अब ऐसा दलित चेहरा मिलेगा कहाँ? -दिलीप मंडल

एक आधुनिक लोककथा। 

दुनिया में भारत नाम का एक देश है। वहाँ 70 और 80 के दशक में हिंदी सिनेमा की प्रगतिशीलता अचानक से जगी। वे रियलिस्टिक होना चाहते थे। वे मिट्टी से जुड़ना चाहते थे।

अब यह कैसे होगा?

मृणाल सेन, गौतम घोष, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलाणी आदि-आदि को समझ में आया कि "दलित" एक एक्जॉटिक कैटेगरी है। दुनिया को दलित दिखाते हैं। इससे पहले सत्यजीत राय ग़रीबी बेच चुके थे।

लेकिन शहरों में अपने आसपास तो उन्हें पढ़ा लिखा कोट-सूट पहनने वाला दलित नज़र आता था।

मुंबई में यही दौर था जब दलित पैंथर की तूती बोलती थी। कांशीराम साहेब बामसेफ और फिर बीएसपी बना चुके थे। पंजाब के लाखों दलित यूरोप और अमेरिका, कैनेडा जाकर वहाँ से समृद्धि लेकर लौट रहे थे।

यह उन्हें पसंद नहीं था। ऐसा दलित उनके किस काम का?

उन्हें चाहिए था लाचार, पिटा हुआ गाँव का दरिद्र दलित।

अब ऐसा दलित चेहरा मिलेगा कहाँ? यूँ तो दलित कलाकार देश भर में हज़ारों थे।

लेकिन दलित है तो सिनेमा का कलाकार कैसे हो सकता है? उसके साथ उठना बैठना कैसे हो? और फिर दलित हीरो बनेगा, तो देसी-विदेशी पुरस्कार भी ले जाएगा।

फ़िल्मकारों की कल्पना में दलित की सूरत जैसी होती है, वह ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी वग़ैरह में पूरी हुई।

ये सब प्रतिभाशाली थे। फ़िल्मों के दलित बने। अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते।

इस तरह भारतीय सिनेमा प्रगतिशील बना। ख़तम कहानी। बजाओ ताली।

अलविदा ओम पुरी साहेब। आप बेहतरीन कलाकार थे। आप जितने असली दलित दिख पाए, वह हर किसी के लिए मुमकिन नहीं।

दलित भी उतना दलित नहीं दिखते, जितना दलित ओमपुरी दिखते थे। 

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