मेरिट नहीं बॉस अपॉर्च्युनिटी का मामला है...डॉ ओम सुधा

तस्वीर में अंजलि, सजल और बुलबुल है। भागलपुर स्टेशन पर भीख मांग रहे ये बच्चे दलित जाति से आते हैं। किसी सवर्ण के बच्चे को स्टेशन पर भीख मांगते देखा है आपने? दिखें तो बताइयेगा।सोचिये, अगर ये बच्चे आर के पुरम, दिल्ली या भागलपुर के डीएवी- डीपीएस में पढ़ रहे होते तो क्या क्या हो सकता था? सम्भव है कि ये यूपीएससी क्वालीफाई कर जाते। संभव है कि पायलट बनते या किसी मल्टीनेशनल कम्पनी के मैनेजर हो जाते। ये सब ना भी होता तो कम से कम डाक्टर या इंजिनियर तो बन ही जाते। 

इसका मतलब समझे जनाब। मेरिट कुछ नहीं होता है। अवसर ही सबकुछ है। अवसर माने चांस। चांस माने अपॉरचुनिटी। और अवसर आरक्षण से मिलता है। आरक्षण राष्ट्र निर्माण का एक टूल है। आरक्षण को ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए की जाति जनगणना जल्दी से जल्दी सार्वजानिक करके आबादी के हिसाब से आरक्षण कोटा बढाए।


आप देखिये की ना केवल सत्ता धारी भाजपा बल्कि विपक्ष भी इस मामले में किस तरह शर्मनाक चुप्पी ओढ़े हुए है। आपको शायद याद होगा की बिहार विधानसभा चुनाव के पहले किस तरह लालू प्रसाद ने जाती जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने के सवाल पर प्रखंडवार प्रदर्शन किया था। यहां तक की नितीश कुमार ने हर मंच से इस मुद्दे को उठाया था और बिहार में सत्तानशी हुए। 

पर, कुर्सी मिलने के बाद इस मुद्दे पर लालू और नितीश ने शर्मनाक चुप्पी ओढ़ राखी है। इन समाजवादियों का दलित-पिछड़ा प्रेम संदिग्ध है। भाजपा ने तो इस मामले को दबाने के लिए बाकायदा दलितों के फ़र्ज़ी नेता रामविलास पासवान को सामने रखकर कहलवाया की जाति जनगणना के आंकड़े गोपनीय हैं जिसे सार्वजनिक नहीं किया का सकता है। बाद में कुछ मीडिया चैनलों ने रामविलास की बात को झूठा साबित कर दिया तब अरुण जेटली को सामने आकर इस मामले पर सफाई देनी पड़ी थी। 

भाजपा अपनी योजनाबद्ध रणनीति को बहुत सफाई से अंजाम दे रही है। याद है, बिहार चुनाव के वक़्त इस मामले के गरमाने पर कैसे भाजपा ने मुसलमानों की जनसंख्या के आंकड़े जारी कर दिए थे? भाजपा ये बात ठीक से जानती है कि मुसलमानों से तो ठीक से निबट सकती गई पर दलितों पिछड़ों की नाराज़गी मंहगी पड़ सकती है। बिहार चुनाव इसका जीता जागता उदाहरण है। 

देश के तमाम राजनितिक दलों को जाति जनगणना सार्वजनिक करने के सवाल पर एकमत होकर ठोस पहलकदमी करने के साथ साथ आरक्षण कोटा बढ़ाने की दिशा में पहल करनी होगी। फ़र्ज़ी और अवसरवादी राजनीति के इस दौर में यह बहुत आसान तो नही है पर नामुमकिन भी नहीं दिखता। 

बिहार का विधानसभा चुनाव और उसका परिणाम सामाजिक न्याय और उसकी पूरी राजनीति को समझने में बेहतर उपाय दिखलाया है। इस चुनाव ने यह भी बतलाया है कि आरक्षण को लेकर जनता भी गोलबंद हो रही है और जनता की यही संवेदंशीलता शायद राजनिति को जाति जनगणना सार्वजनिक करने पर विवश कर दे। 

आरक्षण को लेकर ब्राह्मणवादी मिडिया की समझ जगजाहिर है। मासिक पत्रिका सबलोग के समपादक किशन कालजयी ने अपनी पत्रिका के सामाजिक न्याय और आरक्षण विशेषांक के अपने संपादकीय का शीर्षक दिया है आरक्षण राजनितिक गोलबंदी का हथियार नही बनना चाहिए। किशन जी ये राजनीति ही है कि अबतक आरक्षण मिल रहा है। इसलिए मेरे साथ नारा लगाइये वोट की राजनीति ज़िंदाबाद। 

सोचिये जब स्वघोषित प्रगतिशील संपादकों की समझ इतनी सतही है तो बाकी मीडिया का क्या हाल होगा। मैं किशन कालजयी की जाति नही जानता पर उनका आलेख पढ़कर लगता है कि ब्राह्मण होंगे। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ की आरक्षण को समझने के लिए जाति की परिधि को तोड़ना पड़ेगा। पत्रिका के इसी अंक में गांधीवादी विजय कुमार मेरिट की वकालत करते दिखते हैं। विजय कुमार भूमिहार जाति में पैदा हुए। 

वैसे आरक्षण और जाति के प्रति समझ के मामले में ना गांधी को समझने में मुश्किल होती है और ना ही गांधीवादियों को। वैसे एक और बात है कि अभी देश जब बड़े सामाजिक बदलाव से गुजर रहा है जागरूक दलित सड़कों पर है, हक़ अधिकार के लिए लड़ रहा है जीत भी रहा है और हार भी रहा रहा है पर चुप नही है लड़ रहा है। ठीक से देखने पर दिख जाता है कि यह आंबेडकर युग है। फासिस्ट उभार के इस दौर में आंबेडकर के विचारों पर चलकर संघर्ष की मजबूत नींव रखी जा रही है। गांधीवाद स्खलन पर है। गांधी को अप्रसांगिक करने में गांधीवादियों की भूमिका पर अलग से शोध करने की जरुरत लगती है। अगर, ये जल्द ही नही सुधरे तो गांधी केवल तस्वीरों में नज़र आएंगे। बहरहाल, आरक्षण समता मूलक समाज निर्माण का सबसे कारगर हथियार साबित हुआ है। जाति जनगणना के आंकड़े जितनी जल्दी प्रकाशित हो उतना बेहतर होगा।

(लेखक अंबेडकर-फूले युवा मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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