सईद नकवी
1. यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें निर्णय के बाद दोनों पक्षों से आनेवाली प्रतिक्रियाओं को समझा जाना चाहिए.
2. मैं लखनऊ में पला-बढ़ा, लेकिन जब तक मंदिर के ताले नहीं तोड़े गये, तब तक मैंने बाबरी मसजिद का नाम भी नहीं सुना था.
3.अब समय आ गया है कि सांप्रदायिक राजनीति को ध्वस्त करने के तरीकों के बारे में सोचना शुरू हो.
अयोध्या निर्णय के बारे में किसी जल्दीबाजी में टिप्पणी करना उसी तरह है जैसे कि लैंब की कहानियां पढ़कर शेक्सपियर के बारे में टिप्पणी करने लगना. बहुत तेज पढ़ने वालों को भी न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति सिबकत उल्लाह खान द्वारा लिखे गये क्रमश:10000, 4000, और 260 पृष्ठ के निर्णयों को पढ़ने में कई दिन या हफ्ते लग सकते हैं. लखनऊ में 15 सितंबर के आस-पास से यह आभास दिया जाने लगा था कि निर्णय मुसलमानों के पक्ष में जाने वाला है.
15 सितंबर को न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा, जो कि कट्टर रामभक्त हैं ने 24 सितंबर को सुनाये जाने वाले निर्णय को आगे बढ़ा देने की मांग करती हुई एक याचिका स्वीकार कर ली, ताकि दोनों पक्ष अदालत के बाहर किसी समाधान तक पहुंच सकें. उन्होंने अन्य दो न्यायधीशों से मशविरा किये बिना यह याचिका स्वीकार की. अंतत: मामला सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच के सामने पहुंचा. दोनों जजों में इस बात पर असहमति थी कि क्या कोई समझौता संभव है.
दशकों ही नहीं शताब्दियों से जिस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं हो सका था अचानक उस मुद्दे पर समझौते की संभावनाओं की दुहाई देने को इस रूप में देखा गया कि ऐसा चाहने वाले लोग विभिन्न कारणों से इस मामले पर निर्णय को लंबे समय के लिए टाल देना चाहते हैं. निर्णय को टालने के पक्ष में एक ही व्यक्ति थे- न्यायमूर्ति शर्मा, जो कि पूरी तरह रामभक्त हैं. वे न्यायमूर्तियों की पीठ में थे इसलिए उन्हें एकदम ठीक-ठीक पता था कि निर्णय किसके पक्ष में है. तब वे निर्णय को क्यों टालना चाहते थे? इसीलिए यह मान लिया गया था कि निर्णय हिंदुओं के पक्ष में नहीं जा रहा होगा.
लेकिन जिस तरह का निर्णय हुआ, उससे बहुत से भोले-भाले लोगों को यह समझ में आया कि निर्णय टाल दिया जाना मुसलमानों के पक्ष में होता.यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें निर्णय के बाद दोनों पक्षों से आने वाली प्रतिक्रियाओं को समझा जाना चाहिए. हिंदुओं को लग रहा था कि फ़ैसला उनके खिलाफ़ होने वाला है, उन्हें फ़ैसले से बहुत राहत मससूस हो रही है.
राहत के इसी एहसास ने उनमें विजय का भाव पैदा किया है. जबकि जीत की उम्मीद लगाये मुसलमान निराश हुए हैं. काफ़ी हद तक यह संभव है कि इस समुदाय में यह अफ़वाह फ़ैल गयी हो कि फ़ैसले उनके पक्ष में आने वाला है. फ़ैसले के पहले जिस तरह का विश्वास इस पक्ष के नेताओं में दिखा था उसके चलते इस कयास से इनकार भी नहीं किया जा सकता.
यदि न्यायमूर्ति शर्मा निर्णय टालने में सफ़ल हो जाते तो इस पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया अत्यंत विडंबनापूर्ण होती. तब उन्होंने कहा होता कि उच्च न्यायालय ने उनके साथ न्याय नहीं किया है. अदालत के निर्णय पर आश्चर्य लगातार व्यक्त किया जा रहा है. लेकिन वक्त ऐसे घावों को सबसे बेहतर तरीके से भरता रहा है. काफ़ी सतर्कता बरतने के बावजूद मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर हाइप खड़ी की गयी थी, लेकिन आम लोगों में कोई उन्माद नहीं था.
मीडिया की भूमिका को इस मसले का हल आने के पहले भी कई बार सवालों में खड़ा किया गया. लेकिन जिस दिन फ़ैसला आना था उस दिन जिस तरह की आक्रामकता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिखा रहा था वास्तव में उससे बचने की जरूरत है. दूसरा सवाल है अदालत के निर्णय को लेकर. इससे भी बौद्धिक समुदाय में यह बहस खड़ी हो गयी है कि फ़ैसले को आस्था से जोड़कर देखा जाये या साक्ष्यों की उपलब्धता से.
इससे पहले कि नेतृत्वविहीन मुसलिम समुदाय इस निर्णय के बारे में विचार कर पाता सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के वकील जफ़रयाब जिलानी ने घोषित कर दिया कि मुकदमा आगे भी जारी रहेगा और वे इस फ़ैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे. लगभग 15000 पृष्ठों के कानूनी भाषा में लिखे इस फ़ैसले को इतनी जल्दी न सिर्फ पढ़ लेने, बल्कि उसका कानूनी जवाब सोच लेने के लिए जिलानी को विश्वस्तरीय पुरस्कार मिलना चाहिए.
आखिर इतनी जल्दीबाजी की क्या जरूरत थी जब अदालत का निर्णय ही दोनों पक्षों को तीन महीने का समय दे रहा है ताकि वे निर्णय को पढ़ सकें, समझ सकें और चाहें, तो स्वीकार करें या आगे की अदालत में अपील करें. इतनी जल्दबाजी इस डर को दिखाती है कि कहीं ऐसा न हो कि मुसलिम समुदाय के भीतर से ही कहीं ज्यादा सही रुख उभर कर सामने न आ जाये. 94 साल की मेरी मां जो रायबरेली के मुस्तफ़ाबाद गांव में रहतीं हैं की प्रतिक्रिया है कि‘सांप मरे न लाठी टूटे’.
दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदू-मुसलिम तनाव का सांप है. पुरानी कहावतों को ठीक-ठीक समझना बहुत आसान भी है लाठी हिंदू-मुसलिम एकता की है. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के कानूनी सेल के संयोजक यूसुफ़ मुछला का मानना है कि तीनों निर्णय‘‘तथ्यों, सिद्धांतों और पौराणिक कथाओं के मिश्रण हैं.’’ यह समावेशी प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन गिलानी की तरह ही यह प्रतिक्रिया भी निर्णय को बिना पढ़े दी गयी है.
न्यायमूर्तियों ने जिन आधारों पर निर्णय दिया है उन तर्को से गुजरे बिना ही ये प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं लखनऊ में पला-बढ़ा लेकिन जब तक मंदिर के ताले नहीं तोड़े गये, तब तक मैंने बाबरी मसजिद का नाम भी नहीं सुना था. उसके बाद की कहानी तो दोनों तरफ़ से सांप्रदायिक उन्माद की कहानी ही रही है.
अयोध्या सांप्रदायिक राजनीति की घानी भी है और हिंदुओं के विश्वास का भी मामला है. यही इस मामले की जटिलता है. जबकि दूसरी तरफ़ बाबरी मसजिद मुसलमानों की आहत भावनाओं का मामला है. यह घाव पर जमी पपड़ी की तरह है. जहां भी मुसलमान काबा की तरफ़ मुंह कर ले वही उसकी मसजिद है. इस सवाल पर कम से कम एक महीने तक सोचिये. सांप्रदायिक राजनीति को ध्वस्त करने के तरीकों के बारे में सोचिये.
अगर मुसलिम समुदाय अपने आप को पिछड़ी सोच के नेताओं से मुक्त नहीं करता है तो यह बाबरी मसजिद, शाहबानो, विश्वविद्यालयों के मुसलिम चरित्र, सलमान रुश्दी और भ्रष्ट वक्फ़ बोर्ड को पकड़े बैठा रहेगा,जबकि देश और पूरी दुनिया एकदम अलग रास्ते पर आगे बढ़ चुकी होगी. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
15 सितंबर को न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा, जो कि कट्टर रामभक्त हैं ने 24 सितंबर को सुनाये जाने वाले निर्णय को आगे बढ़ा देने की मांग करती हुई एक याचिका स्वीकार कर ली, ताकि दोनों पक्ष अदालत के बाहर किसी समाधान तक पहुंच सकें. उन्होंने अन्य दो न्यायधीशों से मशविरा किये बिना यह याचिका स्वीकार की. अंतत: मामला सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच के सामने पहुंचा. दोनों जजों में इस बात पर असहमति थी कि क्या कोई समझौता संभव है.
दशकों ही नहीं शताब्दियों से जिस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं हो सका था अचानक उस मुद्दे पर समझौते की संभावनाओं की दुहाई देने को इस रूप में देखा गया कि ऐसा चाहने वाले लोग विभिन्न कारणों से इस मामले पर निर्णय को लंबे समय के लिए टाल देना चाहते हैं. निर्णय को टालने के पक्ष में एक ही व्यक्ति थे- न्यायमूर्ति शर्मा, जो कि पूरी तरह रामभक्त हैं. वे न्यायमूर्तियों की पीठ में थे इसलिए उन्हें एकदम ठीक-ठीक पता था कि निर्णय किसके पक्ष में है. तब वे निर्णय को क्यों टालना चाहते थे? इसीलिए यह मान लिया गया था कि निर्णय हिंदुओं के पक्ष में नहीं जा रहा होगा.
लेकिन जिस तरह का निर्णय हुआ, उससे बहुत से भोले-भाले लोगों को यह समझ में आया कि निर्णय टाल दिया जाना मुसलमानों के पक्ष में होता.यही वह पृष्ठभूमि है, जिसमें निर्णय के बाद दोनों पक्षों से आने वाली प्रतिक्रियाओं को समझा जाना चाहिए. हिंदुओं को लग रहा था कि फ़ैसला उनके खिलाफ़ होने वाला है, उन्हें फ़ैसले से बहुत राहत मससूस हो रही है.
राहत के इसी एहसास ने उनमें विजय का भाव पैदा किया है. जबकि जीत की उम्मीद लगाये मुसलमान निराश हुए हैं. काफ़ी हद तक यह संभव है कि इस समुदाय में यह अफ़वाह फ़ैल गयी हो कि फ़ैसले उनके पक्ष में आने वाला है. फ़ैसले के पहले जिस तरह का विश्वास इस पक्ष के नेताओं में दिखा था उसके चलते इस कयास से इनकार भी नहीं किया जा सकता.
यदि न्यायमूर्ति शर्मा निर्णय टालने में सफ़ल हो जाते तो इस पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया अत्यंत विडंबनापूर्ण होती. तब उन्होंने कहा होता कि उच्च न्यायालय ने उनके साथ न्याय नहीं किया है. अदालत के निर्णय पर आश्चर्य लगातार व्यक्त किया जा रहा है. लेकिन वक्त ऐसे घावों को सबसे बेहतर तरीके से भरता रहा है. काफ़ी सतर्कता बरतने के बावजूद मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर हाइप खड़ी की गयी थी, लेकिन आम लोगों में कोई उन्माद नहीं था.
मीडिया की भूमिका को इस मसले का हल आने के पहले भी कई बार सवालों में खड़ा किया गया. लेकिन जिस दिन फ़ैसला आना था उस दिन जिस तरह की आक्रामकता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दिखा रहा था वास्तव में उससे बचने की जरूरत है. दूसरा सवाल है अदालत के निर्णय को लेकर. इससे भी बौद्धिक समुदाय में यह बहस खड़ी हो गयी है कि फ़ैसले को आस्था से जोड़कर देखा जाये या साक्ष्यों की उपलब्धता से.
इससे पहले कि नेतृत्वविहीन मुसलिम समुदाय इस निर्णय के बारे में विचार कर पाता सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के वकील जफ़रयाब जिलानी ने घोषित कर दिया कि मुकदमा आगे भी जारी रहेगा और वे इस फ़ैसले के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे. लगभग 15000 पृष्ठों के कानूनी भाषा में लिखे इस फ़ैसले को इतनी जल्दी न सिर्फ पढ़ लेने, बल्कि उसका कानूनी जवाब सोच लेने के लिए जिलानी को विश्वस्तरीय पुरस्कार मिलना चाहिए.
आखिर इतनी जल्दीबाजी की क्या जरूरत थी जब अदालत का निर्णय ही दोनों पक्षों को तीन महीने का समय दे रहा है ताकि वे निर्णय को पढ़ सकें, समझ सकें और चाहें, तो स्वीकार करें या आगे की अदालत में अपील करें. इतनी जल्दबाजी इस डर को दिखाती है कि कहीं ऐसा न हो कि मुसलिम समुदाय के भीतर से ही कहीं ज्यादा सही रुख उभर कर सामने न आ जाये. 94 साल की मेरी मां जो रायबरेली के मुस्तफ़ाबाद गांव में रहतीं हैं की प्रतिक्रिया है कि‘सांप मरे न लाठी टूटे’.
दूसरे शब्दों में कहें तो यह हिंदू-मुसलिम तनाव का सांप है. पुरानी कहावतों को ठीक-ठीक समझना बहुत आसान भी है लाठी हिंदू-मुसलिम एकता की है. सुन्नी वक्फ़ बोर्ड के कानूनी सेल के संयोजक यूसुफ़ मुछला का मानना है कि तीनों निर्णय‘‘तथ्यों, सिद्धांतों और पौराणिक कथाओं के मिश्रण हैं.’’ यह समावेशी प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन गिलानी की तरह ही यह प्रतिक्रिया भी निर्णय को बिना पढ़े दी गयी है.
न्यायमूर्तियों ने जिन आधारों पर निर्णय दिया है उन तर्को से गुजरे बिना ही ये प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.जहां तक मेरा सवाल है, तो मैं लखनऊ में पला-बढ़ा लेकिन जब तक मंदिर के ताले नहीं तोड़े गये, तब तक मैंने बाबरी मसजिद का नाम भी नहीं सुना था. उसके बाद की कहानी तो दोनों तरफ़ से सांप्रदायिक उन्माद की कहानी ही रही है.
अयोध्या सांप्रदायिक राजनीति की घानी भी है और हिंदुओं के विश्वास का भी मामला है. यही इस मामले की जटिलता है. जबकि दूसरी तरफ़ बाबरी मसजिद मुसलमानों की आहत भावनाओं का मामला है. यह घाव पर जमी पपड़ी की तरह है. जहां भी मुसलमान काबा की तरफ़ मुंह कर ले वही उसकी मसजिद है. इस सवाल पर कम से कम एक महीने तक सोचिये. सांप्रदायिक राजनीति को ध्वस्त करने के तरीकों के बारे में सोचिये.
अगर मुसलिम समुदाय अपने आप को पिछड़ी सोच के नेताओं से मुक्त नहीं करता है तो यह बाबरी मसजिद, शाहबानो, विश्वविद्यालयों के मुसलिम चरित्र, सलमान रुश्दी और भ्रष्ट वक्फ़ बोर्ड को पकड़े बैठा रहेगा,जबकि देश और पूरी दुनिया एकदम अलग रास्ते पर आगे बढ़ चुकी होगी. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार- प्रभात खबर
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