भाजपा कितनी भी नौटंकी कर ले। देश के दलितों को अच्छे से समझ में आ गया है की कम से कम भाजपा दलितों की पार्टी नहीं है। भाजपा भी शार्ट टर्म मेमोरी लौस की तरह व्यवहार कर रही है। चलिए हम याद दिला देते हैं। सिर्फ आरक्षण के सवाल पर बिहार की जनता ने भाजपा की ऐसी तैसी कर दी थी। इस बार तो रोहित वेमूला से लेकर केरल की ज़ीशा और गुजरात से लेकर मायावती पर अभद्र टिप्पणी करना, और कभी दलितों की तुलना सूअर से तो कभी कुत्ते से करने का प्रसंग है। दलितों के बीच दलित वोटों के दलाल के रूप में सम्मानित स्थान प्राप्त कर चुके रामविलास, रामदास और उदित राज की चुप्पी ने मायावती को सबसे बड़े दलित नेत्री के रूप में स्थापित कर दिया है। मायावती की तुलना जिस अभद्र शब्द से की गई है उससे भाजपा की थू-थू हुयी है। लगता है इस वजह से भाजपा का ईगो हर्ट हो गया है। तभी तो वो गाली बकने के आरोपी दयाशंकर की पत्नी और बेटी पर दांव खेल रही है। पर मेरा मानना है की इस नौटंकी का भयंकर नुकसान भाजपा को झेलना पडेगा। क्योंकि ये भारतीय जनमानस है, ये इसे क्रिया के विपरीत प्रतिक्रया के रूप में देख रही है। वैसे भी लोकसभा में यूपी के वोटर्स ने भाजपा का साथ दिया था। पर हाल के दिनों में जिस तरह से भाजपा शाषित राज्यों में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोतरी हुयी है, उससे यूपी के दलित खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में हार का गम यूपी के दलित इस विधान सभा चुनाव में निकालना चाहेंगे। मायावती के बढे हुए कॉन्फिडेंस से भी इस बात का अनुमान लगा सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी छोड़ने के बाद राजनितिक पंडितों ने मायावती के कमजोर होने का अंदेशा जताया था। पर, जिस मजबूती से मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपनी बात रखी, उससे विरोधियों के हौंसले पस्त हुए लगते हैं। बहरहाल, हाल की घटनाओं ने जिस तरह से यूपी की राजनीति में मायावती की शानदार वापसी की है। मुझे मायावती मुख्य्मंत्री कार्यालय की सीढियां चढ़ती हुयी दिख रही है।
डॉक्टर ओम सुधा की निजी राय हैं। लेखक अंबेडकर-फूले युवा मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।
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