:: रतन टाटा, जेआरडी टाटा की परंपरा के हैं. उनका यह बयान कि एक मंत्री ने 15 करोड़ घूस मांगी, एयरलाइंस कंपनी शुरू करने के प्रसंग में, किसी संवेदनशील देश और नैतिक समाज के लिए सबसे गंभीर बात है. कहां पहुंच गये हैं, हम? कितनी सड़ गयी है, राजनीति? रतन टाटा, में साहस है,वह अलग पृष्ठभूमि-मूल्यों के हैं, इसलिए यह कह सके. आइपीएल, राजा प्रसंग, कॉमनवेल्थ गेम्स, आदर्श हाउसिंग प्रकरण, ये ताजा प्रकरण हैं, जो बताते हैं कि देश कहां पहुंच गया है? दरअसल कानून से चरित्र नहीं बनता या नैतिक लोगों को नहीं गढ़ा जाता. बिना समाज के नैतिक या ईमानदार, हालात नहीं सुधरनेवाले. पर इंसान को नैतिक कौन बना सकता है? कहां यह एक अलग सांचे में ढाला जा सकता है? पढ़िए, यह जीवंत अनुभव. ::
बिशुनपुर (गुमला): याद नहीं, कितने वर्षो बाद लौटा? एकांत के लिए. अकेले में जीवन का गणित गुनने-परखने के लिए? जीवन का प्रयोजन जानने? हम जनमते हैं. बढ़ते हैं. कुछ पढ़ते हैं. कोई-न-कोई काम पा जाते हैं. शादी होती है. गृहस्थी का संसार. बच्चे होते हैं? उनकी परवरिश करते हैं. सामथ्र्य और सपनों के साथ. धीरे-धीरे उन्हें भी इसी क्रम में डाल देते हैं. भवसागर में. चक्र में. वे भी काम में लगते हैं. फ़िर यही क्रम चलता है. सदियों से. सहस्रब्दियों से. अनंत काल से. क्या यही ‘जीना’ है? नहीं, हमारे मनीषियों ने कहा ‘जीवित रहना’ अलग है. ‘जीना’ बिल्कुल भिन्न.
बिशुनपुर (गुमला): याद नहीं, कितने वर्षो बाद लौटा? एकांत के लिए. अकेले में जीवन का गणित गुनने-परखने के लिए? जीवन का प्रयोजन जानने? हम जनमते हैं. बढ़ते हैं. कुछ पढ़ते हैं. कोई-न-कोई काम पा जाते हैं. शादी होती है. गृहस्थी का संसार. बच्चे होते हैं? उनकी परवरिश करते हैं. सामथ्र्य और सपनों के साथ. धीरे-धीरे उन्हें भी इसी क्रम में डाल देते हैं. भवसागर में. चक्र में. वे भी काम में लगते हैं. फ़िर यही क्रम चलता है. सदियों से. सहस्रब्दियों से. अनंत काल से. क्या यही ‘जीना’ है? नहीं, हमारे मनीषियों ने कहा ‘जीवित रहना’ अलग है. ‘जीना’ बिल्कुल भिन्न.
पहाड़, जंगल और समुद्र के सानिध्य में बार-बार यह सवाल उभरता है. इसीलिए पहाड़ और जंगल के द्वार पर बसे बिशुनपुर लौटा. अशोक भगतजी के आश्रम ‘विकास भारती’ (बिशुनपुर) में. पहली बार 20 वर्षो पहले आना हुआ. जब झारखंड के जंगलों-पहाड़ों में भटका था. जीवन के नये प्रयोग देखने. बदलाव के नये स्वर सुनने. उन दिनों वाद-विचारों की बहस पर जोर था. याद आते हैं इतिहासकार पुरुषोत्तम जी. कुछेक अन्य मित्र भी. जिनका बड़ा बल रहा. काम और यात्रा में साथ रहा. अशोक जी के आश्रम में विचारों पर खुली बहसें (पक्ष-विपक्ष) भी याद आती हैं. आज बरसों बाद विकास भारती के काम देख कर ‘जीने’ का मकसद और साफ़ होता है. होने (बीइंग) का मतलब.
वर्षो पहले जीवन की कसौटी का फ़ॉर्मूला पढ़ा था. गांधीवादी चिंतक रवींद्र केलकर की पुस्तक में. ‘मनुष्य को इस तरह जीना चाहिए कि मृत्यु के समय वह संतोष के साथ यह कह सके,मेरे जन्म के समय मेरा समाज चेतना-संस्कृति के जिस स्तर पर था, उससे काफ़ी ऊंचे स्तर पर वह आज पहुंचा है. और उसके इस आरोहण में मेरा कुछ भी योगदान रहा है.'''' विकास भारती का यह योगदान दशकों पहले आश्रम के स्कूलों में देखा. अनाथ बच्चों की आंखों में पाया. ओदम जनजाति के बच्चों के नाटकों-गीतों में देखा-सुना. गांधी ने जिसे समाज का सबसे कमजोर और अंतिम आदमी कहा, उसकी सूनी आंखों में सपने डालना, सदियों और पीढ़ियों से ठहरे जीवन में उजास भरना, उसकी प्रगति में सीढ़ी बनना, शायद यही ‘जीना’ है. भाई अशोक भगत सचमुच जी रहे हैं. एक सार्थक जीवन.
जीने का मर्म और साफ़ हुआ. इसी आश्रम में अचानक‘नोवा’ (नेतरहाट ओल्ड ब्वायज स्कूल एसोसिएशन) के कुछ पुराने छात्रों से मिल कर. पहले प्रयाग दुबेजी को देखा, फ़िर डॉ अजय जी को. दोनों मित्र, आत्मीय. बरसों से परिचित. फ़िर अन्य लोगों से मुलाकात हुई. अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे - कार्यरत लोग. पता चला कि ठीक 50 वर्षो पहले ये सभी छात्र के रूप में इसी रास्ते नेतरहाट स्कूल गये थे. 11 नवंबर को ही. अब कुछ रिटायर हो चुके हैं, कुछ सेवा में हैं. चौथेपन में. सो स्मृति यात्रा पर हैं. गुजरे क्षणों को जीने-याद करने के लिए. परिवार के साथ यह समूह नेतरहाट जा रहा है. बीच में पड़ाव है, यह आश्रम.
नेतरहाट स्कूल आकर्षित करता रहा है. आजादी के समय अपने मूल्यों और विशिष्टता के कारण. काश, भारत में ऐसे 500-600 स्कूल खुले होते. जिले-जिले, तो भारत आज भिन्न होता. इस स्कूल के बारे में बार-बार जानना चाहता हूं, यह पता करने के लिए भी कि यहां के छात्रों में अपनी इस संस्था के प्रति गहरा ममत्व क्यों है? एक दूसरे के प्रति बंधुत्व और आदर का राज क्या है? अधिसंख्य छात्र विनम्र, संवेदनशील और समाज के प्रति सजग. अपवाद भी होंगे. पर स्कूली माहौल ने उन्हें बेहतर इंसान जरूर बनाया है. लंच के समय स्कूल के पुराने दिनों के बारे में पूछता हूं.
एक पूर्ववत्र्ती छात्र राजवंश सिंह अनुभव सुनाते हैं. श्री सिंह हाल ही में बिहार सरकार के संयुक्त सचिव पद से रिटायर हुए हैं. तब डॉ जीवननाथ दर प्रिंसिपल थे. गांधीवादी. स्कूल की परंपरा थी कि हर छात्र को, हर काम करना होगा. बरतन धोने से लेकर लैटरिन साफ़ करने तक. राजवंश सिंह ने कहा, मैंने अपने स्कूल के श्रीमान (वार्डेन) से कहा, मैं लैटरिन साफ़ नहीं करूंगा. कोई फ़ादर थे. धैर्य से सुना. प्राचार्य डॉ दर को बताया. डॉ दर ने बुलाया, पूछा क्यों नहीं करोगे? 11 वर्षीय राजवंश सिंह ने कहा, मैं राजपूत हूं. डॉ दर ने सुना. कहा, ठीक है. पूछा,इस काम की जगह उस दिन कौन सा काम करोगे? छात्र राजवंश ने कहा, फ़लां काम. कहा ठीक है, करो. उस दिन राजवंश सिंह ने देखा, कि उनकी जगह खुद लैटरिन साफ़ करने का काम डॉ दर कर रहे हैं. राजवंश जी के लिए यह मानसिक आघात था. मेरी जगह लैटरिन साफ़ करने का काम खुद प्राचार्य जी कर रहे थे, मैं यह देख कर अवाक व स्तब्ध था.
फ़िर अगली घटना हुई. एक दिन भोजनालय में उन्होंने देखा. दर साहब जूठी चीजों को एकत्र करनेवाले टब से साबूत रोटी, सलाद नींबू चुन रहे थे. चुन कर दो खाने के प्लेटों में रखा गया. मकसद था, बच्चों को बताना कि वे बिन खाये अच्छी चीजों को बरबाद कर रहे हैं. दर साहब गांधीवादी थे. उनकी आदत थी, एक-एक चीज की उपयोगिता बताना. यह भी कहना कि देश में कितने लोग भूखे रहते हैं? कितने गरीबों के घर चूल्हे नहीं जलते? फ़िर छात्रों को समझाते कि वे कैसे एक-एक चीज का सदुपयोग करें? उस दिन भी वह यही कर रहे थे. किसी छात्र ने राजवंश सिंह को कह दिया कि यह जूठा तुम्हें खाना पड़ेगा.
11 वर्षीय राजवंश सिंह चुपचाप स्कूल से निकल भागे. स्कूल में जाते ही पैसे वगैरह जमा करा लिये जाते थे. इसलिए महज हाफ़ पैंट और स्वेटर (स्कूल ड्रेस) पहने वह जंगल के एकमात्र शार्टकट से बनारी गांव पहुंचे. भाग कर. लगभग 21 किमी. शायद ही ऐसी दूसरी घटना स्कूल में हुई हो. बनारी में वीएलडब्ल्यू ने देख लिया. वह मामला समझ गया. पूछा, कहां जाना है. बालक राजवंश ने उत्तर दिया, 300 मील दूर भागलपुर. वह प्रेम से अपने घर ले गया. यह कह कर कि मैं भी भागलपुर का हूं. भागलपुर पहुंचा दूंगा. तब तक स्कूल में हाहाकार मच गया.5-6 तेज दौड़ाक (छात्र) दौड़े, उन्होंने ढूंढ़ लिया. फ़िर राजवंश सिंह स्कूल लाये गये. वह भयभीत थे कि आज पिटाई होगी. प्राचार्य डॉ दर के पास ले जाये गये. उन्होंने पूछा कि अभी तुम्हारा कौन सा क्लास चल रहा होगा? पता चला, भूगोल का. सीधे कक्षा में भेज दिया. एक शब्द नहीं पूछा. न कुछ कहा, न डांटा-फ़टकारा. माता जी (प्राचार्य की पत्नी) ने सिर्फ़ कहा,बिना खाये हो? उधर, पकड़े जाने के बाद से ही राजवंशजी को धुकधुकी लगी थी कि आज खूब पिटाई होगी.
इन घटनाओं ने राजवंश सिंह का जीवन बदल दिया. वही राजवंश सिंह स्कूल में सब काम करने लगे. कैसे अध्यापक थे, गांधीयुग के? चरित्र निर्माण, मन-मस्तिष्क बदलनेवाले अपने आचरण, जीवन और कर्म के उदाहरण से. अनगढ़ इंसान को ‘मनुष्य‘ बना देनेवाले. कितनी ऊंचाई और गहराई थी, उस अध्यापकत्व में? खुरदरे पत्थरों और कोयलों (छात्रों) के बीच से हीरा तलाशनेवाले. बचपन से ही छात्रों को स्वावलंबी, ज्ञान पिपासु, नैतिक और चरित्रवान बनने की शिक्षा. महज नॉलेज देना या शिक्षित करना उद्देश्य नहीं था. वह भी हिंदी माध्यम से. ऐसे शिक्षक और ऐसी संस्थाएं ही समाज-देश को ऊंचाई पर पहुंचाते हैं. मुङो गांधी युग के एक और शिक्षक याद आये. गिजू भाई. उन्हें ‘मूंछोवाली मां’ कहा गया. शिक्षा के बारे में उनके अदभुत प्रयोग हैं. सीरीज में लिखी गयी उनकी अनमोल किताबें हैं, जिन्हें आज देश भूल चुका है.
बहरहाल डॉ दर के अनेक किस्से हैं. जाने-माने सर्जन, डॉक्टर और लोगों के मददगार अजय जी (पटना) सुनाते हैं. मैं इंग्लैंड से डॉक्टर बन कर लौटा. मेरी ख्वाहिश थी कि एक बार‘श्रीमान’ और माता जी को पटना बुलाऊं. मैंने पत्र लिखा. वह रिटायर होकर देहरादून में रह रहे थे. उनकी सहमति मिली. हमने आदरवश फ़र्स्ट क्लास के दो टिकट भेजे. लौटती डाक से टिकट वापस. उन्होंने मुङो पत्र लिखा कि हम सेकेंड क्लास में यात्रा कर सकते हैं, तो यह फ़िजूलखर्ची क्यों? दरअसल वह राष्ट्र निर्माण का मानस था, जिसमें तिनका-तिनका जोड़ कर देश बनाने का यज्ञ चल रहा था. राजनीति से शिक्षा तक, हर मोरचे पर. तब कोई प्रधानमंत्री एक शाम भूखा रह कर ‘जय जवान, जय किसान’ की बात कर रहा था.
फ़िर एक तीसरे पूर्ववत्र्ती छात्र सुनाते हैं. डॉ दर हर छात्रावास में नियमित जाते थे, खासतौर से पेंट्री और ट्वायलेट चेक करते थे. एक बार वह हमारे छात्रावास आये. हमारे एक ट्वायलेट में कुछ फ़ंस गया था. फ्लश नहीं हो रहा था. दो-तीन दिनों से. दरुगध था. हमने बताया. उन्होंने अपनी बांह का कपड़ा हटाया. सीधे पूरा हाथ संडास में डाल दिया. कोई चीज फ़ंसी थी. निकाला. हम सब छात्र, स्तब्ध, एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे. ऐसे थे नेतरहाट के पूर्व प्राचार्य डॉ दर.
इन प्रसंगों को सुनते हुए गांधीवादी चिंतक (मराठी) रवींद्र केलकर का लिखा एक प्रसंग याद आया.‘पहले देश गुलाम था, आज आजाद है. पहले देश में पांच सौ से अधिक छोटी-बड़ी रियासतें थीं, आज रियासतों का विलय हुआ है और देश अखंड है. पहले लोकतंत्र नहीं था,आज लोकतंत्र चलता है. पहले अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमारी कोई कीमत नहीं थी, आज हमारा दबदबा है. पहले बाहर से अनाज लाना पड़ता था, आज हम अनाज निर्यात करते हैं. पहले देश में कोई खास उद्योग नहीं थे, आज दुनिया के प्रथम पंक्ति के आठ औद्योगिक देशों में हम एक हैं. पहले हमें वैज्ञानिकों को बाहर से बुलाना पड़ता था, आज हम वैज्ञानिक बाहर भेजते हैं.किंतु
पहले देश ने हिमालय के शिखरों के समान उत्तुंग व्यक्तित्व के नेता पैदा किये थे. अब बौने पिग्मी नेता हमारे हिस्से आये हैं. और सबसे महत्व की बात - पहले बाहर सब जगह अंधेरा फ़ैला हुआ था. पर कइयों के अंतर में प्रकाश था. आज बाहर पहले की ही तरह अंधेरा फ़ैला हुआ है. और अंतर का प्रकाश बिल्कुल लुप्त हो गया है. डॉ दर जैसे लोग, उसी पीढ़ी के थे, जब अंतर प्रकाश शेष था
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