मुझे नहीं मालूम अपनी इस ज़िन्‍दगी का क्‍या करूं

"सुनो फ़ेलीस, मुझे हफ़्ते में केवल एक ही ख़त लिखा करो ना, ताकि तुम्‍हारे ख़त मुझे इतवार को मिलें। रोज़ तुम्‍हारा एक ख़त, यह तो मेरे लिए बहुत से भी ज्‍़यादह होगा। मैं तुम्‍हारा हूं, मुझे नहीं मालूम इस बात को किसी और तरीक़े से कैसे कहूं। लेकिन ऐन यही कारण है कि मैं बिलकुल नहीं जानना चाहता कि तुमने अभी क्‍या पहना है। यह मुझे इतना असमंजस में डाल देता है कि मुझे नहीं मालूम अपनी इस ज़िन्‍दगी का क्‍या करूं। और यही वह कारण भी है कि मैं नहीं जानना चाहता कि क्‍या तुम भी मुझे इतना ही चाहती हो। यदि मुझे पता चल जाए तो मैं यहां दफ़्तर में या घर पर कैसे बैठा रह सकूंगा? सीधे दौड़कर रेलगाड़ी पर सवार ना हो जाऊंगा और अपनी आंखें नहीं मूंद लूंगा और उन्‍हें केवल तभी नहीं खोलूंगा, जब तुम मेरे सामने होंगी?"
[काफ़्का]
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(नवंबर 1912 में फ़ेलीस को लिखे एक ख़त से)

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