बिहार कृषि महाविद्यालय का इतिहास काफी गौरवमयी और ऐतिहासिक रहा है। ये वही कॉलेज था जिसकी इकाई कभी भारतीय चावल अनुसन्धान केंद्र, कटक हुआ करता था। वर्ष 2010 में, इसी महाविधालय की धरती पर बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर की स्थापना मुख्यमंत्री बिहार, नीतीश कुमार के द्वारा हुई। विश्वविद्यालय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य बिहार कृषि को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान दिलाना था। इसी उद्देश्य से इस विश्वविद्यालय का कुलपति डॉ. मेवालाल चौधरी (वर्तमान जदयू विधायक, जिन्हें कुछ दिन पूर्व इसी मामले में आनन-फानन में पार्टी से निष्काषित कर दिया गया) को सौंपी गयी, जो उस वक्त राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा में कुलपति के पद पर कार्यरत थे। चूंकि उनका अनुभव और कृषि के क्षेत्र में योगदान काफी सराहनीय था, बिहार सरकार और तत्कालीन कुलाधिपति, बिहार ने इस नए विश्वविद्यालय को नयी ऊचाइयों तक पहुचाने का जिम्मा सौंपा था। एक नए विश्वविद्यालय को आगे लेकर जाने में ढेर सारी चुनौतियाँ थी। इन्ही में एक बड़ी चुनौती जातिवाद की थी, जिन चुनौतियों का सामना करते हुए विश्वविद्यालय को आसमान की बुलंदियों तक पहुचाना था। जैसा कि हम अच्छी तरह जानते हैं कि बिहार जातिवाद की आग में हमेशा जलता रहा है। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है, इसका जीता-जागता उदाहरण राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा है। जहाँ एक जाति विशेष की तूती बोलती है। मेवालाल चौधरी से इसी दौरान उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती हुई और उन्होंने निदेशक योजना के पद पर एक ऐसे व्यक्ति को जगह दी जो ना ही इस विश्वविद्यालय के लायक था ना ही उस पद के योग्य। आगे जाकर इसी व्यक्ति विशेष ने इस विश्वविद्यालय को जाति की राजनीति में झोंक दिया, जिसके कारण आज पूरा विश्वविद्यालय जल रहा है।
इस विश्वविद्यालय की गरिमा सिर्फ इस बात से जानी जा सकती है की सिर्फ पांच वर्षो में विश्वविद्यालय को ICAR द्वारा मान्यता प्राप्त हो गया जबकि कुछ विश्वविद्यालयों को आज तक मान्यता नहीं मिली है। बिहार राज्य के किसान इस बात के जीते-जागते गवाह हैं, इन पांच वर्षों में उन्होंने इस विश्वविद्यालय की मदद से मशरुम उत्पादन, बकरी पालन, मछली उत्पादन, उच्च गुणवत्ता बीज के उत्पादन में काफी ज्यादा तरक्की की और बिहार राज्य में खुद को स्थापित किया। इन्हीं कृषकों और युवा वैज्ञानिकों की बदौलत इस विश्वविद्यालय ने दो राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर लिए। यहां के छात्र-छात्राएं पहले सिर्फ बैंकिंग सेक्टर में अपना भविष्य देखते थे, परंतु विश्वविद्यालय बनने के बाद उच्च शिक्षा और जेआरएफ़-एसआरएफ़ जैसी राष्ट्रीय परीक्षाओं में भी उतीर्ण हुए हैं। इसी विश्वविद्यालय में युवा वैज्ञानिकों की मदद से धान, गेहूं, मक्के, दलहन, तिलहन, साग- सब्जी आदि फसलों में उन्नत प्रभेद विकसित किया है, जिसे राष्ट्रीय संस्थाओं ने अनुमोदित किया है।
आप लोग ये जरूर जानना चाहेंगे की आखिर ऐसा क्या हुआ कि इतने कम में ख्याति प्राप्त करने वाला ये विश्वविद्यालय आज जातिगत प्रतिद्वंद्विता की आग में झुलस गया और आज निरंकुश विश्वविद्यालय बनने की राह में चल पड़ा है। जैसा की हम सब जानते हैं कि कोई भी देश कृषि विश्वविद्यालय, वैज्ञानिकों के बिना तरक्की नहीं कर सकता इसीलिए 07/ 2011 नोटिस के तहत वर्ष 2011-12 में विभिन्न संकायों में सहायक अध्यापक सह कनीय वैज्ञनिकों की नियुक्ति की प्रक्रिया आरम्भ की गयी और 282 पदों के लिए आवेदन की प्रक्रिया आरम्भ की गयी। इसके तहत देश के लगभग सभी क्षेत्रों से अभ्यर्थियों ने रूचि दिखाई और लगभग 1300 अभ्यर्थियों ने आवेदन दिया। साक्षात्कार के बाद 161 सफल अभ्यर्थियों को चयन कर लिया गया और उन्हें बिहार कृषि को नयी बुलंदियों तक पहुंचाने का मौका दिया गया।
161 कनीय वैज्ञानिकों के चयन के बाद शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोप का घिनौना खेल, जिसकी आज तक किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। साक्षात्कार में कुछ असफल अभ्यथियों ने अपनी पूरी ताकत नियुक्ति में बड़े पैमाने पर घोटाला साबित करने में झोंक दिया। बिडम्बना यही था की जिस वक्त असफल अभ्यर्थी अपनी शिकायत बड़े राजनेताओं से कर कर रहे थे, उसी वक्त नव नियुक्त कनीय वैज्ञानिक इस विश्वविद्यालय को नयी ऊचाई प्रदान कर रहे थे। डॉ. मेवालाल चौधरी ने अपने कार्यकाल में इन कनीय वैज्ञानिकों पर कभी भी आंच नहीं आने दिया, और विश्वविद्यालय स्तर से आरोपों का जवाब बखूबी दिया। उनके कार्यकाल में कनीय वैज्ञानिक सिर्फ शिक्षा, शोध और प्रसार में खुद को समर्पित कर दिया, जिसका फल था कि पांच साल में इस विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद को एक मिसाल की तरह स्थापित किया। ICAR के वर्तमान डाइरेक्टर जेनरल ने जब विश्वविद्यालय के वार्षिक अनुसन्धान परिषद् की बैठक में शिरकत किया तो उन्होंने बड़े गर्व के साथ कहा था कि यह विश्वविद्यालय बहुत कि भाग्यशाली है कि इन्हें प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों का सहयोग और साथ मिला है।
गौरतलब हो कि ये 161 वैज्ञानिक भारत के चारों कोने से आये हुए हैं, जहाँ एक ओर कश्मीर के वैज्ञानिक हैं, वहीं दूसरी ओर कन्याकुमारी के वैज्ञानिक भी हैं। राजस्थान, उत्तर पूर्व के राज्य असम और मणिपुर के वैज्ञानिक भी हैं। ऐसी विविधता किसी राज्य के विश्वविद्यालय में शायद ही देखी गई होगी। ये सभी वैज्ञानिक अपने अपने क्षेत्रों में अपनी उत्कृष्ठता साबित कर चुके हैं।
गौरतलब हो कि ये 161 वैज्ञानिक भारत के चारों कोने से आये हुए हैं, जहाँ एक ओर कश्मीर के वैज्ञानिक हैं, वहीं दूसरी ओर कन्याकुमारी के वैज्ञानिक भी हैं। राजस्थान, उत्तर पूर्व के राज्य असम और मणिपुर के वैज्ञानिक भी हैं। ऐसी विविधता किसी राज्य के विश्वविद्यालय में शायद ही देखी गई होगी। ये सभी वैज्ञानिक अपने अपने क्षेत्रों में अपनी उत्कृष्ठता साबित कर चुके हैं।
4 अगस्त 2015 को जब डॉ. मेवालाल चैधरी कार्यकाल समाप्त हुआ, उसी दिन से एक ऐसा घिनौना खेल शुरू हुआ जिसका अंदाजा आप कभी नहीं लगा सकते हैं। प्रभारी कुलपति ने अपने कार्यकाल में विश्वविद्यालय के गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजानिक कर दिया और कनीय वैज्ञनिकों को स्थानांतरण कर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। यह उन्हीं की देन है कि आज नियुक्ति प्रक्रिया से जुड़े सारे दस्तावेज ऐसे लोगों के पास है जो इसका पूर्णरूपेण दुरुपयोग कर रहे हैं। कुछ असफल अभ्यर्थियों ने एक छोटे नेता के माध्यम से झूठे अफवाह फैलाकर जीतन राम मांझी और सुशील कुमार मोदी को गुमराह किया। बगैर वास्तविकता जाने इन असफल अभ्यथियों को उनका साथ मिला और उन्होंने इसकी शिकायत राज्यपाल, बिहार को कर दिया। इसके बाद जांच समिति बनी और कई बिंदुओं पर जाँच की प्रक्रिया आरम्भ हुई। सिर्फ कनीय वैज्ञानिकों की नियुक्ति को छोड़कर सभी बिंदुओं को क्लीन चिट प्रदान कर दिया गया, चाहे वो अयोग्य डीन, डायरेक्टर या प्रोफेसर की नियुक्ति का मामला ही क्यों ना हो। ये उन युवा वैज्ञानिकों के लिए जोरदार झटका था, जिन्होंने दिन रात मेहनत करके इस विश्वविद्यालय को नई उचाईयों तक पहुंचाया। इन युवा वैज्ञानिकों को हमेशा दरकिनार किया गया और बिना पूछताछ किये हुए इनपे आरोप मढ़ दिए गए। इन आरोपों के आधार पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने इन पर कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया आरम्भ कर दी।
आज बिहार कृषि को नया आयाम देने वाले ये वैज्ञानिक अपनी नौकरी बचाने की जंग लड़ रहे हैं, परंतु इनको किसी का भी साथ नहीं मिल पा रहा है।
अगर इस मामले को बहुत ही बारीकी से देखा जाये तो आपको पता चलेगा कि ये खेल तो कुछ और ही है, जिसका भरपूर फायदा कुछ सवर्ण समुदाय के लोग उठा रहे हैं। कनीय वैज्ञानिकों को हटाने की साजिश किसी और वजह से ही रची जा रही है। ज्ञात हो कि 161 वैज्ञानिकों में से तकरीबन 77 वैज्ञानिक ऐसे हैं जो बिहार राज्य के निवासी हैं, और उनकी नियुक्ति सामान्य वर्ग के कोटे में हुई है। थोड़ा और बारीकी से देखेंगे तो पता चलेगा कि इन 161 वैज्ञानिकों में से करीब 70 फीसदी वैज्ञानिक (या उनसे भी ज्यादा) या तो अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा, अति पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इनमें से ज्यादातर भले ही दूसरे राज्यों से सम्बन्ध रखते हो, पर राष्ट्रीय पटल पर अपनी दलित, पिछड़ा या अल्पसंख्यक के तमगे को मिटा नहीं पाए हैं। और आज भी उन्हें उनकी यह हैसियत याद दिलाई जाती है। भला यह बात उन सवर्ण-सामंती ताकतों को कहाँ पसंद आएगी जिन्होंने दलित, पिछड़ों को अपने पैर की जूती और अल्पसंख्यकों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है।
अगर इस मामले को बहुत ही बारीकी से देखा जाये तो आपको पता चलेगा कि ये खेल तो कुछ और ही है, जिसका भरपूर फायदा कुछ सवर्ण समुदाय के लोग उठा रहे हैं। कनीय वैज्ञानिकों को हटाने की साजिश किसी और वजह से ही रची जा रही है। ज्ञात हो कि 161 वैज्ञानिकों में से तकरीबन 77 वैज्ञानिक ऐसे हैं जो बिहार राज्य के निवासी हैं, और उनकी नियुक्ति सामान्य वर्ग के कोटे में हुई है। थोड़ा और बारीकी से देखेंगे तो पता चलेगा कि इन 161 वैज्ञानिकों में से करीब 70 फीसदी वैज्ञानिक (या उनसे भी ज्यादा) या तो अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा, अति पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इनमें से ज्यादातर भले ही दूसरे राज्यों से सम्बन्ध रखते हो, पर राष्ट्रीय पटल पर अपनी दलित, पिछड़ा या अल्पसंख्यक के तमगे को मिटा नहीं पाए हैं। और आज भी उन्हें उनकी यह हैसियत याद दिलाई जाती है। भला यह बात उन सवर्ण-सामंती ताकतों को कहाँ पसंद आएगी जिन्होंने दलित, पिछड़ों को अपने पैर की जूती और अल्पसंख्यकों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया है।
विश्वविद्यालय का नेतृत्व बदलते ही प्रभारी कुलपति ने अपनी निजी खुन्नस और महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए एक ऐसे पेड़ का सफाया करना शुरू कर दिया जिसकी ज्यादातर डालियों पर अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा, अति पिछड़ा और अल्पसंख्यकों के नाम है।
इस जातिवाद की साजिश में उन युवा वैज्ञानिकों को भी पीसा जा रहा जो सवर्ण जातियों से हैं और उन्होंने शिक्षा और शोध के क्षेत्र में अपनी पहचान बना रखी है। उन्हें लोक-लुभावने सपने दिखा कर किनारे किया जा रहा है ताकि इन दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को आसानी से काटा जा सके। प्रभारी कुलपति के इरादों का भरपूर साथ वर्तमान विश्वविद्यालय प्रशासन ड़े रहा है। नए कुलपति के आगमन के बाद प्रभारी कुलपति को निदेशक योजना के साथ-साथ कृषि (अधिष्ठाता) जैसे महत्वपूर्ण पद पर सिर्फ इसलिए बिठाया गया ताकि इन युवा वैज्ञानिकों की जिन्दगी आसानी से बर्बाद की जा सके। यहां के वर्तमान निदेशक के तो क्या कहने, इनकी खुलेआम कारवाई करने की धमकी आज भी कई युवा वैज्ञानिकों के कानों में आज तक गूँज रही है। यह पूरा खेल आज वर्तमान कुलपति के शह पर अंजाम दिया जा रहा है, इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता। दलित, पिछड़े वर्ग के एकाध पदाधिकारी आज विश्वविद्यालय में उन सवर्णों का साथ सिर्फ इसलिए दे रहे ताकि उनकी कुर्सी बची रहे। ये लोग बिना पेंदी के उस लोटे की तरह है जो सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए और कुर्सी बचाने के लिए अपने आप को किसी भी हद तक नीचे गिरा सकते है।
आरोपों का दंश झेल रहे डॉ. अनिल कुमार एक ऐसे जीवंत उदाहरण हैं जिनकी जाति का मजाक सिर्फ इसीलिए बनाया जा रहा है क्योंकि उन्होंने सामान्य वर्ग में भी अपना आवेदन दिया था और उनकी शिक्षा उत्तराखंड से हुई है। डॉ. अनिल कुमार बिहार राज्य के सारण जिले के एक छोटे से गांव मणि सिरसिया के दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से उनकी पालन-पोषण और शिक्षा उत्तराखंड से हुई। इस दलित समुदाय के सदस्य को इतना ज्यादा उत्त्पीड़ित किया गया की इनकी माँ इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पायी और असमय इस दुनिया को छोड़ कर चली गयी। जब युवा वैज्ञानिकों ने इसका आक्रोश निदेशक प्रशासन को जताया तो सांत्वना देने के बजाय ऐसा जवाब दिया जिसे सुन आप भी हतप्रभ रह जायेंगे। उन्होंने कहा कि ‘उनकी माँ की मौत हो गई तो हो गई, चलो अच्छा हुआ।’ आज एक दलित को इतना ज्यादा उत्पीड़ित किया जाता है फिर भी वह कुछ भी नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका कोई संरक्षक नहीं है।
यही नहीं यहाँ कई ऐसे दलित और पिछड़े हैं जो अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं चाहे वो FDP की लड़ाई हो या अपने आप को बेहतर साबित करने की। संविधान ने दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को समानता का अधिकार तो दे दिया परंतु आज भी उन्हें हीन भावना से ही देखा जाता है। हमेशा से दलित और पिछड़े ही जातिवाद का शिकार होते रहे हैं, परंतु जातिवाद खत्म करने का आज तक कोई रास्ता नहीं निकल पाया है।
अगर कोई यह समझता है कि एक दलित या पिछड़ा किसी सवर्ण से उपलब्धियों में बराबरी नहीं कर सकता तो उन्हें पता हो कि अकेले डॉ. अनिल कुमार 5 महत्पूर्ण शोध परियोजनाओं को संभाल चुके हैं। उन्होंने अपने 5 साल के कार्यकाल में 6 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त किये हैं और मूंग तथा मसूर में नयी प्रजाति विकसित करने के अंतिम पड़ाव पर है। और इसी वक्त उन्हें विश्वविद्यालय से निकालने की साजिश रची जा रही है।
इतना ही नहीं दो और पिछड़े वर्ग के वैज्ञानिक, जिनके पास राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा अनुमोदित चार महत्वपूर्ण शोध परियोजना है। इनमें से ही एक वैज्ञानिक 4 शोध परियोजनाओं के साथ-साथ विश्वविद्यालय की एक महत्वपूर्ण इकाई को भी अकेले दम पर संभाले हुए हैं, जिससे बिहार के काफी किसान लाभान्वित हो रहे हैं। दूसरे वैज्ञानिक ने विदेश से पोस्ट डाक्टरल की उपाधि ली और इस विश्वविद्यालय के सबसे अच्छे और मेहनती युवा वैज्ञानिक के रूप में जाने जाते हैं। आज इन दोनों पिछड़े वर्ग के वैज्ञनिकों को उनकी लगन और मेहनत का इनाम बाहर निकालने की साजिश रचकर दिया जा रहा है। मैं आपको दावे के साथ कहना चाहूंगा कि अगर इन दोनों युवा वैज्ञानिकों के शोध पत्रों की तुलना वर्तमान में किसी भी वरिष्ठ पदाधिकारी के शोध पत्रों से की जाये तब भी ये उनसे कई मील आगे ही रहेंगे। ये दोनों वैज्ञानिक जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खुद को सिद्ध किया है, यहाँ एक जातिवाद की गन्दी राजनीति का शिकार बन चुके हैं।
ये ऊपर के तो कुछ उदाहरण है दोस्तों, आप जब गौर करेंगे तो ऐसे ढेर सारे उदाहरण और मिलेंगे। अगर आप आकड़ा देखेगे तो पता चलेगा की ये दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग 100 से भी शोध परियोजनाओं को संभाल रहे हैं। जिनमे से 20 परियोजना ऐसे हैं जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियो द्वारा अनुमोदित है। आज इन्हीं दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को जड़ से समाप्त कर अपने चहेतों और जात-बिरादरी वाले लोगो की नियुक्ति करने की साजिश रची जा रही है ताकि इन सवर्णो का वर्चस्व हमेशा के लिए बना रहे। इस बात की भनक माननीय मुख्यमंत्री और महामहिम राज्यपाल को भी नहीं है।
शायद आपको यह पहला विश्वविद्यालय मिलेगा, जहाँ के शिक्षक संघ को विश्वविद्यालय सिर्फ इस वजह से मान्यता नहीं दे रही रही है क्योंकि इस शिक्षक संघ के अध्यक्ष और सचिव महादलित समुदाय से है और उपाध्यक्ष अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। आज इन दलितों को अपने समकक्ष पाकर विश्वविद्यालय प्रशासन बेचैन हो गया है और इसे तोड़ने की भरसक कोशिश की जा रही है। आज शिक्षक संघ रोड पर या तो खुले मैदान में मीटिंग करने पर मजबूर है, क्योंकि इनके अनेको अनुरोध के बावजूद विश्विद्यालय प्रशासन एक ऑफिस देने से इंकार करता है और बातों ही बातों में यह भी बोला जाता है कि जिसकी जगह जहाँ है, वही होनी चाहिए। क्या इन दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों की जगह इन सवर्णों के पैरों में है या इन्हें भी समानता का अधिकार है।
एक सवर्ण समुदाय के कनीय वैज्ञानिक की तकरीबन 390 दिनों की छुट्टी को सिर्फ दो दिन में अनुमोदित कर दिया जाता है जबकि एक दलित और पिछड़े जाति के 180 दिनों के चिकित्सा अवकाश को अनुमोदित तो दूर, उनके फाइल पर तरह तरह के आरोप मढ़ दिए जाते हैं। क्या ऐसी व्यवस्था में आप दलितों या पिछड़ों के हक की बात कर सकते है। अगर करेंगे तो साहब आपको भी जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया जायेगा।
साहब इतना तो छोड़िये, यहाँ के युवा वैज्ञानिकों ने अपनी पीएचडी इन्क्रीमेंट के लिए कितनी ही बार वर्तमान कुलपति, अधिष्ठाता (कृषि) और निदेशक प्रशासन से गुहार लगा चुके है पर मिलता कुछ भी नहीं है। जब कोई वैज्ञानिक अकेले अपनी आवाज उठाने की कोशिश करता है तो उसे स्थानांतरण –निलंबन करने की धमकी देकर चुप करा दिया जाता है।
साहब इतना तो छोड़िये, यहाँ के युवा वैज्ञानिकों ने अपनी पीएचडी इन्क्रीमेंट के लिए कितनी ही बार वर्तमान कुलपति, अधिष्ठाता (कृषि) और निदेशक प्रशासन से गुहार लगा चुके है पर मिलता कुछ भी नहीं है। जब कोई वैज्ञानिक अकेले अपनी आवाज उठाने की कोशिश करता है तो उसे स्थानांतरण –निलंबन करने की धमकी देकर चुप करा दिया जाता है।
और तो और जब ये कृषि वैज्ञानिक अपनी जंग लड़ रहे हैं तो उन्हें विभागाध्य्क्ष (जो प्रशासन के प्रतिनिधि है) से भी धमकी मिलती है कि उनपर कारवाई की जाएगी। आप जाकर आज उन दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों से बात करे तो पता चलेगा कि विभागीय स्तर पर उनसे किस तरीके का दोहरा व्यवहार किया जाता है, पर यह कहने से भी वे डरेंगे कि कहीं उनका स्थानांतरण-निलंबन ना हो जाये।
इस विश्वविद्यालय के हालात अभी यहाँ तक पहुँच गया है कि सवर्ण विभागाध्य्क्ष भी खुद को कुलपति से कम नहीं समझते हैं। यहाँ चल रहे वाह्य शोध परियोजनाओं के पैसों से वे खुद के घर में चार- चार मजदूरों से काम करवाते हैं। अगर कोई वैज्ञानिक उनका विरोध करता है तो उनका फाइल ही रोक दिया जाता है। अगर ऐसा ही होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब गुलामी और जमींदारी प्रथा इस विश्वविद्यालय में फिर से राज करेगी। आप खुद समझ सकते हैं कि दलित, पिछड़ों या अल्पसंख्यकों के पास ना ही ज्यादा जमीन होता है ना ही ज्यादा जायदाद। ये अपनी आधी जिन्दगी एक नौकरी पाने की लालसा में बीता देते हैं और आधी जिन्दगी नौकरी की कमाई से परिवार की देखभाल करने में। आज इन्हें नौकरी से हटा दिया जाये तो ये क्या करेंगे, कहाँ जायेंगे! यह गंभीर सवाल उठ खड़ा हुआ है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
sujhawon aur shikayto ka is duniya me swagat hai