आज जेपी होते, तो मौजूदा हालात पर क्या करते-कहते?

                 आज जेपी होते,
        तो मौजूदा हालात पर क्या करते-कहते?
हरिवंश 


यह कयास ही लगाया जा सकता है. लोहिया (कल जिनकी पुण्यतिथि है) ने दधीचि बन आहुति दीतो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं. पहली बार नौ राज्यों में. बिहार में भी. इधर सरकार बन रही थी. उधर लोहिया जी दक्षिण भारत में छुट्टी मनाने गये. उनकी रुचि नहीं थी कि सरकार गठन की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करें. मनपसंद लोगों को गद्दी दिलाएं. तब बिहार सरकार के बड़े गैर कांग्रेसी नेताओं ने भूपेंद्र नारायण मंडल से बार-बार आग्रह कियाआप मंत्री बन जायें. पर वह राजी नहीं हुए. वह अत्यंत त्यागी और तपस्वी समाजवादी माने गये. उनका तर्क थामैं राज्यसभा सदस्य हूं. मैं  कैसे राज्य में भी मंत्री बनूंयह लोहिया जी की नीतियों के खिलाफ है. अंतत लोगों ने बीपी मंडल को तैयार किया. और बिहार में मंत्री बना दिया.

बीपी मंडल जी लोकसभा के सांसद थे. बीपी मंडल
जब दिल्ली गयेतो लोहिया जी ने संदेश भिजवायाइस्तीफा दे दो. जहांजिस काम (लोकसभा) के लिए जीते होवह करो. वह छह महीने मंत्री रहे. वह चाहते थे कि उन्हें एमएलसी बना दिया जाये. लोहिया जी सहमत नहीं हुए. उन्हें जाना पड़ा. सरकार भी गिरी. 33 विधायकों ने मिल कर शोषित दल बना लिया. इसी तरह केरल में थानु पिल्लई  की अपनी सरकार की लोहिया जी ने बलि दी. सिद्धांत के आधार पर. वहां गोलीकांड हुआ था. लोहिया मानते थे कि दल के सिद्धांतों के अनुप ही दल के सदस्यों को चलना चाहिए.

ऐसे अनेक प्रसंग हैं. ये तथ्य जब आज के लोहियावादियों को आप याद दिलायेंगे
तो वे नहीं मानेंगे. उनके कर्मवचन व जीवन में अब बड़ा फासला है. अन्य दलों की तरह.

इसी तरह
आज जेपी आंदोलन से निकले नेता देश व बिहार का भविष्य गढ़ रहे हैं.

पर
क्या उन्हें आज जेपी या जेपी की बुनियादी बातें (जिन्हें लेकर आंदोलन हुआजिसकी लहर पर आसीन होकर ये सत्ताढ़ हुए) स्मरण हैं?

मसलन
जिस जेपी ने भ्रष्टाचार से बेचैन और उद्विग्न होकर 74 के आंदोलन की रहनुमाई की,उस भ्रष्टाचार मुद्दे पर उनके चेले क्या सोचते हैंक्या करते हैंयह उनके लिए मुद्दा है भी या नहींइसी तरह उन्होंने जाति तोड़ो अभियान चलाया. जनेऊ तोड़ो का आह्वान किया. क्या आज उनके शिष्य उसी रास्ते पर हैंया जाति की राजनीति को और मजबूत प दे रहे हैं?लोहिया के लिए वंशवाद अभिशाप था. देश के लिए. राजनीति के लिए. इसलिए वे नेह परिवार के खिलाफ अधिक तल्ख रहेआजीवन.

क्योंकि उस व नेह परिवार ही राजनीति में वंशवाद का प्रतीक था. जेपी भी शालीन तरीके से राजनीति में इस बढ़ते परिवारवाद-वंशवाद के खिलाफ थे. आज दोनों होते
तो खासतौर से बिहार के हालात देख कर क्या कहतेया करतेदोनों के कर्मउनके अपने सिद्धांतों के अनुप रहे. इसलिए इन मुद्दों पर इनकी राय जाहिर है. वे फ़िर बगावत और बदलाव के रास्ते चलते. जिन्हें गढ़ाबनाया उनके फ़िसलन देख कर जेपी-लोहिया अपने ही गढ़ेबनाये और विकसित किये गये लोगों के खिलाफ़ खड़े होते. यह दोनों के जीवन और सिद्धांतों का निष्कर्ष है.

आज बिहार में किस हद तक यह बेशर्मी पहुंच गयी है
राजनीति को नेताओं ने निजी जागीर समझ ली है. राजनीति में यह नये किस्म का जातिवाद है. पुराने राजाओंसामंतों और जमींदारों की तरह राजनीति में वंश के आधार पर उभर रहे नये युवराजोंराजाओंसामंतों व जमींदारों का नया वर्ग. जैसे राजाओंसामंतों व जागीरदारों में अलग-अलग जातियोंसमूहों के लोग थे. पर उनका वर्गहित एक था. उनके स्वार्थ एक थे. इसलिए वे एकजुट रहे. यही हाल बिहार की राजनीति में दिखायी दे रहा है. पार्टियां या तो परिवारों की लिस्टेड कंपनियां हैंया बड़े नेताओं के डिक्टेट मानने को मजबूर. मांझी के एक देहाती किसान कहते हैं. हालत यह है कि बाप कहींमेहरारू कहींबेटा कहीं. सब सांसद या विधायक बनना चाहते हैं.

अब बिहार के इन चुनावों में मतदाताओं को भी अपना एक वर्ग बनाना चाहिए. जाति
धर्म,क्षेत्रसंप्रदाय से ऊपर उठ कर. जब लोकसभा में तनखाह व सुविधा बढ़ाने के लिए सब एकजुट हो सकते हैंतो जनता क्यों नहीं एकजुट होअपने हालात बेहतर करने के लिए. हर बिहारी इन चुनावों में दल और नेताओं को तीन-चार मापदंडों पर परखे. पहलापर्सनल इंटीग्रिटी और परिवारवाद. कोई नेता अपनी पार्टी को निजी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाता है या वह दलों के कार्यकर्ताओं को भी महत्व देता हैवह अपनी पूरी राजनीति अपने बेटेभाई-बंधुसाला-समधीपत्नी या रिश्तेदारों के लिए तो नहीं कर रहा?

भविष्य में लोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा बननेवाला है. हर पार्टी के जो बड़े नेता हैं
वे ओर्थक प से भी अत्यंत सबल व ताकतवर हो गये हैं. चुनाव पैसों का खेल हो गया है. साफ है कि जो राजनेता अपने-अपने दलों के सूरमा हैंवोट बटो हैंआलाकमान हैंजो संपत्तिवान हो गये हैंअगर वे अपने बेटेबेटियों या पत्नी या स्वजन को टिकट दे-दिला कर उनका भविष्य सुरक्षित करते हैंतो राजनीति में कॉमनमैन के लिए दरवाजे बंद होंगे. सत्ता उनके हाथधन उनके पास. कोई मर्यादासंकोच या मूल्य नहीं. अंगरेजी में यह डेडली कंबीनेशन (मारक गुट) कहलाता है.

यह राजनीति में उभरता नया वर्ग है. जेपी ने बहुत पहले चुनाव सुधार का अभियान चलाया
,क्योंकि वह मानते थे कि चुनाव लगातार महंगे और सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर जा रहे हैं. यही बात अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है. एक सामान्य कार्यकर्ताचाहे वह कितना ही ईमानदारत्यागी या तपस्वी होअब शायद ही राजनीति में शीर्ष तक जाये. धन-बल के अभाव में.

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की बात जेपी 
60 के दशक में करते थे. उस व संथानम कमेटी बनी,केंद्र सरकार की पहल पर. चुनाव और भ्रष्टाचार वगैरह पर अंकुश लगाने के लिए. पर कुछ नहीं हुआ. अंतत राजनीतिज्ञों की कथनीकरनी से निराश जेपी ने जीवन के अंत में बड़ा बिगुल फूंका. भ्रष्टाचार के खिलाफ बदलाव का आवाहन. संपूर्ण क्रांति की बात. कहां हैं ये चीजें आजउनके चेलों के जीवन या राजनीति मेंया उन दलों में जो उनका नाम भजते हैं?

पटना में सात अक्‍टूबर को एक कार्यक्रम हुआ. विजयकृष्ण शामिल हुए राजद में. वहां पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह भी थे. उनका बयान आया. साइकिल वितरण योजना को बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित किया जा रहा है. पर यह योजना गांवों में इज्जत पर चोट पहुंचा रही है. इस सरकार का नाश तय है.

राजद और जदयू के बीच सत्ता संघर्ष है. इसलिए दोनों के आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह हैं. चुनावी जंग में सब जायज है. साइकिल योजना सही है या गलत है
यह बहस का विषय हो सकता है. परइस योजना से गांवों की इज्जत पर चोट पहुंच रही है, (अगर यह बयान सही है)तो यह विस्मयकारी बयान है. इसका संकेत लड़कियों को साइकिल देने से है. लड़कियों के स्कूल जाने से है. घरों से निकलने से है.       

राजनीति या समाज में औरतों की सार्वजनिक साङोदारी पर लोहिया या जेपी के क्या विचार थे
यह याद करने की जरत नहीं. लोहिया तो पूरी औरत जात को ही एक अत्यंत उपेक्षित,पीड़ितशोषित व पिछड़ा वर्ग मानते थे. चाहे वह ऊंची जाति की हो या पिछड़ी जाति की.       

कुछ दिनों पहले
नालंदा के एक सजग मतदाता मिले. उन्होंने पहले अपना नाम बतायाफलां यादव. बोले-नीतीश राज्य में सड़कें अच्छी बनी हैं. स्कूल-कॉलेज बन गये. विकास के काम हो रहे हैं. चौकस सुरक्षा है. वह सरकार के कामों के प्रशंसक हैंयह खासतौर पर उल्लेख करते हैं. तब अपनी असली बात बताते हैं. वह साइकिल योजना से सख्त नाराज हैं. उनका कहना है कि गांवों की लड़कियां बहक (उनके ही लब्ज) गयी हैं. क्राइम की घटनाएं इसी कारण बढ़ी हैं. इसलिए वह सरकार के कामों से खुश रहने के बाद भीसरकार के पक्ष में वोट नहीं देंगे.

प्रभुनाथ जी के बयान को पढ़ कर कुछ दिनों पहले नालंदा के उ मतदाता की यह बात भी याद आयी.

ये बयान क्या बताते हैं
आज भी बिहार का मानस कहां खड़ा हैयह एटीट्यूडअप्रोच या ओपिनियन किसी एक या दो में होऐसा नहीं है. यह संकेत है कि कैसी थिंकिंग आज भी बिहारी समाज में है यह हर जातिधर्म व क्षेत्र में मिलेगी. क्या इस रास्ते बिहार एक आधुनिक राज्य बनेगाबहस इस पर हो. चुनाव में घर-घर तक यह बहस पहुंचे.

याद आया
, 1972 में एनसीसी कैडेट था. ऑल इंडिया एनसीसी कैडेट प्रशिक्षण के लिए चयन हुआ. पहली बार हमने बेंगलुरु देखा. बनारस के बाद पहला कोई बड़ा महानगर या शहर. उस शहर की 1972 की वह बात भूलती नहीं.
तब वहां लड़कियां स्कूटर चलाती थीं. हमलोग शहर घूमने गये. हम उत्तर भारत या खासतौर से हिंदी राज्यों के छात्रों के लिए यह अजूबा था. कल्चरल शॉक. हम एक ठेठ देहाती और सामंती परिवेश से गये थे. भले ही हमारे यहां शहर रहे होंपर कमोबेश औरतों के बारे में या लड़कियों के बारे में हमारा मानस यही था. हम उन्हें परदे में देखने के आदी थे. चहारदीवारी में कैद. बेजुबान. बेंगलुरु देखने के पहले छपराबलिया और आरा देख चुका था. पटना,बनारस या इलाहाबाद भी. कहीं एक लड़की स्कूटर की सवारी करते नहीं पाया था.
आज क्यों बेंगलुरु सबसे विकसित शहरों में से एक हैक्योंकि उस समाज ने बहुत पहले औरतों को साङोदारी देने की पहल की. परदा तोड़ा. शिक्षा से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में बराबर का दरजा. आज बेंगलुरु कहां हैऔर कहां खड़ा है पटना या पुराना पाटलिपुत्र?पाटलिपुत्र इतिहास का गौरव है. पर वह अतीत बन चुका है. अतीत की समृद्धि के बावजूद देश के ही नक्शे में कहां खड़ा है बिहार या पटनाआज बेंगलुरुअमेरिका के सिलिकन वैली के बाद पूरब का सिलिकन वैली कहा जाता है. सिलिकन वैली क्या है?
कैलिफोर्निया के उस इलाके में जाकर देखने से अहसास हुआ. कैसे एक जगह ने पूरी दुनिया का भविष्य बदल दियाटेक्नोलॉजी में नित नये इनोवेशन या खोज. वे खोज जो दुनिया का भविष्य तय कर रही हैं. सूचना क्रांति का असर आज गांव-गांव तक है. टेक्नोलॉजी ही दुनिया का भविष्य तय कर रही है. ठेठ और गंवार भाषा में कहेंतो सिलिकन वैली उस टेक्नोलॉजी (जो दुनिया का भविष्य तय कर रही है) की राजधानी है. दुनिया में मान लिया गया है कि पूर्वी महाद्वीप की सिलिकन वैली बेंगलुरु है. सिर्फ ऐशया की ही नहीं.

बेंगलुरु को दुनिया में यह स्टेटस मिला. उसके कई कारण हैं. पर एक महत्वपूर्ण और निर्णायक कारण है
औरतों का आगे आना. आधी आबादी को खुली हवा में सांस लेने का अवसर न देकर आप कैसे विकास कर सकते हैंआगे बढ़ सकते हैंआधा शरीर सुन्न रहे,तो आप स्वस्थ कैसे रह सकते हैंबेंगलुरु का महत्व जानना होतो कुछेक वर्षो पहले प्रकाशित थॉमस फ्रीडमैन की विश्व प्रसिद्ध व चर्चित पुस्तक पढ़ेंद वर्ल्ड इज फ्लैटइसके अलावा सामाजिक प्रगति सूचकांक में या मानव विकास सूचकांक में कहां खड़े हैं बिहार और कर्नाटक.
यह 21वीं सदी की दुनिया नयी है. अब पुराने मानक कारगर नहीं. क्लासिकल अर्थशास्त्र मानता था कि उत्पादन के पांच महत्वपूर्ण कारक हैं- लैंडलेबरकैपिटल वगैरह. इनसे ही संपत्ति का सृजन (कैपिटल फ़ार्मेशन) होता है. अब ये मानक टूट गये हैं. यह नॉलेज एरा है. इस एरा का महत्व समझिएएक उदाहरण से. पहले तयशुदा था कि राजा का लड़का राजा,जमींदार का लड़का जमींदारइसी तरह उद्योगपति का बेटा उद्योगपति. भले ही वह अयोग्य व नाकाबिल होपर इस नॉलेज एरा ने इस अघोषित पुष्ट परंपरा को ध्वस्त किया है. एक पीढ़ी में ही नारायण मूर्ति या अजीम प्रेमजी दुनिया के बड़े उद्योगपतियों में शुमार होते हैं.

उनके बाप-दादे या पुरखे उद्योगपति नहीं थे. मामूली परिवार. पैसे कम होने के कारण नारायण मूर्ति आइआइटी में पढ़ाई नहीं कर सके. पर आज दुनिया में इन लोगों की क्या हैसियत और रुतबा है
कैसे हैएक प्रमुख वजह है. अपनी नॉलेज संपदा का इस्तेमाल इन्होंने इस नॉलेज एरा में किया. अत्यंत ईमानदारी और मूल्यों के साथ जीनेवाले ये लोग हैं. इस तरह नयी टेक्नोलॉजी ने अनेक मामूली लोगों को करोड़पतिअरबपति बना दिया है. ईमानदार तरीके से. घूस और भ्रष्टाचार के बल उनकी हैसियत नहीं बनी.
परिवर्तन की यह हवा बिहार या हिंदी इलाकों तक क्यों नहीं पहुंचीक्यों भविष्य तय करनेवाली राजनीति या चुनाव में ऐसे प्रसंग या सवाल नहीं उठ रहेकम-से-कम जनता तो ये सवाल उठाये. हर दल से पूछेहर विधायक से जो वोट मांगने आयेयह सवाल करे कि हमारा राज्य देश का सबसे पीछे का राज्य क्यों बन गयाक्यों हमारे यहां नयी टेक्नोलॉजी का विकास नहीं हुआहम दक्षिण के राज्यों से क्यों पीछे हुएक्यों हमारे यहां के छात्र अन्य राज्यों में पढ़ने के लिए और अपमानित होने के लिए अभिशप्त हैंफ़िर पूछे कि इस राज्य को शीर्ष पर पहुंचाने के लिए क्या ब्लूप्रिंट है आपके पासइसके बाद वोट बहुत सोच-समझ कर दें.
इस चुनाव में बहस का विषय हो कि हमारे नेताओं का मानस बदलेगा या नहींअगर,औरतों समेत हर निर्णायक सवाल पर पुराने तौर-तरीके से हम सोचेंगेतो कहां पहुंचेंगे?जनता यह पूछेनहीं पूछेगीतो फिर वह ठगी जायेगी. छली जायेगी. देहात में लोग कहते हैं,अब पछताये होत क्याजब चिड़िया चुग गयी खेत. एक बार वोट लेकर जब नेता व दल फुर्र हो जायेंगेतब मतदाताओं के हाथ क्या होगा.
{लेखक देश के जानेमाने पत्रकार हैं }
साभार-प्रभात खबर 

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