लगभग एक माह से ऊपर हुए. इस विषय पर कुछेक खबरें पढ़ी थीं. तब से यह विषय या प्रसंग, मन-मस्तिष्क और विचार से उतरा नहीं. प्रसंग है, पड़ोसी देश का. पर इन खबरों के आईने में अपनी धरती, अपना मुल्क, अतीत और वर्तमान उभरे. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण जी का कहा याद आया- ‘हम कौन थे?क्या हो गये हैं? और क्या होंगे अभी? क्या ये, नहीं याद करना चाहता. अतीत पर किसका बस है? क्या होंगे?, उभरता भविष्य और वर्तमान झिलमिलाते हैं.क्या थी खबर?चीन के श्यानामान चौराहे पर 1989 में छात्र आंदोलन हुआ था. 3-4 जून को. चीन ने टैंकों से छात्र आंदोलन कुचल दिया. तब से हर वर्ष छात्र उस दिन को याद करते हैं. चीन में इस घटना की 21वीं वर्षगांठ थी. पुलिस ने इस बार भी किसी को वहां पहुंचने नहीं दिया. आंदोलन में शरीक रहे लोगों के स्वजनों को घर कैद रखा. या उन्हें उस दिन बीजिंग से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया गया. सूजी, जिनके 22 वर्षीय पुत्र को उस दिन चीनी सेना ने गोली मार दी थी, कहा कि हमारी 24 घंटे निगरानी हो रही है. पिछले एक सप्ताह से हमें अपने घर से निकलने की इजाजत नहीं, ताकि हम अपना शोक प्रकट कर सकें.


इतना ही नहीं. चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री जाहो ज्यांग की बेटी वैंग यन्नान के घर पुलिस बैठा दी गयी थी. वैंग कभी राजनीति में सक्रिय नहीं रही. पर उनके पिता चीन में उदारवादी बयार के प्रणेता माने जाते हैं. वह 1989 में छात्रों पर टैंक चलाने के खिलाफ़ थे. तब वह प्रधानमंत्री जाहो ज्यांग, घर में कैद कर लिये गये. फ़िर 16 वर्षो तक उन्हें घर में ही कैद रखा गया.

एकांतवास. 2005 में वह चल बसे. पर टूटे नहीं. झुके नहीं. इस वर्ष उनके निर्वासन, कैद और तनहाई के क्षणों के संस्मरण छपे हैं. ‘प्रिजनर ऑफ़ द स्टेट’ (द सीक्रेट जर्नल ऑफ़ चाइनीज प्रीमियर : जाहो ज्यांग).उसी श्यानामान चौराहे पर हुए छात्र आंदोलन की इस बार भी बरसी मनायी चीन के लोगों ने. हांगकांग में भी यह आयोजन हुआ. हालांकि चीन में सख्त पाबंदी थी. सोसल नेटवर्किंग साइट, इमेल शेयरिंग वेबसाइट, ट्विटर और फ्लिकर बंद कर दिये गये थे. सरकार का सेंसर था. सीएनएन व अन्य विदेशी टीवी चैनलों पर चीन से संबंधित कोई खबर चीन में न दिखायी जाये. दो देशों के नेताओं ने इस घटना के संदर्भ में बयान दिया था. चीन सरकार ने अमेरिकी विदेश मंत्री और ताइवान के राष्ट्रपति के बयानों पर सख्त आपत्ति की. कहा, यह चीन के आंतरिक मामले में सीधा हस्तक्षेप है.पर हांगकांग में डेढ़ लाख से अधिक चीनी जुटे. सबके हाथ में जलती मोमबत्ती. मोमबत्ती का अथाह समुद्र बन गया. वहां उपस्थित लोगों ने कहा कि चीन की अंतरात्मा है, हांगकांग. 36 वर्ष की एनी चाऊ ने कहा- हांगकांग एक मात्र जगह है, जहां हम श्यानामान स्क्वायर के शहीदों को स्मरण कर पाते हैं. हमें ऐसा आयोजन हर साल करना है. बार-बार करना है, ताकि युवा पीढ़ी उस कुरबानी को न भूले. चाऊ कहती हैं, पिछले 20 वर्षो से हर साल वह इस समारोह में शरीक होती रही हैं. बिना नागा. 16 वर्ष की उम्र से. पर हांगकांग के एक युवा आज की चीन की पीड़ा बताते हैं. भौतिक समृद्धि के रास्ते, शिखर पर पहुंचता चीन. दुनिया की महाशक्ति बनता चीन. पर यह मुल्क अपनी युवा पीढ़ी को कहां झोंक चुका है? वे कहते हैं कि चीन की युवा पीढ़ी इन घटनाओं के बारे में कम जानती है. 1989 के बाद पैदा हुई और पनपी इस पीढ़ी को राजनीति से दूर रखा गया. इसके अंदर उन्मादी राष्ट्रीयता है. संपदा और भौतिक सुख अर्जन की धधकती आग है. निजी सपने व लक्ष्य हैं. समाज या देश से इस युवा चीनी पीढ़ी का सरोकार नहीं.दरअसल यह रोग चीन की नयी पीढ़ी तक ही सीमित नहीं है. भौतिक संपदा के पीछे भागते हर समाज की यह नियति है. आत्मकेंद्रित होना. आत्मसुख में डूबना. विनोवा जी ने इसे ही इंद्रियजीवी कहा था.फ़िर भी ऐसे समाज में कैसे-कैसे लोग हैं? साहस के पुंज. अपने विश्वास पर अडिग रहनेवाले. इस उपभोक्तावादी दुनिया में जब भौतिक सुख पाना ही सफ़लता का सबसे बड़ा सामाजिक पैमाना हो, तब भी अपने कनविक्शन पर लोग कैसे टिकते हैं? यह खबर ही पिछले एक माह से मन-मस्तिष्क पर छायी है. वह खबर है, क्या?वर्ष 1989 में, जब चीन में छात्र आंदोलन उत्कर्ष पर था. तब व्यूयर कैक्सी दूसरे नंबर के बड़े छात्र नेता थे.

चीन की सूची में तब 21 मोस्ट वांटेड (अति वांछित) छात्र नेता थे. उस युवा विद्रोह के नायक, जिस पर टैंक चला कर हजारों लोगों को मार डाला गया. तब कैक्सी बच निकले. अब ताइवान में हैं. जहां उनका व्यवसाय है. निवेश बैंकर हैं. साथ में राजनीतिक टीकाकार भी. अब वह 42 वर्ष के हैं. तब उनकी उम्र 22 वर्ष के आसपास थी. 20 वर्षो पहले दिल में जली विद्रोह की वह आग, आज भी कैक्सी में धधक रही है. पिछले साल जून में वह छुप कर चीन जा पहुंचे. पर मकाव अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उन्हें रोक लिया गया. फ़िर वह वापस कर दिये गये. चीन से बाहर. इस बार फ़िर वह श्यानामान चौक संहार की बरसी पर जापान स्थित चीन के दूतावास में जा घुसे. अपनी गिरफ्तारी दी. फ़िर उन्हें एक सप्ताह बाद रिहा कर दिया गया. फ़िर वह जापान नैरिटा हवाई अड्डे से बीजिंग के लिए उड़ान भरना चाहते थे. अग्रिम टिकट बुक करा रखा था. फ़िर उन्हें चीन के हवाई जहाज से उतार कर जापान में छोड़ दिया गया.इस खबर को पढ़ने के बाद से ही बार-बार यह सवाल बेचैन कर रहा है कि 42 वर्षीय कैक्सी ताइवान में सुख का जीवन जी रहे हैं. इनवेस्टमेंट बैंकर हैं. फ़िर भी वह चीन जाने को क्यों बेचैन हैं? क्यों मौत आमंत्रित करने की बेचैनी है, उनमें? चीन, जहां उन्हें बचा जीवन जेल के शिकंजों में ही गुजारना होगा या मृत्युदंड की सजा होगी. पर इस सवाल का उत्तर कैक्सी ने खुद दिया. वह बोले,1989 में छात्र नेता होना ही गौरव की बात थी. अगर मैं चीन वापस जा सका और अपने सहयात्री अध्यापक, मार्गदर्शक और अपने अच्छे मित्र लियो सियायोबो के साथ जेल के सेल में शेष जीवन गुजार सका, तो यह गौरव की बात होगी. फ़िलहाल लियो राज्यद्रोह के मामले में कठोर निर्वासन की सजा भुगत रहे हैं.

22 वर्षो से कैसे वह आग एक इंसान में धधकती रह सकती है? यह जानना, इंसान के उत्कर्ष को समझने जैसा है. वह भी इस भोग के युग में? किस तरह वह सुख का जीवन छोड़ अपने मार्गदर्शक और मित्र ली के साथ जेल काटना चाहते हैं? कैक्सी कहते हैं कि इस तरह का जीवन जीना ही मेरे लिए बड़ा सम्मान है.‘इट विल बी ए ग्रेट ऑनर फ़ॉर मी’. एक तरफ़ चीन में आज भी ऐसे नेता हैं, अपने विचारों के लिए मर मिटनेवाले? पर क्या रीढ़ है, भारत के नेताओं की? पद और कुरसी के लिए हर क्षण अपनी आत्मा गिरवी रखने को तैयार हैं. कर्म, जीवन और कनविक्शन में भारतीय नेताओं का कोई तालमेल ही नहीं.

1975-1980 तक भारत में तपे-तपाये नेताओं की पीढ़ी बची थी. जब इमरजेंसी लगी, तो अनेक लोगों ने माफ़ी मांग ली. फ़िर भी रीढ़वाले लोग थे. आज की राजनीति में अगर भारत में यह अग्नि परीक्षा हो जाये, तो कैक्सी के चरित्र के कितने लोग मिलेंगे? आज मामूली प्रतिबद्धता या वैचारिक आग्रह भी हमारे नेताओं में नहीं है. जीतते किसी दल से हैं, समर्थन किसी सरकार को देते हैं. सरकार बनाने में कहीं फ़ुदक कर चले जाते हैं. याद करिए लालू जी के जमाने में भाजपा से लेकर माले तक के विधायक अपनी मूल नाभि (दल) विचार से टूट कर सत्ता पक्ष में जा मिले.

न्यूक्लीयर डील के सवाल पर संसद में क्या दृश्य दिखा? महंगाई के प्रश्न पर पिछले दिनों लोकसभा में मतदान के समय क्या स्थिति रही? अपने भ्रष्टाचार को तोपने और ढकने के लिए जिस देश के नेता पुलिस जांच से डर कर देश की किस्मत दावं पर लगाते हों, वहां कैक्सी जैसे चीनी युवा की कल्पना करिए.चीन में एक नहीं अनेक कैक्सी जेलों में बंद हैं. 20-20 वर्षो से. अपनी मान्यता, संकल्प, प्रतिबद्धता और विचार के कारण? क्या वे जीवन नहीं भोग सकते? रातोंरात पाला बदल कर सुख और सत्ता नहीं पा सकते? पर वे नहीं करेंगे. क्योंकि इससे राष्ट्रों का चरित्र नहीं बनता. हम भारतीयों का चरित्र भिन्न है. हम रीढ़हीन कौम हैं. पैसे और पद के लिए विचार, संकल्प और अंतरात्मा गिरवी रखनेवाले. हम जयचंद, मीरजाफ़र, जगत सेठ की परंपरा, विचार और प्रभाव में पले-बढ़े लोग हैं. हमारे रक्त में खोट और दोष है. 1857 से 1947 के बीच भारतीयों की एक रीढ़वाली कौम पैदा हुई. बहादुरशाह जफ़र, झांसी की रानी, कुंवर सिंह से चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और सुभाष की आवाज. आत्मबलवाले गांधीवादियों की साहसिक परंपरा. पर अब वह सब कुछ अतीत बन रहा है. इतिहास की वस्तु. अपनी आस्था, सोच, मूल्यों और संकल्पों के लिए जीनेवाली पीढ़ी खत्मप्राय है. विरोध की राजनीति करना, सम्मान की बात नहीं रही. आत्मा की सौदेबाजी कर या गिरवी रख सत्ता पाना उपलब्धि है. दलाल बनना गौरव की बात है. शॉर्टकट सफ़लता आज फ़ैशन में है.क्यों हैं हम ऐसे? शायद डॉ राममनोहर लोहिया ने इस पर गहराई से विचार किया था. उनका लंबा निबंध है. ‘निराशा के कत्तर्व्य’. इसमें उन्होंने भारतीयों के संकल्पहीन होने, विचारहीन होने और रीढ़हीन होने पर गौर किया है. पढ़िए उनके विचार युक्त निबंध के कुछ अंश:-पिछले 1,500 बरस में हिंदुस्तान की जनता ने एक बार भी किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ़ विद्रोह नहीं किया. यह कोई मामूली चीज नहीं है. इस पर लोगों ने कम ध्यान दिया है. कोई विदेशी हमलावर आये, उस वक्त यहां का देसी राज्य मुकाबला करे, वह बात भी अलग है. एक जो राजा अंदरूनी बन चुका है, देश का बन चुका है, लेकिन जालिम है, उसके खिलाफ़ जनता का विद्रोह नहीं हुआ यानी ऐसा विद्रोह जिसमें हजारों, लाखों हिस्सा लेते हैं, बगावत करते हैं. कानून तोड़ते हैं, इमारतें वगैरह को तोड़ते हैं या उन पर कब्जा करते हैं, जालिम को गिरफ्तार करते हैं, फ़ांसी पर लटका देते हैं. ये बातें पिछले 1,500 बरस में हिंदुस्तान में नहीं हुईं.

मुझको ऐसा लगता है कि अपने देश में क्रांति, असंभव शब्द मैं इस्तेमाल नहीं करूंगा, प्राय: असंभव हो गयी है. लोग आधे-मुर्दा हैं, भूखे और रोगी हैं, लेकिन संतुष्ट भी हैं. संसार के और देशों में गरीबी के साथ-साथ असंतोष है और दिल में जलन. यहां थोड़ी-बहुत जलन इधर-उधर हो तो हो, लेकिन कोई खास मात्रा में जलन या असंतोष नहीं है.०हिंदुस्तान में सचमुच दिलजला आदमी पाना मुश्किल है, जैसा कि यूरोप में होता है. यूरोप में तो आदमी अकड़ जाता है. अंदरूनी जुल्म के खिलाफ़ उस तरह का अकड़ा हुआ आदमी यहां पाना मुश्किल है. मैं इस बात को फ़िर दोहरा देना चाहता हूं कि बाहरी जुल्म के खिलाफ़ तो हमारे यहां भी उखड़े हुए आदमी रहे हैं, लेकिन अंदरूनी जुल्म के खिलाफ़ नहीं. किसी एक उपन्यासकार का मैंने एक वाक्य पढ़ा है. वैसे यह सही है कि उपन्यासकार विद्वान नहीं हुआ करते या जरूरी नहीं कि वे विद्वान हों, लेकिन कभी-कभी वे बिना ज्ञान के या विद्या की चीजों को पकड़ लेते हैं. उसने कहा हिंदुस्तान में तो क्रांति असंभव है, क्योंकि और जगहों पर जहां क्रांति होती है, वहां गैरबराबरी सापेक्ष होती है, यानी बिल्कुल संपूर्ण गैरबराबरी नहीं होती, और जिस देश में बिल्कुल बराबरी हो जाये या संपूर्ण गैरबराबरी हो जाये, तो वहां इंकलाब नहीं होगा. जिस देश में गैरबराबरी की खाई बिल्कुल गहरी हो जाये, दिमागों में घर कर ले, समाज के गठन में भी हो जाये, प्राय: संपूर्ण गैरबराबरी, तो वहां की जनता क्रांति के लिए बिल्कुल नाकाबिल हो जाती है.०अजीब हालत है कि जिसको क्रांति चाहिए, उसके अंदर शक्ति है ही नहीं और वह शायद सचेत होकर उसकी चाह रखता ही नहीं है, और जिसमें क्रांति कर लेने की शक्ति है, उसको क्रांति चाहिए नहीं या तबीयत नहीं है. मोटे तौर पर राष्ट्रीय निराशा की यह बात है. साथ में छोटी-छोटी और बातें भी हैं कि हिंदुस्तानी झूठा होता है. समय का खयाल नहीं रखता. बकवासी हो गया है. मेहनत करना नहीं जानता, आलसी हो गया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस वक्त हिंदुस्तान, हमलोग, दुनिया में सबसे झूठे, सबसे आलसी और सबसे निकम्मे हो गये हैं.०डॉ लोहिया ने 1962 में यह भाषण दिया था. लगभग 50 वर्ष पहले. वह युवाओं के बीच बोले थे. तब उन्होंने चेताया था- वह ‘जोखिम’ क्रांतिकारी कर्म और तरह-तरह की गैर-बराबरी के विरूद्ध खड़े होने का युग बीत गया है. अब वह युग आ गया है कि जो कुछ मिल गया है, उसे बैठ कर भोगो. सब मिला कर ऐसा लगता है कि यह भोग का युग चल रहा है.ऐसा क्यों हुआ? इस पर भी लोहिया ने टिप्पणी की और कहा- कांग्रेसी सरकार इस बात में सफ़ल हो गयी कि उसने इस भोग युग में लड़कों का ध्यान सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तरफ़ इस खूबी से बढ़ा दिया कि बुद्धिवाले या दिमागी कार्यक्रम, विचार और सिद्धांतों के कार्यक्रम ओझल हो गये. पिछड़ गये. सांस्कृतिक कार्यक्रम, नाच-गाना, संगीत वगैरह बड़ी अच्छी चीज है. बशर्ते कि वह नंबर दो पर हो. पहले नंबर पर दिमागी बहस, सिद्धांत, विचारों की उथल-पुथल, उधेड़बुन यह सब होना चाहिए. लेकिन विद्यार्थियों का दिमाग इस चीज से हटाया गया है. भोग की भूख में पागल राजनीति में स्वाभिमान या आत्मसम्मान के लिए जगह नहीं है. क्या हुआ भोपाल गैस प्रकरण के मामले में? इस मुल्क में साहस के साथ कोई सच बोलने को तैयार नहीं. जहां 15 हजार से अधिक लोग घुट-घुट कर मरे. वहां मूल दोषी एंडरसन को राजकीय संरक्षण में पूरी सुरक्षा के साथ कैसे बाहर पहुंचाया गया? इस पर इन बयानों पर गौर करिए:-

1. जब बड़ी सत्ता मौजूद होती है. यानी प्रधानमंत्री. स्वाभाविक रूप से उन्होंने अंतिम निर्णय लिया होगा. इस पर सहमति प्रधानमंत्री की होगी : पीसी एलेक्जेंडर, तब प्रिंसिपल सेक्रेटरी ऑफ़ प्राइम मिनिस्टर. -harivansh

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