लाहौर का ऐतिहासिक मुकदमा और अयोध्या {जाहिलों को कमी नहीं जो आज भी धर्म को राष्ट्र से ऊपर मानते हैं}



इस देश में ऐसे जाहिलों को कमी नहीं जो आज भी धर्म को राष्ट्र से ऊपर मानते हैं, किसी के लिए मंदिर जरुरी है तो किसी के लिए मस्जिद....ऐसे लोग राष्ट्र की अश्मिता से खेलने से कभी बाज नहीं आते ...परिणाम गोद्झ्रा कांड या बाबरी मस्जिद....मुझे आजतक ये समझ में नहीं आया की इस दुनिया में ऐसा कौन सा धर्म है जो भीषण नरसंहार की इजाजत देता है? यदि नहीं देता तो धर्म के नाम पर यह वैमनस्यता क्यों? और यदि इसकी इजाजत कोई धर्म देता है तो कुरे में फेको ऐसे धर्म को....इन सन्दर्भों में  मधुलिमये  1992में लाहौर के गुरुद्वारा शहीदगंज के विवाद के निपटारे का उदाहरण देते हुए अयोध्या मामले पर बहुत ही सटीक टिप्पणी की थी. उनका यह आलेख आज भी प्रासंगिक है.
आज के प्रभात खबर में छपी मधुल्मिये का यह आलेख महत्वपूर्ण है...
हम संविधान से शासित होते हैन कि शरीअतमनुस्मृति या न्यू टेस्टामेंट से. शरीअत का कानून एक सीमित क्षेत्र में लागू हो सकता है  और वह भी संविधान के प्रावधानों के अधीन. यह तर्क कि विधायिका कुछ क्षेत्रों में काम नहीं कर सकती है,  अज्ञान पर आधारित है. विधायिका द्वारा पास किया गया कानून संविधान के अधीन होता हैन कि मौलवीमहंतों के फतवों के अधीन.

इस मूलभूत सच्चाई के संबंध में किसी के मन में भ्रम नहीं होना चाहिए . विश्व हिंदू परिषद् को भी उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना करने की इजाजत नहीं दी  जा सकती है. पी.वी नरसिंह राव ने ठीक ही किया कि अपनी समझाने-बुझाने की क्षमता का उपयोग कर विश्व हिंदू परिषद् को विवेक से काम लेने के लिए तैयार किया. आगे भी सरकार को समझाने-बुझाने 
,बात-चीत समझौता का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए. किसी भी समस्या का हल करने के लिए धमकी और बल प्रयोग से बात शुरु नहीं कि जा सकती.

इस तरह की समस्याओं को हल करने का ठीक तरीका धार्मिक तर्क देना नहीं है. जिन देशों में कानून का शासन होता है
वे न्यायिक  प्रक्रिया का सभ्य तरीका अपनाते है. हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में,  जो सन् 1947 तक उसी संविधान के अंतर्गत था जिसके  अंतर्गत हमअयोध्या विवाद की तरह ही एक विस्फोटक विवाद अदालतों के माध्यम से हल हुआ था यह गुद्वारा शहीदगंज विवाद के नाम से माना जाता है लाहौर के गुद्वारा शहीदगंज मसजिद सन् 1722 में बनी  और खुदा को समर्पित की गई थी.

प्रतिवादियों के अनुसार यह मसजिद और उसके आस-पास का क्षेत्र बाद में हजारों सिखों  की शहादत का स्थल बना
जो लाहौर के मुसलिम शासकों क धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हुए थे. इस इमारत में तीन गुंबद और पांच मेहराब थे.  काफी टूट- फूट के बावजूद  इसका मूल़ ढांचा बना रहा. सन् 1762 में भंगी मिसिल के सिखों ने लाहौर पर कब्जा हो गया. सन् 1799 में रणजीत सिंह ने उत्तर-पश्चिम भरत पर अपना शासन स्थापित किया और यह सिख राज्य सन्1849 तक चला जब लाहौर के सिख राज्य को ब्रिटिश भारत में मिला दिया गया.

सन्
1762 में भंगी मिसिल के सरहदों ने लाहौर पर कब्जा करने के बाद उसके एक हिस्से में शहीद भाई ता सिंह की स्मृति में गुद्वारा शहीदगंज भाई ता सिंह की स्थापना की. उसके बाद मसजिद सिखों के कब्जे में रही. सन् 1762 में मसजिद के कब्जे को लेकर गुद्वारा प्रबंधकों ने उस इमारत  को अपनी संपत्ति मान कर उसका उपयोग किया. एक गुंबद  में उन्होंने गु ग्रंथ साहब को सन् 1883 तक रखा बाद में इमारत के जर्जर हो जाने  के कारण उन्हें गुरु ग्रंथ साहब को वहां से हटाना पड़ा. सिखों ने कई साल तक इस इमारत में किरायेदार भी रखे और उनके उपयोग के लिए छत पर शौचालय भी बनाया.

ब्रिटिश शासन की स्थापना के कुछ समय बाद मसजिद के प्रथम मुतवल्ली शेख दीन मुहम्मद के उत्तराधिकारी नूर अहमद ने मसजिद और उससे जुड़ी कुछ जमीन का कब्जा लेने की कोशिश की. उसने इसके लिए कई याचिकाएं दायर कीं और एक दीवानी केस भी किया
जो कोर्ट ऑफ जुडीशियल कमीशन के स्तर पर लड़ा गया. लेकिन उसका दावा मंजूर नहीं हुआ,क्योंकि यह पाया गया कि पास के गुद्वारे के प्रभारी सिख महंतो का इस संपत्ति पर 20 साल से अधिक समय तक प्रतिकूल कब्जा रहा है.

पीरशाद माम के एक व्यक्ति  ने मुसलमानों की तरफ से पंजाब  के लेफ्टिनेंट-गवर्नर को अर्जी दी कि मसजिद मुसलमानों को लौटाई जाए. अतिरिक्त सहायक कमिश्नर सैयद आलम शाह के माध्यम से एक बार जांच की गई
लेकिन  उनकी रिपोर्ट पर विचार करने के बाद लेफ्टिनेंट- गवर्नर ने हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया.
सन्  
1925 में सिख गुरुद्वारा कानून(पंजाब अधिनियम 8,1925) पारित हुआ यह जानने के लिए कि सिखों के पूजा स्थल कहां-कहां है और उनके पास कितनी संपत्ति है तथा इन  गुरुद्वारों का प्रबंध कुछ समितियों (या अन्य संस्थानों को) सौंपने के लिए 22 दिसंबर, 1927 को सरकारी विज्ञप्ति जारी की गई जिसके अनुसार पुरानी मसजिद की इमारत और उससे लगी भूमि को सिखगुद्वारा शहीदगंज भाई ता सिंह  संपत्ति शामिल किया गया. इस  संपत्ति पर अधिकार के17 दावे विभिन्न व्ययिों ने किए थे.

जिसमें से एक दावा
, 8 मार्च 1928 का महंत हरनाम सिंह और अन्यों का थाजिसमें कहा गया कि इस संपत्ति पर उनका निजी स्वामित्व था और यह उस संस्था(गुद्वारे) की संपत्ति नहीं थी,जिसके वे प्रमुख थे. एक और दावा, 16 मार्च 1928 कापंजाब की अुजंमन इस्लामिया ने मुसलमानों  की तरफ से पेश किया जिसमें कहा गया कि यह भूमि और संपत्ति मसजिद को समर्पित थी और गुद्वारे की नहीं है.दोनों दावे सिख गुद्वारा पंचाट ने नमंजूर कर दिये.

पंचाट ने कहा
संपत्ति पर महंत का कब्जा गुद्वारे के कारण था और अंजुमन का दावा संपत्ति के प्रतिकूल कब्जे और पिछले फैसलों के कारण खारिज हो जाता है  दूसरे निर्णय के खिलाफ अंजुमन ने कोई अपील दायर नहीं की लेकिन पहले फैसले के खिलाफ महंतो ने अपील की जो 19 अक्तूबर 1934 को हाई कोर्ट ने खारीज  कर दी .इसके परिनामस्वप संपति और इमारत को प्रतिवादियों को सौंप दिया गया.
जुलाई 1934 की रात को इमारत अचानक गिरा दी गई. यह काम सिख अभिरक्षियों द्वारा या उनकी मौन सहमति से सांप्रदायिक  द्वेष के अंतर्गत हुआ. इसके बाद दंगे और अव्यवस्था का दौर रहा और मुसलमानों ने इस पर बहुत असंतोष व्यक्त किया. जन आंदोलन हुआ और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुई.

मुहम्मद अली जिन्ना ने मध्यस्थ के प में काम किया. सिविल नाफरमानी का आंदोलन बंद कर दिया गया और गिरफ्तार लोगों को रिहा किया गया. जिन्ना ने सिखों से एक सम्मानजनक समझौता करने की कोशिश  की. उन्होंने मुसलमानों से अपील की कि  वे संवैधानिक तरीके अपनाएं. 
30 अक्तूबर, 1935 को एक नया केस दायर किया गया. सुनवाई करने वाली अदालत ने केस को खारिज कर दिया और इस बात की पुष्टि की कि यह जगह सिखों के कब्जे में थी और मुसलमानों का इस पर कोई हक नहीं है.

जिला न्यायाधीश ने मुकदमे को खारिज  करते हुए अपने निष्कर्षो का सार इस प्रकार प्रस्तुत किया( 
1) मसजिद शहीदगंज एक विधिगत व्यक्ित है जो निकट मित्र मौलाना मोहम्मद की मारफत मुकदमा कर सकता है.(2) घोषणा के लिए मुकदमा नियमानुसार हैलेकिन(3)मुकदमा काल बाधित है(4)गुद्वारा अधिनियम के अंतर्गत की गई विज्ञप्ति धोखे या छल से जारी नहीं हुई.

5) मुकदमे का विषय इसकी मूल संपत्ति अर्थात वह मसजिद थीजिसे 1722 में नमाज के लिए समर्पित किया गयालेकिन (6)सन् 1962 के आस पास सिखों के पास इसका कब्जा जाने लेकर मुसलिम पूजा स्थल के प में इस्तेमाल नहीं हुआ है.(7) वादी का मुकदमा काल सीमा के भीतर नहीं है(8) प्रतिवादियों ने महंतों सेजिनके पास संपत्ति का कब्जा 1762 से 1934  तक रहा इस संपत्ति के प्रतिकूल कब्जे का अधिकार प्राप्त किया है.

(
9)  वादी राहत के हकदार नहीं हैजिसका दावा उन्होंने किया है. जिला न्यायाधीश के फैसले से मुसलमान संतुष्ट नहीं हुए,यद्यपि जज ने उनकी इच्छानुसार धर्म के विशेषज्ञों को गवाह के प में बुलाने की सहमति जतायी थी. मुसलमानों ने हाई कोर्ट में अपील की. लाहौर हाई कोर्ट के पूरे बेंच ने अपील की सुनवाई की. हाई कोर्ट  ने कहा मुसलमानों के वैयकि कानून में पंजाब लॉज एक्ट और लिमिटेशन एक्ट ने संशोधन किया है.

हर मुकदमा लिमिटेशन एक्ट के अधीन होता है और यह धार्मिक तथा धर्मेतर दोनों प्रकार की संपत्ति पर बिना भेद-भाव के लागू होता है. चूंकि लिमिटेशन एक्ट में वक्फ जायदाद से संबंधित मुकदमों को कानून से छूट देने का कोई प्रावधान नहीं है 
अत मसजिद मुकदमे को लिमिटेशन एक्ट द्वारा निर्धारित सीमाकारी नियमों के अधीन माना जाना चाहिए. समर्पित संपत्ति पर प्रतिकूल कब्जे का दावा करने वाले व्य िका अधिकार मुसलमान कानून या हिंदू कानून पर आधारित नहीं है, बल्कि ब्रिटिश भारत में लागू लिमिटेशन और प्रिस्क्रिप्शन नियमों पर आधारित है.

और वैयकि  कानून लिमिटेशन के कानूनों से संशोधित हुए है
तो ब्रिटिश भारत की अदालतों के आगे उस कानून को लागू करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है. अत मसजिद पर प्रतिकूल कब्जा हो सकता हैहाई कोर्ट के पूर्ण पीठ ने कहा कि विधिगत व्य िअन्य वादियों की तरह सीमाकारी कानून के अधीन है.

इस कानून के अंतर्गत चूंकि सिखों का मसजिद पर लंबे समय से प्रतिकूल कब्जा है मुसलमानों के सब अधिकार समाप्त हो जाता है और सिखों का मुसलमानों को उस अधिकार से वंचित करना कोई अपराध माना जा सकता है
सतत अपराध तो यह है ही नहीं. चूंकि मसजिद पर लंबे समय से सिखों का कब्जा रहा है और मुसलमानों ने उस पर सारे अधिकार खो दिये हैं,सिखों द्वारा मसजिद का गिराना कोई अन्याय नहीं हैजिसके कारण मुसलमानों द्वारा मुकदमा चलाना उचित नहीं ठहरता है.

यहां जस्टिस दीन मुहम्मद के असहमत निर्णय का लंबा सारांश देना आवश्यक नहीं है. ब्रिटिश भारत में लागू कानूनों और विधि सिद्धांतों का प्रयोग करने के बजाय उन्होंने मुसलिम धर्मशास्त्रियों के मत का सहारा लिया और कहा कि शरीअत कानून मुसलमानों के धर्मस्थलों पर लागू होता है.

जस्टिस दीन मुहम्मद ने कहा कि वादियों ने विभिन्न विचार प्रणालियों का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक मुसलिम धर्मशास्त्रियों के विचारों का अध्ययन किया
जिन्होंने एक स्वर में कहा कि जो स्थान एक बार मसजिद के रूप में पवित्र घोषित हो जाये वह हमेशा मसजिद ही रहेगी और उसका स्वरूप तब भी नहीं बदलेगा जब इसे उजाड़ छोड़ दिया जाय या वह खंडहर में तब्दील हो जाय या धरती पर से उसका निशान मिट जाय.

उन्होंने यह भी कहा है कि जैसे ही कोई इमारत खुदा को समर्पित की जाती है अर्थात मसजिद बनती है
वह खुदा की संपत्ति हो जाती हैमनुष्यों को उस पर सारे संपत्ति अधिकार समाप्त हो जाते हैं. उन्होंने यहां तक कहा है कि दृश्य ढांचा ही मसजिद नहीं होताजमीन के सबस नीचे दबे बिंदु से लेकर आसमान में सबसे ऊंचे बिंदु तक जो कुछ भी हैसब मसजिद होता है और और अनंत काल तक वह मसजिद ही रहता है.

इसलिए न तो उसे अलग किया जा सकता है
न टुकड़ों में बांटा जा सकता हैन उत्तराधिकार में लिया-दिया जा सकता है. इसे मानव निवास के रूप में कभी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और  अगर इमारत गिर जाये तो उसके मलबे ओद का उपयोग अन्य कामों में नहीं लिया जा सकता है और बेचा भी नहीं जा सकता. ये विचार कुरान पर पैगंबर की परंपरा हदीस पर और मुसलिम विधिवेत्ताओं के मानक ग्रंथों पर आधारित है.

मौलाना मुफ्ती मोहम्मद किफायतुल्ला
जो अखिल भारतीय जमायत उल उलेमा के अध्यक्ष हैं,ने प्रस्तुत किये हैं जिसमें वह सभी प्रामाणिक सामग्री है पर उनका साक्ष्य आधारित है. जज दीन मोहम्मदन्न्ो इंगलैंड के हल्सबरी कानूनों के संग्रह का भी हवाला दिया और कहा कि इंगलैंड में गिरजों की भी प्रतिष्ठा के बाद वही स्थिति होती है जो इस्लामी कानून के अंतर्गत मसजिदों की होती हैलेकिन उन्हें यह मानना पड़ा कि इंगलैंड में संसद का कानून धर्म को धार्मिक पवित्रता से अलग कर सकता है.

उन्होंने कहा कि इस्लामी कानून के अंतर्गत यह अधिकार किसी व्यक्ति को
भले ही वह राज्य का शासक होऔर किसी संस्था कोभले ही वह कानून बनाने वाली संस्था होनहीं दिया गया है. इसके अतिरिक्त मसजिद इस्लामी कानून के अंतर्गत असाधारण सम्मान की हैसियत प्राप्त है और उसे वास्तविक रूप में खुदा का घर माना जाता है. यह दावा ऐसे देश मेंजहां शरीअत सर्वोच्च कानून नहीं हैबेसिर पैर की बात है.

यह अनर्गल बात है कि बाबरी मसजिद कमेटी के कुछ नेता आज भी जब हम एक लिखित संविधान के अंतर्गत रह रहे हैं
यही तर्क प्रस्तुत कर रहे हैं. अब मैं यह बताऊंगा कि उस समय के उच्चतम न्यायालय प्रिवी काउंसिल ने इस अपील पर क्या फ़ैसला कियाशहीदगंज मामले की सुनवाई करने वाले प्रिवी काउंसिल ट्राइब्यूनल में लॉर्ड वेकरटनलॉर्ड रसेल ऑफ किलोवन,सर जार्ज रैंकिनलॉर्ड जस्टिस गोडार्ड और एम आर जयकर थे.

जजों की तरफ से फ़ैसला सर जार्ज रैंकिन ने लिखा
जिसमें महामहिम सम्राट को नम्रतापूर्वक परामर्श दिया गया कि वे अपील को खारिज कर दें. जजों ने पहले इस बात को लिया कि क्या इस मामले में मुसलिम कानून लागू होता हैजजों ने कहा कि यह कानून मुसलमानों की धार्मिक संस्था पर वहीं तक लागू होता है जहां तक उसमें विधायिकाओं द्वारा संशोधन-परिवर्तन न किया गया हो. इस मुकदमे के कई अजीब पहलू हैं.

पहला यह कि केवल घोषणा की मांग की गयी है और कब्जा नहीं मांगा गया है. दूसरा विचित्र पहलू यह है कि इसमें स्त्रियों और नाबालिगों को वादी बनाया गया है. तीसरी बात कि विचारण जज को धर्मशास्त्रों के विशेषज्ञों के साक्ष्य लेने के लिए कहा गया. ये सभी तरीके उस लंबे समय के तथ्य से बचने के लिए अपनाये गये जो मुसलमानों द्वारा इस संपत्ति को खोने तथा उसे वापस प्राप्त करने की बार-बार नाकाम कोशिशों में बीता है.

जजों ने कहा
यह उचित नहीं होगा कि ब्रिटिश भारत के न्यायालय में हिंदू या मुसलमान को अपने केस में लागू कानूनी सिद्धांतों को धर्म विशेषज्ञों की गवाही द्वारा सिद्ध करने के लिए कहा जाय. यदि हिंदू या मुसलिम कानून के निर्णयमामले विशेष में दिये गये साक्ष्योंविशेषज्ञ गवाहों की विश्वसनीयता ओद पर आधारित हुए तो इससे अदालतों के काम में बड़ा भ्रम पैदा होगा. मुसलिम कानून हिंदुस्तान का सामान्य कानून नहीं है.

उस कानून के अर्थ में
जो प्रथम दृष्टया सभी नागरिकों पर लागू होजब तक यह कानून सांविधिक संहिताओं मेंउदाहरणार्थ संविदा कानून संपत्ति हस्तांतरण कानून ओद में न आता हो. जजों ने कहा कि वे जे सुलेमान की टिप्पणियों को स्वीकार करने के पक्ष में हैंजिन्होंने कहा है कि यह स्वयं अदालतों का फर्ज है कि वे देश के कानून की व्याख्या करें और उसे लागू करें तथा इसके लिए गवाहों के मत पर निर्भर न करेंभले ही वे गवाह कितने ही विद्वान हों.

यदि अदालतें अपने इस कर्तव्य को प्रत्येक पक्ष द्वारा लाये गये गवाहों पर छोड़ती है तो यह खतरनाक परंपरा होगी. जजों ने इस दावे का खंडन किया कि मसजिदों पर सीमाकारी कानून लागू नहीं होता और कहा कि वे इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते कि किसी इमारत
जैसे मसजिद पर प्रतिकूल कब्जा नहीं हो सकता.

लाहौर हाईकोर्ट के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद यह न मान लिया जाय कि प्रिवी काउंसिल मुसलिम संस्थाओं तक आमतौर पर मसजिदों पर विशेष तौर पर विधिक व्यक्तित्व के कल्पना का विस्तार करने का फ़ैसला करती है. जजों ने आगे कहा
मसजिद में जा कर नमाज पढ़ने के अधिकार के व्यक्तिगत स्वरूप का तब कोई मतलब नहीं रह जाता है जब वह भूमि वक्फ की न रहे और यह मानने का कोई अधिकार नहीं कि संपत्ति पुन: अप्राप्य बनने के बहुत समय बाद पैदा हुआ व्यक्ति आंशिक या प्राचीन समर्पण को लागू कर सकता है.

जजों ने कहा कि उनके मत से इस मुकदमे का फ़ैसला रेस जुडिकाटा (पहले निर्णीत मुकदमों ) के सामान्य सिद्धांत के अनुसार होना चाहिए. ये फ़ैसले हैं
सन 1855 का मुकदमा तथा खंड 37गुरुद्वारा एक्ट, 1925 के अंतर्गत ट्राइब्यूनल का फ़ैसला (20 जनवरी 1930), जिसमें अंजुमन इसलामिया की याचिका खारिज कर दी गयी थी.

केवल यह तथ्य कि वादियों ने विवादित भूमि की वापसी मांग नहीं की और केवल भूमि को उनकी संपत्ति घोषित करने तथा उसके उपयोग पर रोक लगाने के रूप में राहत मांगी
उन्हें इस योग्य नहीं बनाता कि वे मुतवल्ली नूर मोहम्मद के जमीन की वापसी के दावे को लेकर पुन: मुकदमेबाजी करें. इस प्रकार प्रिवी काउंसिल ने अंतिम फ़ैसला सिखों के पक्ष में दिया.

सर सिकंदर हयात खान के नेतृत्व वाली यूनियनिस्ट सरकार ने उस फ़ैसले को लागू किया. मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे माना. जिन्ना ऊंचे चरित्र के व्यक्ति थे. उन्होंने देवबंदियों और बरेलवी मुल्लाओं के पर काटे थे जब उन्होंने भारत के मुसलमानों को शरीअत के अधीन करने की कोशिश की थी. उन्होंने सन 
1937 में मुसलमानों को इस विपत्ति से बचाया था. पाकिस्तान में इस समय कई अनिष्टकारी घटनाएं हो रही हैंउसी तरह जैसे भारत में हो रही हैं.

लेकिन मुङो प्रसन्नता है कि भाई तारू सिंह गुरुद्वारा सुरक्षित है और पाकिस्तान में शरीअत कानून की सवरेपारिता की चर्चा के बावजूद गुरुद्वारा सिखों के कब्जे में है. शहीद गंज मुकदमा हमें सीख देता है कि भारत सरकार को अब और टाल मटोल नहीं करना चाहिए. उसे देश की सर्व
Þोष्ठ प्रतिभाओं की सहायता से सभी मुकदमे उच्चतम न्यायालय को स्थानांतरित कराने चाहिए.

यह सही है कि उच्चतम न्यायालय निश्चित समय में यह मामला निपटाने का आदेश नहीं दिया जा सकता
लेकिन न्यायालय से यह निवेदन तो किया ही जा सकता है. उच्चतम न्यायालय राष्ट्रीय हित के प्राथमिक दावों की उपेक्षा नहीं कर सकता. वह मात्र सुविधा के लिए राष्ट्र की भलाई को बलिदान नहीं कर सकता. जज आम तौर पर कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय विचारण न्यायालय नहीं है.

यह सच है किंतु वह संविधान के आदेश को नजरअंदाज नहीं कर सकता. यदि संविधान पर हमला हो
,यदि राज्य विखंडित हो तो उच्चतम न्यायालय कहां बचेगादोनों पक्षों से कहा जाना चाहिए कि मौखिक जिरह के बजाय संक्षिप्त स्पष्ट लिखित बयानों का सहारा लें. मौलवियों और पंडितों के बयान लेने की कोई जरूरत नहीं है. न्यायालय का जो भी निर्णय होउसे सभी पक्षों को मानना चाहिए और उन सबको यह निर्णय लागू करने में सरकार की मदद करनी चाहिए.(23-24 सितंबर, 1992) मधुलिमिये ............................

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