ऐसे नहीं होगा, समाज को बनाने की भाषा तैयार करनी होगी

ऐसे नहीं होगा, समाज को बनाने की भाषा तैयार करनी होगी

18 JANUARY 2011 NO COMMENT
♦ अनिल चमड़िया
शब्दों से समाज बनते हैं। जब दिल्ली के मेट्रो रेल में ये शब्द बजते हैं कि अनजान व्यक्ति से दोस्ती न करें और जब दिल्ली की पुलिस बसों में और कॉलोनियों में यह बोर्ड टंगवाती है कि पड़ोसी पर नजर रखें तो ये सब एक ऐसा समाज बना रहे होते हैं, जिसमें आपसी रिश्ते दरकते जाते हैं। मेट्रो रेल, भारतीय रेल, बस अड्डों पर एक वाक्य टंगा रहता है या टेप बजता रहता है –जेबकतरों से सावधान! क्या जेबकतरों की जगह अपनी जेब पर नजर रखें या जेब पर सावधानी बरतें जैसे वाक्य नहीं लिखे जाने चाहिए? क्यों नहीं मेट्रो रेल, भारतीय रेल और सावधानी बरतने का ऐलान करने वाले संगठनों व संस्थाओं को पॉकेटमार की जगह पॉकेटमारी का चलन बढ़ाना चाहिए? कैसे एक ई की मात्रा से संप्रेषण का समाजशास्त्र बदल जाता है? इस विषय पर अनिल चमड़िया का लिखा एक आलेख थोड़े संपादन के साथ 16 जनवरी को अमर उजाला ने छापा। हम उसे उसके संपादन से पहले वाले अविकल रूप में छाप रहे हैं : मॉडरेटर

बीवेयर ऑफ पीक पॉकेट। ये वाक्य लोगों को सावधानी बरतने की सलाह देता है। लेकिन जब ये वाक्य अपनी भाषा यानी अंग्रेजी में होता है तो इसका उसे सुनने वाले पर किस तरह का असर पडता है? सुनने या पढ़ने के वक्त उसका क्या मनोविज्ञान बनता है? और जब यह वाक्य हिंदी में अनूदित होता है, तो उसका उसे ग्रहण करने वालों पर क्या असर होता है। हिंदी में इस वाक्य का अनुवाद इस तरह से होता है – जेबकतरों से सावधान। दिल्ली के मैट्रो ट्रेन में जो लोग ये वाक्य बार-बार सुनते हैं, उनके मनोविज्ञान को पढ़ने की कोशिश की गयी। वे भीड़ भाड़ की स्थिति में तो ये वाक्य सुनते ही अपने आसपास खड़े लोगों पर एक निगाह मार लेते हैं। आखिर अंग्रेजी के इस वाक्य का अनुवाद इस तरह से क्यों नहीं किया गया। जेब कटने से सावधान या अपनी जेब को सुरक्षित रखने के लिए सावधानी बरतें। संप्रेषण की भाषा का उसे ग्रहण करने वालों पर गहरा असर पड़ता है। ये तो इसका एक पहलू है। दूसरा पहलू इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
जो ग्रहण करता है, वह संदेश उसके आसपास किस रूप में पसरता है और उससे आसपास का क्या माहौल तैयार होता है। यानी पूरी सामाजिक संरचना पर उसका असर पड़ता है। अनुवादकों को क्यों ये जरूरत पड़ी कि वह जेबकतरों से सावधानी बरतने को कहें। जेब कटने से सावधानी बरतने की सलाह दी जाती तो उससे क्या अंतर आता? आखिर इस वाक्य का उद्देश्य क्या है? अपराध के प्रति सतर्क रहें। जेबकतरा होना किसी के माथे पर नहीं लिखा होता है लेकिन जेबकतरे से सावधानी की हिदायत हर एक को एक दूसरे के जेबकतरा होने का संदेह पैदा जरूर कर देता है। जैसे 1990 के बाद दिल्ली की बसों में एक वाक्य लिखा जाने लगा। पड़ोसी पर नजर रखें। यह पढ़कर हर व्यक्ति एक दूसरे को संदेह की निगाह से देखता था। जेब के प्रति सावधानी से पहले जेबकतरे से खतरे का बोध पैदा हो जाता है। मजेदार बात है कि हमारे यहां महात्माओं और विद्वानों का ये वाक्य ही जगह जगह चिपका मिलता है कि अपराध से घृणा करो, अपराधी से नहीं। लेकिन हमारे समाज में घृणा का जो व्यािवहारिक पाठ तैयार हुआ है, वह अपराधी के खिलाफ है। बल्कि यूं कहा जाए कि अपराधी की ही एक छवि हमारे मन मस्तिष्क में बनी हुई है। इसीलिए उस छवि का अंश मात्र भी किसी के चेहरे पर दिखता है, तो वह अपराधी के रूप में शिनाख्त कर लिया जाता है। जबकि मजेदार बात तो ये भी है कि अंग्रेजी के उपरोक्त वाक्य का यही अनुवाद हो सकता है, ये भी नहीं कहा जा सकता है। पीकपॉकेट का अर्थ पॉकेटमारी भी हो सकता है। मान लिया जाए कि पीक पॉकेट का अर्थ पॉकेटमार भी होता तो क्या हमारे समाज में उसी तरह के अनुवाद को लादने की बाध्यता है? अनुवाद की एक अपनी सामाजिक संरचना होती है।
इस वाक्य के बहाने अपने समाज के जनमानस को समझना है। इसमें मनुष्य के प्रति किस तरह की घृणा का भाव छिपा हुआ है। इसीलिए हमारे समाज में संप्रेषण की जो भाषा या कहें तो पूरा ढांचा बेहद अमानवीय बना हुआ है। बाहर की दुनिया में पॉकेटमार और पॉकेटमारी के बीच का अंतर एक संवेदनशीलता दिखाता है।दरअसल हमारी पूरी संरचना मनुष्य विरोधी विचारों से भरी पड़ी हैं। हम इसके प्रति कतई संवेदनशील नहीं होते है कि एक शब्द या एक मात्रा के इस्तेमाल करने व नहीं करने का कितना सामाजिक प्रभाव होता है। पॉकेटमारी और पॉकेटमार में केवल एक मात्रा का अंतर भर है। हमें इस पहलू पर विचार करना चाहिए कि यह हमारे बीच गड़बड़ी कहां है। नसीहत तो अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करने की दी जाती है लेकिन विचार का ढांचा अपराधी से घृणा करने का बना हुआ है। एक दूसरे उदाहरण से इस घृणा को समझने की कोशिश कर सकते हैं। कुछ दिनों पूर्व दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में फीस बढ़ने के खिलाफ कई तरह के कार्यक्रम किये गये। इनमें सब्जी बेचकर और जूते में पालिश करके फीस में बढ़ोतरी का विरोध जताया गया। इस तरह के दृश्य कई मौकों पर देखने को मिलते हैं। आखिर सब्जी बेचने वाला और जूते में पालिश करने वाला कैसे किसी विरोध का कार्यक्रम हो सकता है? आखिर मनुष्य क्यों बार बार निशाने पर आता है। क्या ये वर्ण व्यवस्था की विचारधारा है? पूंजीवादी विचारधारा के बारे में ये कहा जाता है कि उसके आर्थिक गैरबराबरी के कार्यक्रमों से कई तरह के अपराधों की पृष्ठभूमि तैयार होती है। वह व्यवस्था पुराने अपराधों को खत्म करने के खिलाफ मुहिम भी चलाती है और नये नये किस्म के अपराध भी पनपते रहते हैं। जैसे किसी बीमारी को खत्म करने के लिए मुहिम चलती है। लेकिन वह किसी रोग के रोगी के प्रति घृणा को अपने विचार के रूप में प्रगट नहीं करता है। हमारे समाज में देखा गया है कि कई तरह के रोगों से पीड़ितों से ही घृणा की जाती रही है। साम्यवादी विचारधाराएं अपराध के आधार में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों को तलाशती है और उस स्तर पर आपराधिक प्रवृति को खत्म करने पर जोर देती है। वर्ण व्यवस्था की विचारधारा दुनिया की एक मात्र ऐसी विचारधारा है, जो कि मनुष्य को उसके जन्म से पहले ही हीन व अपराधी मान लेती है। यह विचारधारा अमानवीयता को अपनी गति मानती है। इसीलिए उसकी भाषा सरंचना में मनुष्य विरोधी घृणा हावी रहती है। इस संरचना को मनुष्य की किसी जाति के सदस्यों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
समाज में सुधार के कार्यक्रमों की आज क्या रूप रेखा दिखाई देती है? इस आधुनिक व्यवस्था में अमानवीय कृत्यों के खिलाफ जब सत्ता का ढांचा सक्रिय हुआ है, तभी उसमें सुधार की कुछ गुंजाइश बनी है। सती प्रथा, दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, जाति विरोधी विवाह संबंधों की स्थिति में हत्याओं तक के सिलसिले को देखा जा सकता है। कानून किसी अमानवीय कृत्य के ढांचागत स्वरूप को तोड़ सकता है लेकिन उसे मिटा तो नहीं सकता है। उसे मिटाने का निश्चय जब तक समाज के संकल्प का हिस्सा नहीं बनता है, तब तक उसे विचारधारा के स्तर पर खत्म नहीं किया जा सकता है। समस्या ये हो गयी है कि वर्ण व्यवस्था के अमानवीय कृत्यों के उपरी ढांचों पर तो हमला देखा जा रहा है लेकिन वह भीतरी ढांचों में कई स्तरों पर अपनी सक्रियता बनाये हुए हैं। यदि वह भाषा में ही घुसी हुई है, तो उसे कौन सा कानून खत्म कर सकता है? कौन सा कानून ये कह सकता है कि हमें पॉकेटमार की जगह पॉकेटमारी के विरोध की भाषा में लोगों को सावधानी बरतने की सलाह देनी चाहिए। जबकि यह एक ई की मात्रा मनुष्यता के प्रति एक तरह की संवेदनशीलता विकसित करती है। वह चीजों को देखने का नजरिया ही बदल देती है। इसमें दो राय नहीं कि मनुष्यता या संवेदनशीलता का सीधा रिश्ता समाज को बनाने वाली विचारधारा से होता है। इसीलिए हर विचारधारा की कसौटी पर अब तक समाज के विभिन्न घटकों के निर्माण और उसकी स्थिति को कसकर देखा जा सकता है। विचारधाराओं द्वारा परिकल्पित समाज व्यवस्था के अनुरूप मनुष्य के साथ मनुष्य के रिश्ते दिखाई देते हैं।
(अनिल चमड़ि‍या। वरिष्‍ठ पत्रकार। पिछले तीन दशकों से सक्रिय। विभिन्‍न अखबारों, पत्रिकाओं, टीवी उपक्रमों, विश्‍वविद्यालयों से जुड़ाव रहा। कई आंदोलनों में सीधी भागीदारी।
इन दिनों स्‍वतंत्र पत्रकारिता एवं स्‍वतंत्र अध्‍यापन कार्य।
उनसे namwale@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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