पिछले दिनों मैंने यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव का विश्लेषण करते हुए एक आलेख में लिखा था कि मुझे मायावती मुख्यमंत्री कार्यालय की सीढ़ियां चढ़ती हुई दिख रही हैं। तमाम एजेंसियों द्वारा करवाए जा रहे पोल मेरी इस बात की तस्दीक करते दिख रहे हैं। ओपिनियन पोल के नतीजों के अलावा भी अगर आप यूपी की चुनावी रैलियों में उमड़ी भीड़ को भी जीत हार का पैमाना मानते हैं तो भी मायावती सब पर भारी पड़ती दिखती हैं। मायावती की तमाम रैलियों में जिस तरह से लोगों की गोलबंदी होती है उससे मायावती के चाहने वाले ख़ासा उत्साहित दिख रहे हैं। सियासत कोई भी मोड़ ले सकती है। चुनाव संभावनाओं का खेल है पर, जिस कॉन्फिडेंस से मायावती आजकल प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिखती हैं उससे लगता है कि इस बार मायावती ही सत्तानशी होंगी।
मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। सियासत में सामाजिक इंजीनियरिंग के सफल प्रयोग के जरिए अखिलेश से पहले उन्होंने पांच साल यूपी में राज किया है। अपने विरोधियों पर वह बेहद तीखे वार करती हैं। दलित की इस बेटी को उनके विरोधी दौलत की देवी बता कर तंज कसते हैं, लेकिन इस दलित नेत्री ने अनेक दलितों और वंचितों को दोबारा पहचान दिलाई है। दलित उत्थान में योगदान करने वाले कई सामाजिक क्षत्रपों की मूर्तियां इतिहास के पन्नों से निकल कर 21वीं सदी में अगर अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं, तो यूपी में इसकी वजह मायावती ही हैं।
मायावती न तो पार्टी के बिखराव से चिंतित हैं, न दलित वोटों को लेकर। लोकसभा चुनावों का पराजयबोध भी उन्हें बहुत नहीं सताता। उनकी वास्तविक चिंता उस दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग के फेल हो जाने को लेकर है, जिसने 2007 में उन्हें बहुमत दिलाया था। वे जानती हैं कि जब तक दलितों के साथ कोई और जाति बसपा से न जुड़े, वह विजय नहीं पा सकती। फिलहाल जिस तरह से उनकी पिछली रैलियों में दलित-मुस्लिम गठबंधन जोर-शोर से देखने को मिला था उसको देखकर कहा जा सकता है कि मायावती ही इस बार मुख्यमंत्री होंगीं।
मासिक पत्रिका पार्लियामेंटेरियन की तरफ से आयोजित द मूड ऑफ यूपी सर्वे में कहा गया है कि सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को करीब 150 सीटों का नुकसान हो सकता है और इसका फायदा भाजपा और बसपा को समान रूप से मिल सकता है। सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि 403 सदस्यीय विधानसभा में बसपा के वर्तमान 80 सीटों में 89 और सीटें जुड़ सकती हैं। वहीं भाजपा की 47 सीटों में 88 सीटों का इजाफा हो सकता है। कांग्रेस को 2012 में 28 सीटें मिली थीं जिनमें 13 सीटों का नुकसान हो सकता है। राज्य विधानसभा में बहुमत के लिए 203 सीटों की जरूरत है।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जिक्र करते हुए सर्वेक्षण में कहा गया है कि 39 फीसदी मतदाताओं ने उनके प्रदर्शन को खराब या बहुत खराब बताया है जबकि 33 फीसदी ने उनके कार्य को औसत बताया है। लेकिन 28 फीसदी मतदाताओं का कहना है कि उनका काम बढिय़ा या बहुत अच्छा रहा है जिसका मतलब है कि इस मामले में सत्ता विरोधी लहर नहीं होगी। सर्वे में बताया गया है कि बसपा प्रमुख मायावती को 28 फीसदी मतदाता अगले मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं। लेकिन अखिलेश को उनके बाद 25 फीसदी मतदाता पसंद करते हैं। भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेता वरूण गांधी को 23 फीसदी जनता पसंद करती है। पत्रिका ने कहा कि पिछले महीने पश्चिमी, पूर्वी, अवध और बुंदेलखंड इलाकों में 25 हजार लोगों का सर्वेक्षण कर यह ओपिनियन पोल जारी किया गया है।
ओपिनियन पोल पर भी नज़र रखिये , चुनावी रैलियों पर भी नज़र रखिये पर मायावती के कॉन्फिडेंस को नज़रंदाज़ मत करिए। उनकी रफ़्तार को देखकर लगता है कि वो पांचवी बार मुख्यमंत्री की कुरसी पर आसीन होने के लिए तैयार है ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं, लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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