एक कल्पना की है…
ओम सुधा कि मौत........
नैचुरली नहीं मरना चाहता मैं
मुझे मार डाला जाए
यूँ ही भागलपुर के किसी चौक पर
जब मैं काला कुरता पहने
यूँ ही हवा में मुट्ठियां लहराकर
सफ़दर का कोई गीत गाता रहूँ
ठीक उसी वक़्त मुझे मार डाला जाय
कोई उन्मादी भीड़ आये
और मुझे मार डाले
मुझे नेचुरली मरने का डर लगता है
यूँ ही
मुज़ज़फ्फ़राबाद के किसी कैंप से
लौटते हुए कोई ट्रक
कुचल दे मुझे अचानक
या फिर
किसी मिर्चपुर में
मुझे भी ज़िंदा जला दिया जाए
ऐसा भी हो सकता है कि
आदिवासियों कि किसी बस्ती में
मुझे नक्सली साहित्य के साथ
पकड़ ले सरकार
और चढ़ा दे मुझे फांसी
खामखा
ऐसे ही मरना नहीं चाहता
मुझे मार डाला जाय
क्यूँ कि मरने के बाद भी
जब कहीं भी / कभी भी / कोई भी
इंक़लाब कि आवाज़ लगाए
तनी हुयी मुट्ठियों के साथ
एक ज़िंदाबाद मेरा भी हो
इसलिए मुझे मार डाला जाय....
- डॉ ओम सुधा

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