Sandeep Mourya आरक्षण के कानून को ठेंगा दिखा रही नीतीश सरकार........................... सामान्य तौर पर गलती करना मनुष्य का मौलिक गुण है। गलतियां दो प्रकार की होती हैं। एक वह जो अंजाने में हो जाये और दूसरी गलती वह, जो जानबुझकर की जाये। जाहिरतौर पर पहली गलती को क्षमा योग्य माना जा सकता है, लेकिन दूसरी गलती को भी इसी श्रेणी में रखा जाये, ऐसा कहना वाजिब तो नहीं ही होगा। यह कहना अतिश्योक्ति ही होगी कि बिहार में सामाजिक न्याय की सरकार है, जिसका नारा है न्याय के साथ विकास। बहुत सारे पाठकों को संभवतः इसकी जानकारी न हो(जिन्हें ज्ञात है, वे कृपया मुझे क्षमा करेंगे) भारतीय संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद शब्द शुरु शुरु में नहीं था। वह तो दलितों और पिछड़ों में हुए राजनीतिक उभार का ही परिणाम रहा कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने संविधान में संशोधन कर प्रस्तावना में समाजवाद शब्द अलग से जुड़वाया। यह एक प्रकार से देश के शुद्रों की दूसरी जीत थी। दूसरी इसलिये कि पहली जीत तो बाबा साहब डा भीमराव आंबेदकर ने ही जीत ली थी। उन्होंने संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को सुनिश्चित कर दिया था। हालांकि इन्दिरा गांधी ने जिस मजबूरी के कारण शूद्रों को उनकी वाजिब जीत देने का निर्णय लिया था, संभवतः उनकी वही मजबूरी संपूर्ण क्रांति की सबसे बड़ी वजह भी साबित हुई। समाजवाद शब्द जोड़े जाने के बाद दलितों और पिछड़ों के सर्वांगीण विकास के लिये इन्दिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने ही भारतीय बजट में पहली बार स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत विभिन्न जातियों और समुदाय के लोगों के लिए उनकी संख्यात्मक भागीदारी के तर्ज पर बजटीय आवंटन करने की पहल की गई थी। खैर, बिहार में अभीतक एससीपी का प्रावधान अभीतक नहीं किया गया है। यानि जिन दलितों के कल्याण का दावा राज्य सरकार के मुखिया आये दिन अपने भाषणों में करते हैं, दरअसल उनके लिये राज्य सरकार द्वारा कुछ भी ऐसा नहीं किया गया, जिससे उनका शैक्षणिक और आर्थिक विकास हो सके। इसका एक और प्रमाण यह कि राज्य में आरक्षण के नियमों का खुल्लमखुला उल्लंघन किया जा रहा है। राज्य के अनेक विभागों में राज्य सरकार द्वारा संविदा के आधार पर नियुक्तियां की जा रही हैं। एक तो संविदा के आधार पर नियुक्ति ही श्रमिकों के लिये अहितकर है। दूसरी समस्या यह है कि एजेंसियों द्वारा किये गये नियुक्तियों में आरक्षण का अनुपालन नहीं किया जाता है। बहरहाल, बिहार में आरक्षण का उल्लंघन बेरोकटोक किये जा रहा है। ऐसे में वे संगठनें जो स्वयं को दलितों और पिछड़ों के क्लयाण करने के नाम पर अपना पेट चलाती हैं, वे भी खामोश रहकर राज्य सरकार द्वारा की जा रही बेईमानी का समर्थन करती नजर आ रही हैं। वैसे इनके खामोश रहने की सबसे बड़ी वजह यह कि सूबे में विपक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।


आरक्षण के कानून को ठेंगा दिखा रही नीतीश सरकार...........................

सामान्य तौर पर गलती करना मनुष्य का मौलिक गुण है। गलतियां दो प्रकार की होती हैं। एक वह जो अंजाने में हो जाये और दूसरी गलती वह, जो जानबुझकर की जाये। जाहिरतौर पर पहली गलती को क्षमा योग्य माना जा सकता है, लेकिन दूसरी गलती को भी इसी श्रेणी में रखा जाये, ऐसा कहना वाजिब तो नहीं ही होगा।

यह कहना अतिश्योक्ति ही होगी कि बिहार में सामाजिक न्याय की सरकार है, जिसका नारा है न्याय के साथ विकास। बहुत सारे पाठकों को संभवतः इसकी जानकारी न हो(जिन्हें ज्ञात है, वे कृपया मुझे क्षमा करेंगे) भारतीय संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद शब्द शुरु शुरु में नहीं था। वह तो दलितों और पिछड़ों में हुए राजनीतिक उभार का ही परिणाम रहा कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने संविधान में संशोधन कर प्रस्तावना में समाजवाद शब्द अलग से जुड़वाया। यह एक प्रकार से देश के शुद्रों की दूसरी जीत थी। दूसरी इसलिये कि पहली जीत तो बाबा साहब डा भीमराव आंबेदकर ने ही जीत ली थी। उन्होंने संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को सुनिश्चित कर दिया था। हालांकि इन्दिरा गांधी ने जिस मजबूरी के कारण शूद्रों को उनकी वाजिब जीत देने का निर्णय लिया था, संभवतः उनकी वही मजबूरी संपूर्ण क्रांति की सबसे बड़ी वजह भी साबित हुई। समाजवाद शब्द जोड़े जाने के बाद दलितों और पिछड़ों के सर्वांगीण विकास के लिये इन्दिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने ही भारतीय बजट में पहली बार स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत विभिन्न जातियों और समुदाय के लोगों के लिए उनकी संख्यात्मक भागीदारी के तर्ज पर बजटीय आवंटन करने की पहल की गई थी।

खैर, बिहार में अभीतक एससीपी का प्रावधान अभीतक नहीं किया गया है। यानि जिन दलितों के कल्याण का दावा राज्य सरकार के मुखिया आये दिन अपने भाषणों में करते हैं, दरअसल उनके लिये राज्य सरकार द्वारा कुछ भी ऐसा नहीं किया गया, जिससे उनका शैक्षणिक और आर्थिक विकास हो सके। इसका एक और प्रमाण यह कि राज्य में आरक्षण के नियमों का खुल्लमखुला उल्लंघन किया जा रहा है। राज्य के अनेक विभागों में राज्य सरकार द्वारा संविदा के आधार पर नियुक्तियां की जा रही हैं। एक तो संविदा के आधार पर नियुक्ति ही श्रमिकों के लिये अहितकर है। दूसरी समस्या यह है कि एजेंसियों द्वारा किये गये नियुक्तियों में आरक्षण का अनुपालन नहीं किया जाता है।

बहरहाल, बिहार में आरक्षण का उल्लंघन बेरोकटोक किये जा रहा है। ऐसे में वे संगठनें जो स्वयं को दलितों और पिछड़ों के क्लयाण करने के नाम पर अपना पेट चलाती हैं, वे भी खामोश रहकर राज्य सरकार द्वारा की जा रही बेईमानी का समर्थन करती नजर आ रही हैं। वैसे इनके खामोश रहने की सबसे बड़ी वजह यह कि सूबे में विपक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।

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