जाना रामदयाल मुंडा का ...

जाना रामदयाल मुंडा का ...

..और यूं ही चुपके चुपके चल दिये

!!अनुज कुमार सिन्हा!!
स्मृति शेष
एक बुरी खबर आयी. डॉ मुंडा (पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा) नहीं रहे. भरोसा नहीं हुआ इस खबर पर. अभी हाल में ही तो मिल कर लौटा था. 10 सितंबर को. सिर्फ 19 दिन ही तो हुए थे. करमा के दूसरे दिन घर पर मिला था. कैंसर से पीड़ित जरूर थे, लेकिन ऐसा नहीं लगा था कि इतनी जल्दी साथ छोड़ जायेंगे. सोचा था कि थोड़ा वह स्वस्थ हो जायें, तो झारखंड पर उनसे इस बार लंबी बातचीत करूंगा. मौत ने वह मौका छीन लिया. सिर्फ यादें रह गये हैं.
अब करमा-सरहुल के मौके पर झारखंड डॉ मुंडा के मांदर की थाप नहीं सुन पायेगा. बांसुरी के जरिये झारखंड के दर्द या वीरता की कहानी झारखंडियों को अब कौन सुनायेगा, झारखंड को अब कौन जगायेगा. झारखंड की भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए राज्य-देश में कौन लड़ाई लड़ेगा. सच तो यह है कि बिरसा मुंडा की अंतिम लड़ाई का गवाह डुंबारी हिल भी यह सोच कर रोयेगा कि अब उसे कौन बचायेगा.
कुछ साल पहले एनई होरो ने साथ छोड़ा. चंद दिनों पहले टेकलाल बाबू चले गये और अब डॉ मुंडा भी नहीं रहे. झारखंड राज्य के लिए अपना पूरा जीवन दे दिया और जब इस झारखंड को ठीक करने का समय आया, तो दर्द को सीने में समेटते हुए चुपके से चल दिये.
अमेरिका रवाना होने से पहले बेसरा से अस्पताल में यह कहना कि झारखंड में बहुत काम करना बाकी है, कैसे होगा, उनकी पीड़ा का बखान करता है. उनकी मौत की खबर से पीड़ा इसलिए और अधिक हुई, क्योंकि डॉ मुंडा के मन में कई योजनाएं थीं. अपने लिए नहीं, झारखंड के लिए, झारखंडियों के लिए. अधूरे कामों को वह पूरा करना चाहते थे.
वक्त कम था, फिर भी तेजी से चीजों को निबटा रहे थे. मौत की आहट को वह पहचान रहे थे. बीमार होने के बावजूद वह रांची-झारखंड के विकास का खाका खींच रहे थे. जब अखबार में करमा के दूसरे दिन उनकी मार्मिक तसवीर छपी, तो उन्होंने कहा भी था-इस तसवीर को मढ़वा कर (फ्रेमिंग करवा कर) झारखंड के नेताओं के कमरे में टंगवा देना, ताकि जब वे देखें, उन्हें मेरी याद आती रहे. मेरे सपने याद आते रहे, वे बहके नहीं, राज्य का भला तो सोचें. एक तरह से उन्होंने अपनी मौत के प्रति सबको आगाह कर दिया था.
झारखंड के लिए वैसी पीड़ा-बेचैनी किसी और दूसरे नेताओं में कभी नहीं दिखी, जो डॉ मुंडा में थी. डॉक्टर जवाब दे चुके थे, लेकिन डॉ मुंडा एक-एक पल झारखंड के लिए जी रहे थे, सोच रहे थे. बिस्तर पर पड़े-पड़े कागज पर लिखते थे, डायग्राम बनाते थे, आंखें जवाब दे रही थीं, हाथ कांप रहे थे पर हिम्मत-लगाव और आत्मविश्वास वही 25-30 साल पहलेवाला.
यही तो वह व्यक्ति थे, जिन्होंने झारखंड राज्य के लिए सबसे लंबा अनशन किया था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झारखंड की समृद्ध संस्कृति को पहुंचाया था. जब ऐसे व्यक्ति को बेड पर पड़े देखा, तो उनकी तबीयत देख कर मन बेचैन जरूर हो गया था. 17 सितंबर को मैं दादा (बीपी केसरी) के घर अचानक पिठौरिया पहुंच गया. डॉ मुंडा के बारे में बात की. पूछा कि क्या होगा, क्या करना चाहिए. दादा भी उदास थे. कहा- मुंडाजी बोले हैं कि ठीक हो जायेंगे, तो आपके घर पर आकर मीट-छिलका खायेंगे.
डॉ मुंडा चाहते थे कि उनके गीतों के संग्रह को एक किताब के रूप में छापा जाये. एक दिन उन्होंने केसरीजी को बुलाया भी था. बात की थी. जबरन हाथ में पैसे थमाये और कहा कि हर हाल में दिल्ली जाइये, किताब छपवाने की व्यवस्था करिये. समय कम था, किताब छप नहीं सकी. 15 नवंबर को उस किताब का वह विमोचन करवाना चाहते थे.
डॉ मुंडा ने स्वरचित गीतों-वाद्य यंत्रों के जरिये झारखंड को पूरी दुनिया में पहुंचाने का अदभुत काम किया. लेकिन उन गीतों के संकलन का उनका सपना अधूरा रह गया. डॉ मुंडा ने एक ऐसे गीत की रचना की थी, वह चाहते थे कि उसे झारखंड का राजकीय गीत माना जाये. इसमें हर झारखंडी भाषा के शब्द थे. हर भाषा, हर जाति, हर धर्म का सम्मान. मुंडाजी चाहते थे कि साल में एक दिन झारखंड के सारे लोग ठीक उसी तरह नाचे-कूदे, खुशी मनायें, जिस प्रकार मैक्सि‍को में लोग खुशियां मनाते हैं. वह तारीख तय हो और पूरा राज्य सड़कों पर दिखे. यह सपना भी अधूरा रह गया. झारखंड डॉ मुंडा को सदियों तक याद करेगा. एक नहीं, अनेक रूप में.
एक विद्वान-शिक्षाविद के रूप में, झारखंड के सांस्कृतिक जागरण के अगुवा के रूप में, झारखंड के आंदोलनकारी के रूप में और एक चिंतक के रूप में. डॉ मुंडा कुलपति के पद पर रहने के बावजूद झारखंड के लिए संघर्ष कर रहे थे. सरकार इसे बरदाश्त नहीं कर रही थी, चेतावनी भी मिली थी. उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. पद से हटा दिया गया, लेकिन उन्होंने राज्य के लिए संघर्ष नहीं छोड़ा. यह था उनका झारखंड प्रेम-त्याग.
सच यह है कि डॉ मुंडा नहीं होते, तो शायद झारखंड राज्य के निर्माण का रास्ता इतना सुगम नहीं होता. शायद यह आंदोलन भटक भी जाता, बहुत ज्यादा हिंसक हो सकता था. आंदोलन के दौरान सिर्फ बौद्धिक खुराक ही नहीं देते थे, दिशा ही नहीं देते थे, खुद आंदोलनकारियों के साथ सड़कों पर उतरते भी थे. याद कीजिए 20 मार्च 1993 का दिन. झारखंड राज्य के लिए लगातार आठवें दिन अनशन पर थे डॉ मुंडा. उनके साथ थे डॉ देवशरण भगत. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद का जब अनशन स्थल पर फोन आया था, डॉ मुंडा ने हंसते-हंसते कहा था-आप राजेश पायलट को लेकर रांची आ जायें, यहीं बातचीत हो जायेगी. आपसे तो 11 माह बात की, आपने भी तो कुछ नहीं किया. सरल स्वभाव, मृदुभाषी, धैर्यवान डॉ मुंडा को उसी दिन पुलिस ने जबरन अनशन स्थल से उठा कर अस्पताल में भरती कराया था.
झारखंड के वर्तमान हालात से वह दुखित थे. चाहते थे कि भ्रष्टाचार खत्म हो, नेता लूटना बंद करें, यहां की संस्कृति की रक्षा हो, यहां की धरोहरों की रक्षा हो, सुतियांबे-टैगोर हिल, रांची झील को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाये. यही तो उनका सपना है. उनके गीत-लेख झारखंड के लिए प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे.
 साभार - प्रभात खबर 

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