अपने चारों तरफ नज़रें फिराकर देखिये। क्या कुछ राजनितिक नहीं है। हमारे रहन-सहन, हमारी दिनचर्या, हमारी दोस्ती, हमारा धर्म, हमारी जाति, रोजगार, बेरोजगारी, महगाई, गरीबी, योजनायें, अर्थव्यवस्था, हमारी सत्ता, सियासत, सरकार, पक्ष-विपक्ष, टीवी, रेडियो, चाय की नुक्कड़, बस, ट्रेन जहां तक भी आपकी नज़रें जा रही हैं उससे आगे भी बढ़कर देखिये सब जगह राजनीति शामिल है। कल्पना करिए बिना राजनीति के हमारी बात हमारी बहस में वो लज्जत रह पाएगी जो महफ़िल की जान होती है। मज़ा देखिये, राजनीति अकेले नहीं आती अपने साथ विशेषण लेकर आती है। राजनीति पर कोई विद्यार्थी ललित निबंध लिखने बैठे तो मुख्य रूप से दो तरह की राजनीति का जिक्र करना होगा। पहला अच्छी राजनीति और दुसरा गन्दी राजनीति। फिर इसका भी वर्गीकरण कई तरह से किया जा सकता है मसलन घटिया राजनीति, सस्ती राजनीति, गन्दी राजनीति। तुष्टिकरण की राजनीति। मज़ा देखिये अधिकांश प्रकार गन्दी राजनीति से जुड़े हुए हैं। राजनीति को लेकर कई मुहावरे भी प्रचलित हैं यथा “क्या राजनीति है” “यही तो राजनीति है” “राजनीति मत करो” “राजनीति में सब चलता है”
मतलब राजनीति हमारी जिंदगी के हर पहलु को प्रभावित कर रहा है। फिर बहुत से लोग क्यूँ बोलते हैं “आई हेट पोलिटिक्स” क्यूँ बातचीत के दौरान ये कहते हुए पाए जाते हैं की “प्लीज़ राजनितिक बात मत करिए” क्यूँ कुछ लोगो का फेसबुक स्टेटस होता है की “आई हेट पोलिटिक्स ”
हिन्दू कोलेज, दिल्ली विवि के प्रधायापक डॉ रतनलाल ग्राम्सी को कोट करते हुए इस मामले पर कहते हैं की “राजसत्ता ही सबकुछ नहीं होता, बौद्धिक सत्ता राजसत्ता से ज्यादा श्रेष्ठ है। “समाज का वो हिस्सा जो राजनितिक रूप से अघाया हुआ है। राजनितिक सत्ता पर काबिज है। वो भला क्यों चाहेगा कोई कोई और उस राजनितिक सत्ता का दावेदार बने। बौद्धिक सत्ता राजनितिक सत्ता को प्रेरित भी करती है और प्रेरित भी होती है। इसको समझने के लिए भारत के जाती संरचना को दिमाग में रखना होगा । भारत में सदियों से ब्राह्मणवाद ने राजसत्ता को प्रभावित किया है। यहाँ ब्राह्मणवाद बौधिक सत्ता का प्रतीक है। इतिहास के विद्यार्थी इस बात को ठीक से जानते होंगे की शिवाजी का राजतिलक महाराष्ट्र का कोई पुरोहित करने के लिए तैयार नहीं हुआ तो बनारस से एक पुरोहित को बुलाया गया जिसने अपने पैर के अंगूठे से राजतिलक किया था। मतलब बौद्धिक सत्ता हमेशा से सर्वोच्च है। वर्तमान राजनीति में तो इसके बहुतेरे उदाहरण मौजूद हैं। दलित राजनीति से निकले नेताओं को देख लीजिये, जिस ब्राह्मणवाद की मुखालफत करते हुए उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति में जगह बनायी आज उनसे ही अपने माथे पर पैर के अंगूठे से तिलक लगवा रहे हैं।
मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह बात कह सकता हूँ की जब व्यक्ति अपनी धारा {राजनितिक } को चैलेन्ज करने वाली बात सुनता है उसी समय उसको ब्रह्मज्ञान होने लगता है की आई हेट पोलिटिक्स।
पर क्या सचमुच राजनीति से घृणा की जानी चाहिए? इस मौजूं सवाल का जवाब देश की सामाजिक संरचना, उपलब्ध संशाधन और उसके वितरण के सन्दर्भ में समझनी होगी। यह भी समझना होगा की अबतक सत्ता पर कौन काबिज रहा। देश की अधिसंख्य आबादी शिक्षा से महरूम रही। एक ख़ास सामजिक समूह का तमाम संशाधनो और राजनितिक-सामाजिक सत्ता पर नियंत्रण रहा। पर, बदलते वक़्त ख़ास तौर पर आरक्षण व्यवस्था ने वंचित समूहों में भी हर स्तर पर चेतना का प्रसार किया। जाहिर तौर पर हाशिये के लोग मुख्य धारा में अपनी जगह बनाने लगे। देश की राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ।
सत्ता जिनके हाथों से धीरे धीरे खिसकना शुरू हुआ वो ऐसे में “आई हेट पोलिटिक्स” का शिगूफा लेकर बाज़ार में आ गए और इसको व्यक्तिगत शुचिता से जोड़ दिया। ये वही लोग हैं जो कहते हैं की विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रहनियो चाहिए। भगत सिंह ने अपने लेख में इसकी भरपूर मुखालफत की है और विद्यार्थियों को राजनीति करने पर जोर देते हैं। सोचियेगा कि विद्यार्थियों को राजनीती से दूर करके हम कायर नागरिक पैदा नहीं करेंगे। सोचिये अगर जाति की राजनीति न होती तो दलितों पिछड़ों का क्या होता? सोचिये की तुष्टिकरण की राजनीति न होती तो अल्संख्यकों का क्या होता?
सोचियेगा, सोचना जरुरी है क्यूंकि मुर्दा कौमें लोकतंत्र को भी मार देती हैं और मरा हुआ लोकतंत्र मरा हुआ नागरिक पैदा करती है। राजनीति से प्यार करना सीखना पड़ेगा। राजनीति से प्यार करना पड़ेगा। आई हेट पोलिटिक्स से बाहर निकलो प्यारे पोलिटिक्स बड़ी प्यारी चीज़ है, जमके करो प्यारे...
{लेखक आंबेडकर फुले युवा मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।}
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