रीवा की बिना शीर्षक वाली कविता

रीवा की बिना शीर्षक वाली कविता 

बंगलौर की घटना से हर कोई हतप्रभ है. रीवा ने अपने आक्रोश को कविता का स्वर दिया है। 
उसके जिस्म को नोचा गया
उसके अरमानों के चिथड़े हो गये
वो बिखर गई ज़मीन पर 
जैसे बिखर जाता है जूठा भोजन
पंछियों के चुगने के लिए
या कुड़ेदान में मिल जाने के लिए।
वो उठी, खड़ी हुई, मुस्कुरायी
उसकी चीख ने बताया कि
उसे लड़ना है, जूझना है।
वो अब भी देखना चाहती है
अपने जीवन के अनगिनत वसंत
भरना चाहती है उनमें वो सात रंग
पर उसे 'इजाज़त' नहीं मिलती
वो मुस्कुराकर बद्चलन हो जाती है।
इतना होने के बाद कौन मुस्कुराता है भला?
वो ज़िंदगी से लड़ना जानती है
और लड़कर जीना भी।
वो दहाड़कर कहती है
मेरा बलात्कार हुआ है
उसे सज़ा मिलनी चाहिए।
और आप उसे 'पीड़िता' कह देते हैं।
पीड़िता कहकर आप बना देते हैं
उसके शरीर पर कुछ और निशान
आप मिटा देते हैं उसके साहस को
और जलाते हैं उसे बेबसी के कुंड में।
पीड़िताएं अब भी पड़ी हैं
अपने बंद कमरों में
उन्हें नहीं आता
दालान लांघकर चौपाल बनाना
अपने दर्द की दास्तान को
कानूनी दस्तावेजों तक पहुंचाना
उनकी कहानी अब भी
उनकी डायरी में बंद है।

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