जब तक करना न पड़े, संघर्ष रोमांटिक ही दिखता है! 28 SEPTEMBER 2011 NO COMMENT ♦ शुभम श्री 10 साल में दो बार सरकार बदल जाती है, सेंसेक्स कहीं से कहीं पहुंच जाता है। दस सालों में बहुत कुछ हो जाता है। जैसे कि शर्मिला को लड़ते हुए दस साल हो गये। आफ्सपा फिर भी बना हुआ है, शर्मिला फिर भी लड़ रही है। एक मीडिया है जो दोनों का मुंह जोह रहा है। क्या बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में कोई अनशन इतना लंबा खिंच सकता है? शायद नहीं, वहां हम ऐसी स्थिति कि कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसा सिर्फ मणिपुर और जम्मू कश्मीर में ही हो सकता है। आखिर 2 लोकसभा सीट किसी भी राज्य की बहुत कमजोर यूएसपी है राजनीतिक फैसलों के लिए। लोकसभा में जिनकी जितनी सीटें, उनका मुद्दा उतना जरूरी। इस सूत्र के राजनीतिक फायदे जो भी हों पर ऐसा कर के उत्तर पूर्व को देश के बाकी हिस्सों से जरूर काट दिया जा रहा है। मीडिया की टीआरपी के मानचित्र पर तो उत्तर पूर्व के निशान अरसे से मिटे हुए हैं ही। अन्ना आंदोलन के दौरान इरोम के अनशन की कुछ चर्चा हुई भी तो कुछ उसी तरह जैसे साहित्य में अज्ञेय के बरक्स मुक्तिबोध को खड़ा कर देने की कोशिश यानि कि एक अनशन के बरक्स एक सुपर अनशन। इरोम की लड़ाई को जिस तरह आफ्सपा हटाने से ज्यादा उसके अनशन से जोड़ा गया, उसमें आफ्सपा से त्रस्त कश्मीर, अरुणाचल, आसाम, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा सबकी आवाज दब गयी है। आफ्सपा को हटाने की मांग अकेले मणिपुर की ही नहीं, पूरे उत्तर पूर्व की मुक्ति की मांग है। क्या देश के सभी हिस्सों से इस आंदोलन को उसी तरह समर्थन नहीं मिलना चाहिए, जैसा दिल्ली के अनशनों को मिलता है। क्या कारण है कि फेसबुक से शुरू हुए अन्ना हजारे के आंदोलन को तो मीडिया ने लपक कर पकड़ा जबकि शर्मिला को लेकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रहे कैंपेन मुख्यधारा मीडिया में जगह नहीं बना पाये? टीम अन्ना के पास रामलीला मैदान था, दिल्ली नगर निगम और पुलिस की फौज थी। यूं कह लें कि एक शांतिपूर्ण और परिवार सहित किये जाने वाले आंदोलन का सारा साजो सामन था। अन्ना का आंदोलन एक कानून बनाने की मांग कर रहा था, शर्मिला एक कानून हटाने की मांग कर रही है। ऐसा काला कानून, जिसे एक स्वर में एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर सभी मानवाधिकार संगठन अमानवीय कह कर हटाने की मांग कर रहे हैं। केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई खुद कह रहे हैं कि मणिपुर में वहां कि जनसंख्या से ज्यादा पुलिस बल है (तहलका, जून 2010) लेकिन आफ्सपा को लेकर सरकार के रवैये से लगता है कि देश के आठ राज्यों में मानवाधिकारों का उल्लंघन कोई मामूली सी बात है। आतंरिक सुरक्षा और इंमरजेंसी को लेकर उच्चतम न्यायालय का रवैया कहीं ज्यादा चौंकाने वाला है। नागा जन आंदोलन बनाम भारत सरकार (1998) केस हो या पोटा, टाडा जैसे कानून, अनुच्छेद 21 और 19 का कहीं जिक्र तक नहीं है। अनुच्छेद 21 जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति, नागरिक, विदेशी को जीने का अधिकार है, इन केस स्टडीज में कहीं नहीं है। इन सभी अनुच्छेदों की अवमानना के बावजूद आफ्सपा का बने रहना असंवेदनशीलता की अति है। ऐसे में अगर उत्तर पूर्वी राज्य भारत से अलग होने कि मांग करते हैं तो क्या गलत करते हैं? बहरहाल इस सबके बीच हमारा मुख्यधारा मीडिया आफ्सपा और उत्तर पूर्व के मुश्किल हालातों से कहीं ज्यादा इरोम शर्मिला के प्रेम प्रसंग को लेकर चिंतित है। आफ्सपा को हटाने का 4 दशकों का संघर्ष, सशस्त्र बलों की ज्यादती सब नेपथ्य में चले गये हैं। मीडिया साबित करने में लगा है कि खबर वही बनेगी जो खूबसूरत ड्राइंग रूमों में कॉफी का मजा बढ़ाये न कि और टेंशन दे दे। आइबीएन 7 जैसे चैनलों ने तो बाकायदा निष्कर्ष भी निकाला कि भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है, जिसे मध्यम वर्ग आसानी से समझ सकता है बजाय एक मार्शल कानून के जिसका बहुसंख्य लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता इसलिए अन्ना का आंदोलन सफल हुआ जबकि शर्मिला 11 सालों में भी सफल नहीं हो पायी। (मानो अन्ना और शर्मिला के बीच कोई अनशन प्रतियोगिता हो रही हो! … http://ibnlive.in.com/) उत्तर पूर्व में मानवाधिकारों का उल्लंघन और आफ्सपा जैसे कानून का होना संवेदनशील मुद्दा भले हो, सेंसेशनल नहीं है। इसलिए वो खबर भी नहीं है। शर्मिला का एक दशक का अनशन अपने आप में सनसनी पैदा करने वाली, सिहरा देने वाली चीज है, लार्जर देन लाइफ है। इसलिए सिर्फ अनशन और उसकी लंबाई चर्चा में है, अनशन का कारण और उद्देश्य नहीं। कश्मीर के मसले पर तो राष्ट्रवाद जैसी बिकाऊ एलिमेंट स्टोरी मीडिया चला भी लेता है, उत्तर पूर्व की बारी आते ही एक लंबा मौन पसर जाता है। एक नये तरीके का फील गुड फैक्टर बनाया जा रहा है जहां शर्मिला का रोमांटिक लगने वाला संघर्ष है। (वैसे भी जब तक करना न पड़े, संघर्ष रोमांटिक ही दिखता है!) ‘आयरन लेडी’ की कहानियां हैं, लोकतंत्र का उज्‍ज्‍वल भविष्य है… अगर कुछ नहीं है तो प्रतिबद्ध आंदोलन। क्या वाकई इरोम को इन खूबसूरत तमगों और प्रशस्तियों की जरूरत है? उसे समर्थन की, एक देशव्यापी आंदोलन की जरूरत है। मीडिया समीक्षक बार-बार मीडिया को बाजार और खबर बेचने वाले उद्योग के रूप में देखने की गुजारिश करते हैं। अगर ऐसा है, तो हम ग्राहक होने के नाते इरोम शर्मिला के प्रेम प्रसंग की खबर नहीं खरीदना चाहते, हम उत्तर पूर्व के हालात जानना चाहते हैं। उत्तर पूर्व में इंसरजेंसी एक गहरे और गंभीर बहस की अपेक्षा रखती है। वे लोग भी उन्‍हीं नागरिक अधिकारों के साथ जीना चाहते हैं, जो देश के बाकी लोगों के पास हैं। वे कुछ नहीं चाहते सिवाय आफ्सपा हटाये जाने के। इरोम के आंदोलन का सही संप्रेषण तभी होगा जब चर्चा के केंद्र में आफ्सपा और पूरा उत्तर पूर्व हो। अन्ना आंदोलन के दौरान टीआरपी दर ने साबित कर दिया है कि फॉर्मूला खबरों का जमाना बीत चला, धंधे के लिहाज से आफ्सपा और उत्तर पूर्व भी घाटे का सौदा साबित नहीं होगा बशर्ते कि मुख्यधारा मीडिया इतना जोखिम ले। (शुभमश्री। रेडिकल फेमिनिस्ट। लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन। फिलहाल जेएनयू में एमए की छात्रा। कविताएं लिखती हैं। मुक्तिबोध पर कॉलेज लेवल रिसर्च। ब्लॉगिंग, फिल्म और मीडिया पर कई वर्कशॉप और विमर्श संयोजित किया। उनसे shubhamshree91@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


जब तक करना न पड़े, संघर्ष रोमांटिक ही दिखता है!

28 SEPTEMBER 2011 NO COMMENT
♦ शुभम श्री

जब तक करना न पड़े, संघर्ष रोमांटिक ही दिखता है!

28 SEPTEMBER 2011 NO COMMENT
♦ शुभम श्री
10साल में दो बार सरकार बदल जाती है, सेंसेक्स कहीं से कहीं पहुंच जाता है। दस सालों में बहुत कुछ हो जाता है। जैसे कि शर्मिला को लड़ते हुए दस साल हो गये। आफ्सपा फिर भी बना हुआ है, शर्मिला फिर भी लड़ रही है। एक मीडिया है जो दोनों का मुंह जोह रहा है।
क्या बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में कोई अनशन इतना लंबा खिंच सकता है? शायद नहीं, वहां हम ऐसी स्थिति कि कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसा सिर्फ मणिपुर और जम्मू कश्मीर में ही हो सकता है। आखिर 2 लोकसभा सीट किसी भी राज्य की बहुत कमजोर यूएसपी है राजनीतिक फैसलों के लिए। लोकसभा में जिनकी जितनी सीटें, उनका मुद्दा उतना जरूरी। इस सूत्र के राजनीतिक फायदे जो भी हों पर ऐसा कर के उत्तर पूर्व को देश के बाकी हिस्सों से जरूर काट दिया जा रहा है।
मीडिया की टीआरपी के मानचित्र पर तो उत्तर पूर्व के निशान अरसे से मिटे हुए हैं ही। अन्ना आंदोलन के दौरान इरोम के अनशन की कुछ चर्चा हुई भी तो कुछ उसी तरह जैसे साहित्य में अज्ञेय के बरक्स मुक्तिबोध को खड़ा कर देने की कोशिश यानि कि एक अनशन के बरक्स एक सुपर अनशन।
इरोम की लड़ाई को जिस तरह आफ्सपा हटाने से ज्यादा उसके अनशन से जोड़ा गया, उसमें आफ्सपा से त्रस्त कश्मीर, अरुणाचल, आसाम, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा सबकी आवाज दब गयी है। आफ्सपा को हटाने की मांग अकेले मणिपुर की ही नहीं, पूरे उत्तर पूर्व की मुक्ति की मांग है।
क्या देश के सभी हिस्सों से इस आंदोलन को उसी तरह समर्थन नहीं मिलना चाहिए, जैसा दिल्ली के अनशनों को मिलता है। क्या कारण है कि फेसबुक से शुरू हुए अन्ना हजारे के आंदोलन को तो मीडिया ने लपक कर पकड़ा जबकि शर्मिला को लेकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रहे कैंपेन मुख्यधारा मीडिया में जगह नहीं बना पाये?
टीम अन्ना के पास रामलीला मैदान था, दिल्ली नगर निगम और पुलिस की फौज थी। यूं कह लें कि एक शांतिपूर्ण और परिवार सहित किये जाने वाले आंदोलन का सारा साजो सामन था।
अन्ना का आंदोलन एक कानून बनाने की मांग कर रहा था, शर्मिला एक कानून हटाने की मांग कर रही है। ऐसा काला कानून, जिसे एक स्वर में एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर सभी मानवाधिकार संगठन अमानवीय कह कर हटाने की मांग कर रहे हैं। केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई खुद कह रहे हैं कि मणिपुर में वहां कि जनसंख्या से ज्यादा पुलिस बल है (तहलका, जून 2010) लेकिन आफ्सपा को लेकर सरकार के रवैये से लगता है कि देश के आठ राज्यों में मानवाधिकारों का उल्लंघन कोई मामूली सी बात है।
आतंरिक सुरक्षा और इंमरजेंसी को लेकर उच्चतम न्यायालय का रवैया कहीं ज्यादा चौंकाने वाला है। नागा जन आंदोलन बनाम भारत सरकार (1998) केस हो या पोटा, टाडा जैसे कानून, अनुच्छेद 21 और 19 का कहीं जिक्र तक नहीं है। अनुच्छेद 21 जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति, नागरिक, विदेशी को जीने का अधिकार है, इन केस स्टडीज में कहीं नहीं है। इन सभी अनुच्छेदों की अवमानना के बावजूद आफ्सपा का बने रहना असंवेदनशीलता की अति है।
ऐसे में अगर उत्तर पूर्वी राज्य भारत से अलग होने कि मांग करते हैं तो क्या गलत करते हैं?
बहरहाल इस सबके बीच हमारा मुख्यधारा मीडिया आफ्सपा और उत्तर पूर्व के मुश्किल हालातों से कहीं ज्यादा इरोम शर्मिला के प्रेम प्रसंग को लेकर चिंतित है। आफ्सपा को हटाने का 4 दशकों का संघर्ष, सशस्त्र बलों की ज्यादती सब नेपथ्य में चले गये हैं। मीडिया साबित करने में लगा है कि खबर वही बनेगी जो खूबसूरत ड्राइंग रूमों में कॉफी का मजा बढ़ाये न कि और टेंशन दे दे।
आइबीएन 7 जैसे चैनलों ने तो बाकायदा निष्कर्ष भी निकाला कि भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है, जिसे मध्यम वर्ग आसानी से समझ सकता है बजाय एक मार्शल कानून के जिसका बहुसंख्य लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता इसलिए अन्ना का आंदोलन सफल हुआ जबकि शर्मिला 11 सालों में भी सफल नहीं हो पायी। (मानो अन्ना और शर्मिला के बीच कोई अनशन प्रतियोगिता हो रही हो! …http://ibnlive.in.com/)
उत्तर पूर्व में मानवाधिकारों का उल्लंघन और आफ्सपा जैसे कानून का होना संवेदनशील मुद्दा भले हो, सेंसेशनल नहीं है। इसलिए वो खबर भी नहीं है। शर्मिला का एक दशक का अनशन अपने आप में सनसनी पैदा करने वाली, सिहरा देने वाली चीज है, लार्जर देन लाइफ है। इसलिए सिर्फ अनशन और उसकी लंबाई चर्चा में है, अनशन का कारण और उद्देश्य नहीं। कश्मीर के मसले पर तो राष्ट्रवाद जैसी बिकाऊ एलिमेंट स्टोरी मीडिया चला भी लेता है, उत्तर पूर्व की बारी आते ही एक लंबा मौन पसर जाता है।
एक नये तरीके का फील गुड फैक्टर बनाया जा रहा है जहां शर्मिला का रोमांटिक लगने वाला संघर्ष है। (वैसे भी जब तक करना न पड़े, संघर्ष रोमांटिक ही दिखता है!) ‘आयरन लेडी’ की कहानियां हैं, लोकतंत्र का उज्‍ज्‍वल भविष्य है… अगर कुछ नहीं है तो प्रतिबद्ध आंदोलन। क्या वाकई इरोम को इन खूबसूरत तमगों और प्रशस्तियों की जरूरत है? उसे समर्थन की, एक देशव्यापी आंदोलन की जरूरत है।
मीडिया समीक्षक बार-बार मीडिया को बाजार और खबर बेचने वाले उद्योग के रूप में देखने की गुजारिश करते हैं। अगर ऐसा है, तो हम ग्राहक होने के नाते इरोम शर्मिला के प्रेम प्रसंग की खबर नहीं खरीदना चाहते, हम उत्तर पूर्व के हालात जानना चाहते हैं।
उत्तर पूर्व में इंसरजेंसी एक गहरे और गंभीर बहस की अपेक्षा रखती है। वे लोग भी उन्‍हीं नागरिक अधिकारों के साथ जीना चाहते हैं, जो देश के बाकी लोगों के पास हैं। वे कुछ नहीं चाहते सिवाय आफ्सपा हटाये जाने के।
इरोम के आंदोलन का सही संप्रेषण तभी होगा जब चर्चा के केंद्र में आफ्सपा और पूरा उत्तर पूर्व हो। अन्ना आंदोलन के दौरान टीआरपी दर ने साबित कर दिया है कि फॉर्मूला खबरों का जमाना बीत चला, धंधे के लिहाज से आफ्सपा और उत्तर पूर्व भी घाटे का सौदा साबित नहीं होगा बशर्ते कि मुख्यधारा मीडिया इतना जोखिम ले।
(शुभमश्री। रेडिकल फेमिनिस्ट। लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन। फिलहाल जेएनयू में एमए की छात्रा। कविताएं लिखती हैं। मुक्तिबोध पर कॉलेज लेवल रिसर्च। ब्लॉगिंग, फिल्म और मीडिया पर कई वर्कशॉप और विमर्श संयोजित किया। उनसे shubhamshree91@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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