कारण मत पूछिएगा गर मैंने हथियार उठा लिया ...गर मैं नक्सली बन गया... प्रस्तुति- डॉ ओम सुधा

कारण मत पूछिएगा गर मैंने हथियार उठा लिया ...गर मैं नक्सली बन गया...
प्रस्तुति- डॉ ओम सुधा
आदिवासी हेमंत मुर्मू का खत देश के आम अवाम के नाम...
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ की नमन सिंह सरकार ने बस्तर के आदिवासी इलाकों में तीन हजार से ज्यादा स्कूल बंद करा दिया. तर्क यह की स्कूलों में पढ़ने के लिए आने वाले बच्चों की संख्या कम थी. केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा में आदिवासियों को मिलने वाली फ़ेलोशिप रोक दी . बस्तर इलाके में एक लड़की की बलात्कार के बाद ह्त्या कर दी और उसे नक्सली बता दिया. आदिवासी सोनी सोरी की योनि में पुलिस वालों ने पत्थर ठूंसे और किसी ने उसके चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया. उड़ीसा , झारखंड और छत्तीसगढ़ समेत तमाम आदिवासी बहुल इलाकों में जल -जंगल और ज़मीन कॉर्पोरेट के हवाले किया जा रहा है . आदिवासियों को जंगल से खदेड़ा जा रहा है . उनको नक्सली कहकर या तो उनका इनकाउंटर किया जा रहा है या तो जेलों में ठूंस दिया जा रहा है ..
झारखण्ड के पलामू में रहता है आदिवासी हेमंत मुर्मू .. हेमंत मुर्मू की ज़मीन भी कॉर्पोरेट की दी जा चुकी है.. वह दर बदर की ठोकरें खा रहा है. हेमंत मुर्मू आपको यानि इस देश की अवाम को खत लिखना चाहता है ..
{इस खत में शब्द तो मेरे हैं पर मर्म और भावनाएं हेमंत मुर्मू की है }
जोहार देशवासियों..
चाहता तो मैं ये खत प्रधानमन्त्री , मुख्य्मंत्री या राजयपाल को भी लिख सकता था. पर शायद हम सत्ता का चरित्र समझ चुके हैं इसलिए ये खत अपने देश की प्यारी जनता को लिख रहा हूँ. सत्ता ने , इस तंत्र ने हमे इतना ठगा है की उनपर से बिस्वास उठ गया है हमारा . हाँ, इस देश की जनता पर हमें अब भी भरोसा है . क्यूंकि जब भी सरकार या सत्ता ने अति कर दी है जनता ही तनकर खड़ी होती है . इसलिए आपकी चेतना पर हमें यकीन हैं.
मैं पलामू के जंगलों में रहता था , जो इसी देश का एक हिस्सा है. मैं भी इसी देश का नागरिक हूँ , जैसे आप हैं. ये अलग बात है की मैं आपकी तरह गोरा नहीं हूँ , काला हूँ , मेरे बाल घुंघराले हैं, मैं आपकी तरह सूट बूट नहीं पहनता , आपकी तरह बातें नहीं कर पाता, आपकी तरह हंस नहीं पाता, गा नहीं पाता ..
पर हम हमेशा से ऐसे नही थे ।
जंगलों से उजाड़ दिए जाने से पहले हम भी हँसते थे , गाते थे झूमते थे. मृदंग की गर्जन और ढोलक की थाप पर हम भी खूब झूमते गाते थे. आपने टीवी पर देखा होगा । किसी भी सरकारी कार्यक्रम में हमसे नचवाया ,गवाया जाता है । हम सरकारी तमाशों के केंद्र में होते हैं ।हरियो, किनभर, हाल्का, कू:ढिंग, जदुर, जरगा, जदुर, लह्सूआ, जापी, जतरा हमारे लोकगीत हैं. हमारे गीत जल , जमीन और जंगल को बचाने वाले होते हैं. पर हम बचा नहीं पाये . कुछ लोग बड़ी बड़ी गाड़ियों और भौंपू लेकर आये कहने लगे हमें ये जगह खाली करनी होगी . हम यहां अवैध रूप से रह रहे हैं. वैद्य अवैद्य हम नही समझते साहब । हमारे पुरखे इन्ही जंगलों में रहे , हम यही पैदा हुए , यह जंगल ही हमारा घर है ।
उनलोगों ने हमे पैसों का लालच दिया हमे डराया . फिर सरकार बहादुर के लोग आये , हमारी झोपड़ियों को बुलडोज़र से गिरा दिया , हमारी औरतों से बलात्कार किया , हमारे भाइयों को ले गए .. कुछ को नक्सली कहकर गोली मार दी तो कुछ को जेल में बंद कर दिया है. हमें थाना पुलिस नहीं आता . हम जंगल में रहने वाले लोग हैं. कोर्ट कचहरी भी नहीं समझते . हमारी दुनिया तेंदू पत्ते , बांस की लकड़ी से शुरू होती है महुआ चुनने पर खत्म हो जाती है. अब आपलोग बताएं हम कहाँ जाएँ. सूना है देश में कहीं कोई जुल्म होता है तो आप सब इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाते हैं. हमारे साथ भी बहुत ज़ुल्म हो रहा है उड़ीसा से झारखण्ड और मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ तक. कभी हमारे लिए भी मोमबत्ती जलायेगा इंडिया गेट पर .
हमे इस बात का दुःख नहीं की आपने हमें उच्च शिक्षा में दी जाने वाली फेलोशिप बंद कर दी , हमे इस बात का भी दुःख नहीं है की सरकार बहादुर ने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल इलाके की तीन हज़ार स्कूल बंद करा दिया. वैसे भी हम पढ़ लिखकर क्या करेंगे साहब . और सरकार क्यों चाहेगी की हम पढ़ें -लिखें . कहीं हम पढ़ लिख गए तो अपने हक़ अधिकार की बात करने लगेंगे फिर सरकार बहादुर परेशान हो जायेगी , और हमे नक्सली बताकर गोली मारनी होगी या जेल में बंद करना होगा . इसलिए हमारी अपील है है की हमे मुर्ख और निरक्षर ही रहने दिया जाय .
पर हमसे हमारे जंगल ना छीने जांय . हमे जंगल में रहने दिया जाय. आखिर हम कहाँ जाएंगे हम ना आपकी तरह पढ़े लिखे हैं ना आपकी तरह हमे दुनियादारी आती है. आप सब जो मेरे इस खत को पढ़ रहे हैं आपसे आग्रह है की हमारी इस अपील को सरकार बहादुर तक पंहुचा दिया जाय. हमारे पास अपनी बात टीवी पर कहने वाल कोई प्रवक्ता भी तो नहीं है . सो , आप सब ही हमारी इस अपील को सरकार बहादुर तक पंहुचा दें.
हम ना इधर के रह गए हैं ना उधर के.. कुछ लोग आते हैं हमारे पास कार्ल मार्क्स , चे ग्वेरा , संघर्ष , बुजुर्वा , बन्दूक और लाल सलाम के नारे के साथ आते हैं.कुछ भाई उनके साथ चले जाते हैं. हम मना नहीं कर पाते , क्यूंकि हमारे पास उनके लिए बेहतर ज़िंदगी नहीं है. वो कहते हैं यूँ तिल- तिलकर मरने से अच्छा है अपने हक़ , अपने हुक़ूक़ की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुआ जाय.. मेरे पास भी आये थे. . बन्दूक नहीं उठाना चाहता . पर मैं देश के संविधान में आस्था रखता हूँ, मैं देश की जनता यानि आप पर यकीन रखता हूँ. इसलिए , आपको यह खत लिख रहा हूँ.
मैं इस बात की गारंटी भी नहीं ले सकता की मैं भी भविष्य में कभी बन्दूक नहीं उठाऊंगा .. यदि उठा लिया तो कारण मत पूछिएगा की मैंने बन्दूक क्यों उठायी , मैं नक्सली क्यों बना ..
बस...
जल , जंगल, ज़मीन से बेदखल इस देश का एक नागरिक
हेमंत मुर्मू ....
प्रस्तुति - डॉ ओम सुधा




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