कई दिनों से यूपी चुनाव पर लिखना चाहता था, पर कोई सिरा नहीं मिल रहा था। पर भारत की राजनीति कभी पत्रकारों को निराश नहीं करती है। भारतीय राजनीति पर लिखे जाने वाले आलेख चाय पर शुरू होकर गाय पर खत्म हो सकते हैं। बस , आप कोई सिरा पकड़ने की कोशिश तो करिये राजनीति खुद आपको जकड़ती चली जाती है। वैसे भी मौसम चुनाव का हो तो राजनीति नित नई करवट लेती है। जैसे मोदी जी के मंत्रिमंडल ने करवट ली है। मज़ा देखिये, भाजपा खुद को हमेशा जाति पाती से ऊपर विकास की राजनीति करने की बात करती रहती है। भाजपा ही क्यों लालू प्रसाद जैसे ठेठ नेताओं को छोड़ दें तो हर कोई इसका दावा करता दिखता है। वैसे, वाम दलों में भी कुछ सूत्र ढूंढे जा सकते हैं, ये दीगर है की जाति और जनेऊ के मामले में एक सिरा वाम को दाम से जोड़ देता है। बहरहाल, यूपी के चुनाव को समझने के लिए भाजपा के चुनावी फेरबदल, कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी द्वारा प्रचार अभियान की कमान संभालने, मायावती की पार्टी से महत्वपूर्ण नेताओं के पलायन, मुस्लिमों का बसपा की तरफ झुकाव , समाजवादी पार्टी के परिवारवाद और मोदी- मुलायम की बढ़ती-घटती नजदीकियों, अनुप्रिया पटेल के बढे हुए कद और स्मृति ईरानी के कम हुए कद के इर्दगिर्द बनते बिगड़ते समीकरणों के सन्दर्भ में समझना पड़ेगा।।
इसके अलावा महत्वपूर्ण सवाल यह भी है की क्या यूपी चुनाव में दलित वोटर रोहित वेमुला की आत्महत्या, मुसलमान वोटर अख़लाक़ की ह्त्या और यादव वोटर मेरठ में रामवृक्ष यादव प्रकरण से प्रभावित होगा? क्या भाजपा फिर से राम मंदिर का झुनझुना बजाएगी ?
इसके अलावा महत्वपूर्ण सवाल यह भी है की क्या यूपी चुनाव में दलित वोटर रोहित वेमुला की आत्महत्या, मुसलमान वोटर अख़लाक़ की ह्त्या और यादव वोटर मेरठ में रामवृक्ष यादव प्रकरण से प्रभावित होगा? क्या भाजपा फिर से राम मंदिर का झुनझुना बजाएगी ?
आनेवाले कुछ महीने बाद उत्तरप्रदेश के 19 करोड़, 95 लाख 81 हजार 477 मतदाता भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा की किस्मत तय करेगी। मायावती बहुत दिनों से सत्ता से दूर हैं। लोकसभा में भी मायावती को बुरी हार का सामना करना पड़ा था। ऐसे में मायावती के लिए यह चुनाव करो या मरो वाली स्थिति में है। विगत कुछ समय में रोहित वेमुला जैसे मुद्दे पर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आया है। वहीं भाजपा नेताओं के लगातार दलित विरोधी बयानों ने भी भाजपा की मिटटी पलीद की है। ऐसा नहीं की भाजपा इन वाकयों से वाकिफ नहीं है, तभी तो कभी मोदी आंबेडकर जयंती पर जय भीम का उद्घोष करते हैं तो कभी अमित साह दलित- पिछड़े के यहां मिनरल वाटर की बोतल लेकर खाना खाने पहुंच जाते हैं कभी सिंहस्थ मेले में सामूहिक स्नान का आयोजन करते हैं। पर, भाजपा को भी पता है कि ये फॉर्मूले अब पुराने हो चुके हैं। दलितों पिछड़ों के वोट के लिए भाजपा हर कार्ड खेलने के लिए तैयार है पर, मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाना आसान नहीं होगा। भले ही बहुजन समाज पार्टी के दो मतत्त्वपूर्ण नेताओं ने मायावती का साथ छोड़ दिया हो। पर, मौर्य के पार्टी छोड़ने के तुरंत बाद जिस बेबाकी से मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस में रूबरू हुईं उससे लगता नहीं है कि मायावती खुद को कमजोर दिखने देंगी। वैसे भी मायावती अपने कैडर वोटर के दम पर यूपी की सत्ता में दखल करती आई हैं। इस बार एक दिलचस्प रुझान ये भी आ रहा है कि मुसलमान वोटर मायावती की तरफ शिफ्ट हो रहा है। लोकसभा चुनाव के मुकाबले मायावती अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के साथ ज्यादा मजबूत दिख रही हैं।
भाजपा को अच्छी तरह से पता है की बिना दलित पिछड़े के वोट के वो यूपी में गद्दी नशीं नहीं हो सकते । इसलिए भाजपा अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। ताज़ा तरीन हुए केंद्रीय कैबिनेट विस्तार को यूपी चुनाव के नज़रिए से देखिएगा तो समझ में आ जायेगा की कैसे मंत्रालय के बंटवारे में जातियों को साधने की कोशिश की गयी है। तीन ब्राह्मण मंत्री, दो राजपूत, दो कुर्मी, दो निशाद समेत तमाम बदलाव और नयापन जाति को साधने की कोशिश दिखती है। राजनाथ सिंह अब भी राजपूतों का बड़ा चेहरा हैं, वहीं कलराज मिश्र और पांडे को ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश किया जा रहा है। असली कोशिश दलित-पिछड़ों को साधने की दिखती है। उमा भारती और साध्वी निरंजना निषाद जाति से आते हैं। वहीँ कृष्णा राज पासी जाति से आती हैं। अनुप्रिया पटेल का मामला सबसे दिलचस्प दीखता है। अपनी पार्टी अपना दल के विरोधाभासों से गुजर रही अनुप्रिया पटेल का इमरजेंस सबसे कमाल है ऐसा दीखता प्रतीत होता है कि भाजपा अनुप्रिया को पिछड़ा चेहरे के रूप में यूपी में प्रोजेक्ट करना चाहती हैं। इसके बहुतेरे निहितार्थ हो सकते है, मसलन स्मृति ईरानी को खामोश करना, बरुण गांधी और आदित्यनाथ जैसे वो तमाम नेता जो खुद को यूपी का भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश में थे उनपर लगाम लगाए रखना। बहरहाल, भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्या को यूपी का प्रभारी बनाकर पहले ही स्पष्ट कर दिया था की भाजपा जाति के भरोसे ही यूपी चुनाव पर दांव खेलेगी। रामलला जबतक भागवत के सपने में नहीं आते राममंदिर हाशिये पर रहेगा।
कांग्रेस अभी तक लोकसभा चुनाव की हार से उबर नहीं पायी है। राहुल गांधी अपनी कमजोर वाचन शैली, फ़र्ज़ी आक्रामकता और ढीले ढाले राजनितिक ज्ञान की वजह से जनता की नज़रों में चढ़ नहीं पाये हैं। कोंग्रेस को हार से उबरने में अभी कुछ और साल लगेंगे। वैसे नहीं कांग्रेस के पास न कोई ढंग का नेता है जिसे मुख्य्मंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा सके और ना ही ऐसी कोई इच्छाशक्ति दिखती है। हाँ, मोदी के साथ मुलायम की बढ़ती नज़दीकियों से छिटके मुस्लिम वोट और कुछ परंपरागत ब्राह्मण वोट कांग्रेस के हाथ लगते दीखते हैं। प्रशांत किशोर यूपी चुनाव में कुछ ख़ास असर छोड़ पाएंगे ऐसा लगता नहीं है। हाँ, कुछ लोग प्रियंका में इंदिरा को ढूंढते हुए जरूर कांग्रेस को वोट करेंगे।
समाजवादी पार्टी सत्ता में है और राजनीति का सामान्य सिद्धांत है कि जनता ही विपक्ष हो जाती है। कानून व्यवस्था के सवाल पर तमाम दल सपा को घेरने की कोशिश करेंगे। यूपी में लगभग 18 प्रतिशत मुसलमान वोट को सपा के जनाधार वाला वोट बैंक मान जाता था इस चुनाव में स्पा से छिटकते हुए दिख रही है। कुछ वोट मायावती की तरफ जाता हुआ दिख रहा है तो कुछ वोट कांग्रेस की तरफ। अख़लाक़ की ह्त्या के मामले को मुसलमानो का एक तबका कानून व्यवस्था का फैल्योर बता रहा है वहीं मुसलमानो का एक बड़ा हिस्सा मुलायम- मोदी की बढ़ती नज़दीकियों से दुखी चल रहा है। अमर सिंह दुबारा हाज़िर हैं। पर इस बार जोकर से अधिक उनकी पोजिशन नहीं है। हाँ, सपा का परम्परागत यादव वोट अब भी सपा के साथ ही दिख रहा है। पर, अखिलेश एकबार फिर मुख्यमंत्री आवास की सीढ़ियां चढ़ेंगे, ऐसा लगता नहीं है।
पर राजनीति संभावनाओं का खेल भी तो है। पता नहीं कब किस शहर, किस नगर, किस गली, किस डगर में हिन्दू मुस्लिम दंगा हो जाय और भाजपा लीड ले ले। हो सकता है कि यूपी का दलित सामूहिक स्नान और दलित के घर खाना खाने से अति भावुक हो गया हो और एक मुश्त वोट कर दें। सियासत है कुछ भी हो सकता है। पर, यह भी सोचना पडेगा कि यूपी में गन्ना किसान बेहाल हैं, सरकारी नौकरियों का टोटा है, उद्योग धंधे उजड़ते जा रहे हैं, कुल साक्षरता अभी भी मात्र 67 % है, जिसमे महिला शिक्षा मात्र 57।2% है। सड़कें बदहाल हैं, मोदी सरकार के आने के बाद सिंचाई परियोजनाओं की फंडिंग रोक दी गयी है, अख़लाक़ असुरक्षित हैं, क़ानून व्यवस्था बद से बदतर स्थिति में पहुंच गयी है।
क्या जाति जाति के शोर में जनता के बुनियादी सवाल खो नहीं जाएंगे ???
सोचियेगा.. आप भी...
क्या जाति जाति के शोर में जनता के बुनियादी सवाल खो नहीं जाएंगे ???
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