जीवन -म्रत्यु और बीच- बाद

रजनी भारद्वाज

जीवन -म्रत्यु और बीच- बाद

by Rajani Bhardwaj on Friday, September 23, 2011 at 11:45am
 पिछले दिनों इस बीच - बाद को जो मृत्यु और जीवन के बीच चलता है को देखा , सुना,समझा  व बहुत ही नजदीक से महसूस किया मैंने जब मेरी माँ (सास ) का 101 वर्ष की उम्र में देहावसान हो गया ! 20 साल से हम साथ रहे और जीवन के अंतिम 11 माह उन्होंने अपने गांव में परिजनों के बीच गुजारे जंहा वो 85 साल पहले ब्याह के आई थी !!
                गौरवर्णा, खूबसूरत और अच्छी सी कद - काठी की रही माँ हमेशा ! 20 सालों में उन्होंने अनेकों बार अपने जीवन के नितांत निजी अनुभवों से लेकर जीने की जिजीविषा,विकट स्थितियों से जूझने की उनकी सामर्थ्य , कम में जीवन यापन और अपने दोनों हाथों पे यकीन को बहुत ही बारीकी और बेबाकी से मेरे साथ बांटा! जीवट थी वो और अपने बूते पे जीने वाली किन्तु साथ ही वे जीवन जीने की कला में नितांत आवश्यक चातुर्य पूर्ण कौशल की भी महारथी थी, तुरंत किस्सा गढ़ देना , बिगड़ी बात को सँभालने के लिए एकदम से कुछ भी बोल कर बातों को व्यवस्थित करना, नये पुराने में तालमेल बिठाना, कहावते- किस्से -कहानियों की बेजोड़ मिसाल  देना, सामाजिक सरोकारों व परिवर्तनों पे पैनी नज़र रखना, और सबसे अहम् समय सापेक्ष स्थितियों का अवलोकन कर खुद को बदलने की अद्भुत  विकसित क्षमता !
                    पर कहते हैं न की हर जीवन का अपना एक जीवन संग्राम, अपना आगाज़ और अपना अंत होता है , विगत ५ वर्षों से वो बिस्तर पे आ गई थी ,दिखना और सुनना कम होने के साथ साथ मानसिक चेतना भी विलुप्त होने लगी थी उनकी ,रोज़मर्रा के दैनिक कार्यों में भी वे असमर्थ और अचेतन सी हो गई थी ! मुझसे कई बार कहती जब बात करती कि-- "बिन्दणी, नैन गया संसार गया , कान गया अहंकार गया !" बुढ़ापे को वो बहुत ही मार्मिकता से बयाँ करती और कहती -" बैरी बुढ़ापा तनै बेच दयूं बिन मोल , तनै लुड़-लूड़ दयूं मैं तौल, फिर भी तेरो अठे कोई न लगावे मोल !"....
                   इन सब अपने परिजनों के बीच गांव में जिस प्रकार से उन्होंने काया कष्ट सहा और जो एक सामाजिक वृति मेरे सामने प्रकट हुई वो बहुत ही असहनीय रही मेरे लिए! कुछ सवाल बिना जवाबों के लगातार मेरे ज़ेहन को मथते रहे ----- क्या वाकई एक बुजुर्ग केवल जरूरत आधारित सामान है जिसे आप कम में ना आने कि सूरत में उसकी खुद कि जिन्दगी से ही उसे बेदखल कर दें ?क्या अशक्त हो जाने पे वो परिवार का सदस्य नही रहता ? क्या उसके जीवन अनुभव कोई अर्थ नही रखते ? क्या उसकी तकलीफे कोई मायने नही रखती ? क्या उसका चेतन स्वरुप उसकी उपस्थिति परिजनों के लिए कोई अर्थ नही रखती? प्रश्न ही प्रश्न पर कोई जवाब नही किसी के पास ! ये कैसी घोर अमानवीय मानसिकता है इस बुद्धि जीवी मानव की, वास्तु और जीव का अंतर समाप्त हो गया है ज़ेहन में बस आवश्यकता आधारित कारक काम करता है दोनों के बारे में ! यूँ मनुष्यता को कैसे खो सकते हैं हम ,तुम और सब ?
                    मनुष्य को मनुष्यता से परहेज़ हो गया है, भावनाओं से हीन, मन से दीन,और कर्मों से विहीन हो गया है ! केवल उपरी चमक दमक व दिखावे से ओत प्रोत , सस्ती लोकप्रियता की गहरी प्यास लिए, परम्पराओं व रीतियों के नाम पे ढोंग का चोला ओढ़ कर स्वयम के नाम को चमक देना भर रह गया है ! नीति -अनीति , आचार विचार सब खुद की सहूलियत के प्रतिमानों के अनुसार तय करना भर रह गया है !
                     सेवा बहुत ही छोटा सा शब्द परन्तु सम्पूर्ण मानवता के सार को अपने में समेटे हुए , कहने में आसान,सुनने में आसान पर करने में जीवन के सारे अर्थ समझा जाता है ! इस शब्द की गूढता में गये बिना ही मनुष्य अपना परिवार,परिज़न,हितैषी,दुश्मन,दोस्त,पडौसी,नातेदार सब का एक लम्बा चौड़ा कुनबा बनाता है और जीता है किन्तु जीवन की संध्या बेला में वैसा ही असहाय,शक्त हीन ,और दूसरों पर निर्भर हो जाता है जैसा वो जन्म के समय था बिलकुल अपने वास्तविक स्वरूप में किन्तु ढेर सारे कर्मों से परिपूर्ण व समझ की परिपक्वता से भरा,  सही गलत की पैमाइश करता हुआ , आँखों के तराजू में सबको तौलता हुआ वो चल देता है अपनी बनाई और बसाई दुनिया से जैसे की माँ चली गई !
                   वो चली गई किन्तु कंही कोई अफ़सोस नहीं , पीड़ा नही, अपनेपन का अहसास नही बस जन्म सुधारने की जुगत! मृत्यु के साथ शुरू हुआ मृत्यु के बाद का हिसाब ! इहलोक  तो नही संभल पाए किन्तु परलोक और सामाजिक महिमा मंडन को पुष्ट करने में पूरा परिवार एकजुट होकर लग गया,खुद को सामाजिक सरोकारों, संस्कृति और परम्पराओं का पुरोधा साबित करने की कोशिश और सम्पूरण परिवेश पे पड़ने वाले प्रभावों की व्याख्या में  जुट गया !
                 जीवित माँ को एक लुगड़ी(ओढ़नी) न उढा सके पर मृत्यु शय्या पर 45लुगड़ीयां उढाई गई, उसके दो वक़्त के खाने की किसी को सुध नही थी पर 12 दिनों तक लोगों को दिए जाने वाले भोज की विस्तृत योजना पे अमल! विडम्बना देखिये जीवन व मृत्यु के बीच जो बातें गौण थी वो अचानक से महवपूर्ण हो गई सब के लिए , आत्म प्रसशा से अभिभूत पूरा परिवार! उनके नाम पे ढेर सारे लोंगो की भीड़ पर जब वो थी तो उसकी आवाज़ सुन ने वाला कोई नही !उसकी म्रत्यु न आने से परेशान सारे परिजन आज सारा सारा दिन हरी जस गा रहे है ! मन वितृष्णा से भर उठता है मानव जीवन की इस विद्रूपता पे !
                  जीवन म्रत्यु के बीच और बाद के इन सब हालातों की साक्षी मैं क्यों कह रही हूँ ये सब ? क्यों  मेरा मन इतना आकुल व्याकुल है ? क्यों मैं आप सब के साथ इस अंतर्मन की पीड़ा को बाँट रही हूँ ?क्योकि मैं चाह कर और प्रयास कर के भी इस सब को रोक नही पाई! पहली बार खुद के इस स्त्री रूप पे मुझे कमतर होने का अहसास हुआ ! पूरे परिवार के बीच अपना विरोध दर्ज कर के भी इन सब की मूक गवाह बनी रही मैं ! मैं खुद का आकलन नही कर पा रही हूँ की आखिर  मैं कंहा गलत हूँ क्यों गलत हूँ क्यों ये लोग सही को सही कहने की हिम्मत नही जुटा पा रहे है, सोच और व्यवहार में ये दोगलापन क्यों ? सोचिये, मनन  कीजिये, मंथन कीजिये, निर्णय लीजिये और मुझे इन सब का वास्तविक औचीत्य समझाइये! जीवन के लिए क्या जरूरी है और क्या नही ? मन की निष्प्राण चेतना को जगाइये ! घर में सब कहते हैं की रजनी तुम सही हो पर इस सही को कोई भी सही करना नही चाहता ! मन सवालों से भरा हुआ है , चेतना विकल है और इस सब को रोक ना पाने का कुंठित अहसास  कचोटता है ज़ेहन को !
                    मैं आप सब से विनीत अनुनय करती हूँ कृपया इस कूप मंडूकता से बाहर निकलने में एक दुसरे का साथ दीजिये , परम्पराओं के नाम पे गलत रीतियों को मत अपनाइये ,और सबसे जरूरी है मानव के प्रति मानवता का भाव , यही सच्चा जीवन सार है यही सेवा है और यही मानव धर्म है !!!
                                                                                रजनी


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