिया की पहली महाशक्ति बननेवाला देश। जी-सात और आसेड जैसे एक्सक्लूसिव वेस्टर्न क्लब्स (खास पश्िचमी संगठन) का सदस्य होनेवाला पहला गैर पश्िचमी वतन।
एशिया पर नये ढंग से सोचनेवाले विश्व मशहूर चिंतक किशोर महबूबानी के अनुसार ‘जापानी वेयर कंपलीटली प्रैग्मेटिक’ (जापानी पूरी तरह व्यावहारिक थे)।
जापानी जड़ से जुड़े फ्रांसिस फुकियामा ने जब से कहा, दुनिया में इतिहास का अंत हो गया है (’90 के दशक में। रूस टूट के बाद), तब से दुनिया में ‘प्रैग्मेटिज्म’ (व्यावहारिक) नया वाद-विचार है। भारतीय राजनीति में, लोक व सार्वजनिक जीवन में, अब आदर्श ‘पागलपन’ का पर्यायववाची है। ‘प्रैग्मेटिक’ बनना (व्यावहारिक) युग और काल के अनुरूप! इस नये ‘प्रैग्मेटिकवाद’ को पुख्ता आधार दिया चीनी राजनेता देंग ने। महबूबानी मानते हैं कि ‘द ग्रेटेस्ट प्रैग्मेटिस्ट इन एशियाज हिस्ट्री इज प्रावेवली देंग सियाओपिंग’ (एशिया के इतिहास में सबसे बड़ा व्यावहारिक, शायद देंग सियाओपिंग हैं)। उन्हीं दिनों देंग का बयान आया था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिल्ली काली है या सफेद, अगर वह चूहे को पकड़ लेती है, तो अच्छी बिल्ली है।
यह साम्यवाद के पराभव और पूंजीवाद-बाजारवाद के उदय की बेला थी।
कुछ ऐसा ही द्वंद्व था, जापान के सामने। वाद व विचार का नहीं। दूसरे महायुद्ध में परास्त मुल्क। टूटा-बिखरा। पर राख से वह उठ खड़ा हुआ। तब एक जापानी का मानस क्या था? हाल में पढ़ा, तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज की स्मारिका। हिंदी-उर्दू शिक्षण शताब्दी वर्ष (1908-2008) के अवसर पर प्रकाशित। लक्ष्मीधर मालवीय द्वारा लिखित संस्मरण प्रो तानिपुरा तातेकि के बारे में। एक बार प्रो तातेकि (हिंदी के जाने माने जापानी प्रोफेसर) ने प्रो मालवीय से कहा, ‘हार से हम जापानियों की वर्जिनिटी खत्म हो गयी’। यह सिर्फ एक जापानी का मानस नहीं, कमोबेश जापानी समाज का था।
उस पस्त हाल से, राख से कैसे एक मुल्क फिर खड़ा हुआ? पूरी ताकत से। वह संकल्प, दृढ़ता और ऊर्जा क्या थी? यह जानने की ललक से दशकों पहले पढ़ी पुस्तक (अकियो मोरिता) की याद आयी। ‘मेड इन जापान’ (अकियो मोरिता एंड स्पेनी)। द इंटरनेशनल बेस्टसेलर। जापानी सफलता की संस्कृति की झलक उसी पुस्तक में मिली। दूसरे विश्वयुद्ध के तत्काल बाद युवकों का एक समूह बैठा। बम और ध्वंस से तबाह तोक्यो के एक जले डिपार्टमेंटल स्टोर में। पास में कुछ भी नहीं। सिर्फ संकल्प और सपने। वहां उन्होंने एक कंपनी की नींव डाली, जिसकी टेक्नोलॉजी से जापान की अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया गया। जो कंपनी बनी, उसका नाम सोनी था। इसी समूह से एक युवा इंजीनियर अकियो मोरिता इसके चेयरमैन बने। जापानी मैनेजमेंट – प्रबंधकला की जानकारी इसी पुस्तक से मिली। उनके जीवन और व्यापार के श्रेष्ठ मूल्यों के बारे में भी। कैसे शून्य से शिखर तक पहुंच गयी सोनी? दुनिया के घर-घर तक नाम-उत्पाद पहुंचा। इसी जापानी प्रबंधकला ने वैश्िवक आर्थिक प्रतिस्पर्धा में अमेरिका को पछाड़ दिया। जिस मुल्क के पास प्राकृतिक संसाधन नहीं, (आइरन ओर वगैरह नहीं), वह स्टील का श्रेष्ठ उत्पादक बना?
विपरीत परिस्िथतियों को अपने अनुकूल ढाल लेनेवाला मुल्क। मानस। बहुत बाद में विश्व मशहूर चिंतकों ने कहा, दुनिया में चले ‘कोल्ड वार’ (शीतयुद्ध) दौर का विजेता तो जापान है। अमेरिका के पूर्व सीनेटर पाल टासोंगस ने अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान में कहा ‘द कोल्ड वार इज ओवर एंड जैपनीज वोन’ (शीत युद्ध खत्म हुआ, जापानी जीत गये)।
फिर पाल केनेडी की विख्यात कृति की याद आयी। ‘द राइज एंड फाल ऑफ द ग्रेट पावर्स’ (बड़ी महाशक्तियों के उत्थान और पतन)। पाल ने लिखा कि जापान में ‘फैनेटिकल विलिफ’ (चरमपंथी की तरह विश्वास) रहा, क्वालिटी कंट्रोल (गुणवत्ता नियंत्रण-स्तर) में। श्रेष्ठ प्रबंधकीय कौशल को उधार लेना और उसे श्रेष्ठ बना कर अपने अनुकूल ढाल लेना। सर्वश्रेष्ठ शिक्षा का राष्ट्रीय मापदंड विकसित करना। असंख्य असाधारण इंजीनियर पैदा करना। इलेक्ट्रॉनिक्स-आटोमोबाइल्स में विश्व में जगह बनाना। उद्यमिता (इंटरप्रेन्योरशिप) को छोटे से लेकर बड़े स्तर पर प्रश्रय देकर। कंपनी के प्रति लायल्टी (प्रतिबद्धता) और कठिन काम की राष्ट्रीय संस्कृति विकसित कर। प्रबंधन और कामगारों के बीच द्वंद्व को हड़ताल जैसी चीजों से नहीं, नयी संस्कृति अपना कर सुलझाने की पद्धति अपना कर। पाल ने और भी अनेक चीजें लिखी हैं, जिन्हें विकसित कर जापानी राख से उठ खड़े हुए। नयी आर्थिक महाशक्ति बन कर। उस देश में जाकर सुना। जापानी मित्रों से। चीनी, वे तो नकलची हैं, असल ‘क्रिएटिव इंजीनियर’ (सृजनात्मक इंजीनियर) तो हम हैं। इसे अहं बोध भी कह सकते हैं, पर यह धारणा निराधार भी नहीं है।
कैसा है, यह जापानी मानस?
प्रधानमंत्री के विशेष विमान ‘खजुराहो’ तोक्यो से क्वालालंपुर (5361 किमी) की उड़ान पर था। भारत सरकार के एक बड़े अधिकारी (विदेश मंत्रालय) से पूछा? वह जापान स्िथत भारतीय दूतावास में रहे हैं। बड़े पद पर। लंबे समय तक। जापान की खासियत क्या है? बताते हैं (1) नेशन विफोर सेल्फ (अपने, पहले देश) (2) सोसाइटी विफोर सेल्फ (अपने पहले समाज) (3) फेस ऑफ आनर (आत्मसम्मान के साथ जीना)… ये तीन सूत्र नहीं, मानस हैं, जापानी ताकत। श्रेष्ठता और सफलता के।
वहीं सुनता हूं, जापानी विमान लेकर कैसे दुश्मन समुद्री जहाजों में घुस जाते थे? दूसरे विश्वयुद्ध में। मर कर तबाह करने का मानस। आज के अफगानी या पाकिस्तानी जिहादियों ने ‘आत्मघाती बम’ बनने का सूत्र शायद इसी से पाया हो। लिट्टे के मानव बम का प्रेरक प्रसंग शायद यही रहा हो। जापानियों के लिए पहले देश है। फिर समाज। अंत में निजी स्वार्थ या मैं। अपवाद भी हैं।
इसी यात्रा में याद आया। जापानी सामुराइ के बारे में। प्रो लक्ष्मीधर मालवीय का लिखा प्रसंग, ‘उनके पूर्वज (प्रो तानिपुरा तातेकि) सामुराइ, क्षत्रिय थे। जापान में पुरानी मान्यता है, हारे हुए सामुराइ को शर्मसार कर सकनेवाली कोई बात रह ही नहीं जाती! सामुराइ योद्धा, पराजय की स्िथति में एल आकार में, खुद अपने पेट में अपनी तलवार से घाव-हमला कर प्राण दे देते थे। जीते जी पराजय स्वीकार नहीं। अपमान बरदाश्त नहीं। इस मानस-संकल्प का मुल्क।
यह मुल्क इसलिए भी देखने की ललक थी कि ‘बुलेट प्रूफ रेल’ से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स, आटोमोबाइल में सर्वश्रेष्ठ उत्पाद और नयी-नयी चीजों से विश्व बाजार में छा जानेवाला देश या लोग हैं कैसे? विश्व का श्रेष्ठ इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट मानस है क्या? पता चला, ट्रेनें सेकेंड्स में चलती हैं। डाट टाइम पर। मसलन 11 बज कर 20 मिनट, 30 सेकेंड पर ट्रेन खुलती है। ट्रेनों का ऐसा ही टाइम टेबुल है। दशकों पहले की एक घटना बतायी जाती है। प्रोग्रामिंग में कोई चिप्स इधर-उधर हो गया। फिर एक ट्रेन कहीं अचानक ठहर गयी। 10-12 मिनट विलंब। देशव्यापी मुद्दा। पूरा रेल बोर्ड-मंत्री, राष्ट्रीय टीवी चैनल पर गये, झुक-झुक कर देश से बार-बार माफी मांगी। और सामूहिक इस्तीफा दे दिया।
हिंदी के मशहूर लेखक, जापान में अध्यापन काम में लगे प्रो सुरेश ऋतुपर्ण के लंबे लेख (जापान में हिंदी-उर्दू शिक्षण : सौ साल का सफर) के दो अंश, जापान को जानने-समझने में मदद करते हैं।
(1) ‘युद्धोपरांत जापान के पुनर्निर्माण का जो कार्य शुरू हुआ, वह एक असंभव सा लगनेवाला कार्य था। लेकिन जापानी जनता के धैर्य, आत्मशक्ति और श्रमशक्ति के अदभुत संगम ने इस असंभव एवं दुष्कर कार्य को संभव कर दिखाया। यदि बहुत बारीकी से देखा जाए, तो इसके मूल में भी जापानी मन का युयुत्सु-भाव ही काम कर रहा था। अब वे युद्ध के नहीं, विकास और पुनर्निर्माण के मोरचे पर डटे थे। अनुशासन, लगन, देशप्रेम और अनहोनी को होनी में बदलने की दुर्दुनीय आकांक्षाओं के साथ वे अपने ध्वस्त राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने के लिए एकजुट हो गये। यह कार्य भी उनके लिए किसी युद्ध से कम नहीं था और उनका एकमात्र लक्ष्य था विजयी होना।
क्या किया जापानियों ने यह भी पढ़िए प्रो ऋतुपर्ण की इन पंक्तियों में…
(2) सन 1960 तक आते-आते विजेता के रूप में उभरने लगे। सन 1964 में विश्व की सबसे तेज ‘बुलेट ट्रेन’ ने दौड़ना शुरू कर दिया, जो जापान के लिए बड़े गर्व की बात थी। इसी तरह 1964 में ओलिंपिक खेलों का सफल आयोजन करके जापान ने विश्व बिरादरी को अपनी प्रगति और उपलब्धियों का परिचय देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सन 1970 में जापान के ओसाका शहर में आयोजित ‘एक्सपो-70′ का अत्यंत विशाल आयोजन किया गया। वस्तुत: यह ‘एक्सपो’ एक प्रकार का ‘शोकेस’ था, विश्व को यह जतलाने के लिए कि धूल में मिला जापान अब विश्व के प्रमुख विकसित देशों की कतार में बहुत आगे आ चुका है।
वस्तुत: बीसवीं शताब्दी का आठवां दशक जापान के पुनरोदय का उदघोष करनेवाला दशक था। जापान की उन्नति को विश्व भर में ‘आर्थिक चमत्कार’ कहा जाने लगा।
जहां ऐसे मूल्य हैं, सार्वजनिक जीवन में, वह देश देखने की साध थी। वह जापान, जिसका मूल नाम ‘निहोन’ या ‘निप्पोन’ है, जिसका अर्थ है, आते सूरज का देश। जापान में सूर्य पूज्य है। देवी के रूप में जापान के झंडे पर सूर्य को दर्शानेवाला गोल चिह्न है। यह पूरब का छोर है। पूर्व प्रशांत महासागर में चार बड़े और अनेक छोटे-छोटे द्वीपों की शृंखला, जापान द्वीप समूह है।
इस जापान में 538 ई में बौद्ध धर्म, चीन, कोरिया होते हुए पहुंचा है। वह, जापान के राजकीय शिंतो धर्म के साथ स्वीकार्य हुआ। पर भारत के पौराणिक देवी-देवताओं के संकेत यहां मिलते हैं। प्रो ऋतुपर्ण के लेख से ही, ‘भारत में विद्या और ज्ञान की देवी सरस्वती (बेंटेंन) यहां ज्ञान के साथ ही प्रेम की देवी भी हैं। इन्हीं की बहन ‘बेंनजेइटन’ लक्ष्मी के रूप में मान्य हैं। इसी तरह हमारे मृत्यु के देवता यमराज यहां ‘एम्मासामा’ से नाम से जाने जाते हैं। जापान के मंदिरों में प्रांगण में ‘होम कुंड’ जैसी कल्पना के भी साक्षात दर्शन होते हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व ही प्रांगण में जल कुंड भी होते हैं, जिससे निरंतर जल प्रवाहित होता रहता है और लोग आचमन करके, पवित्र होकर मंदिर में प्रवेश करते हैं। होम कुंड में लोग अगरबत्तियां जलाते हैं। हाथ जोड़ कर प्रार्थना करते हैं और उसका धुआं हाथ की हवा से अपनी ओर करके धूपस्नान जैसा करते हैं। उनकी मान्यता है कि ‘इससे शरीर और आत्मा पवित्र होते हैं।’
पर गुजरे 20 वर्षों में पासा पलटा है। 1990-91 में जापान की ताकतवर अर्थव्यवस्था ‘मंदी’ का शिकार हुई। आर्थिक समृद्धि के शिखर से लुढ़कने का दौर। विश्व अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर रहने का सपना भंग होने की शुरुआत। प्रतिद्वंद्वी चीन की प्रबल चुनौती और महाशक्ति के रूप में चीन के उदय के दशक। जापान की बढ़ती बेचैनी के दौर की शुरुआत।
(हरिवंश। जननायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के ग्रामीण। देश के अग्रिम पंक्ति के पत्रकार। विचारक। धर्मयुग से पत्रकारिता की शुरुआत। सुरेंद्र प्रताप सिंह के संपादन में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका रविवार की कोर टीम के सदस्य। प्रभात खबर के जरिये आंचलिक पत्रकारिता को राष्ट्रीय छवि दी। उनसे harivansh@prabhatkhabar.in पर संपर्क किया जा सकता है।)
साभार- प्रभात खबर
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