क्या धारणाएं टूटने के लिए बनती हैं? ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी. मुझे लगता है की धारणाएं फ्लेक्सिबल होनी चाहिए . बदल जाएँ इतनी लचीली हो की टूट भी जाएँ. राजनीति में सामान्यतया धारणाएं स्थापित हों जाती होंगी . जैसे मोदी कुकर तक माथे पर रख सकते हैं मगर मुस्लमान प्रतीक वाली टोपी नहीं पहनेंगे . ये एक धारणा है. जो नहीं टूटेगी . जैसे मोदी चुनाव से पहले पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजाते रहे और नवाज शरीफ को साड़ी भी भिजवाई और हवाई जहाज घुमा के सरप्राइज मीटिंग भी कर आये . पर उनकी एंटी पाकिस्तान वाली धारणा पर कोई ख़ास फरक नहीं पड़ा . {भक्तों की नज़र से } इसमें स्थायी धारणा का तत्व नज़र आता है. जैसे केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की सीधी चढ़कर राजनीति में आएं और लालू से गले मिलें तो इसमें अस्थायी धारणा का तत्व नज़र आता है . मुझे लगता है हम सब धारणाजीवी जंतु हैं. हम सब ने एक दूसरे के लिए धारणाएं बना राखी हैं. अलग अलग . और दूसरों को उसमे फिट करने की कोशिश में लगे रहते हैं. फिटिंग में अगर थोड़ी भी दिक्कत आती है तो धारणा बदलने की जरुरत महसूस होने लगती है. मुझे लगता है इसमें भी दो प्रजाति पायी जाती है एक तो वो जो फिटिंग में दिक्कत आने पर धारणा बद्द्दल लेते हैं दूसरे वो जो फिट करने में लगे रहते हैं. इधर से दाबे उधर से पचकाए ताकि धारणा कायम रह सके ...
मैं समझता हूं कि प्रत्येक धारणा की एक आयु होती है। उसके बाद उसमें परिवर्तन होने लाजिमी है।
जवाब देंहटाएं