इस किताब को नए लोग नही पढ़ें, सर्दी के इस मौसम में इसके दूसरे सदुपयोग पर विचार कर सकते हैं.- डॉ ओम सुधा

इस किताब को नए लोग नही पढ़ें, सर्दी के इस मौसम में दूसरे सदुपयोग पर विचार कर सकते हैं.- डॉ ओम सुधा

ब्राह्मण चेतना मंच का एक कार्यक्रम पीलीभीत उत्तर प्रदेश में हो रहा था. भाजपा के राज्यसभा सांसद शिव प्रताप शुक्ल ने उस कार्यक्रम में कहा की- “बाबा साहेब आंबेडकर दलित नहीं थे, वे सनाढ्य ब्राह्मण थे। वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय से प्रेरित थे, उन्होंने लोगों को उपर उठाने का काम किया, इसलिए उन्होंने संविधान लिखा। उनका नाम आंबेडकर नहीं था, उनका नाम था भीमराव, लेकिन अब उन्हें बाबा साहब आंबेडकर कहा जाता है।” 

अभी मेरे हाथ में सुरुचि प्रकाशन से आयी किताब "डॉ आंबेडकर की दृष्टि में मुस्लिम कट्टरवाद " है. इसपर कुछ लिखने से पूर्व डॉ आंबेडकर पर सुरुचि प्रकाशन से आयी पहले वाली किताब पर थोड़ी चर्चा जरुरी है।  ताकि पुस्तक की अहमियत और इसकी निरंतरता को भी ठीक से समझा जा सके. 

डॉ कृष्ण गोपाल और श्रीप्रकाश द्वारा सम्पादित एक पुस्तक आयी थी " “राष्ट्र पुरूष: बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर” .इस किताब के पेज नम्बर ५ पर डॉ कृष्ण गोपाल लिखते हैं की - एक अपृश्य परिवार में जन्मा बालक सम्पूर्ण भारतीय समाज का विधि-विधाता बन गया। धरती की धूल उड़कर आकाश और मस्तक तक जा पहुँची

अब "डॉ आंबेडकर की दृष्टि में मुस्लिम कट्टरवाद " पर बात करते हैं।  इस किताब के लेखक एस के अग्रवाल प्रकाशकीय निवेदन में लिखते हैं की- "भारत की प्राचीन संस्कृति के प्रति डॉ साहब के ह्रदय में जितनी श्रद्धा थी उसे तो उन्होंने ईसाई मिशनरियों, मुल्ला मौलवियों और हैदराबाद के निज़ाम को ठोकर मारकर बौद्ध बनने का निश्चय करते हुए भी प्रकट किया था. "

इसी में लेखक आगे लिखते हैं की - "मुस्लिम कट्टरवाद, जिससे उदारवादी मुसलमान भी त्रस्त हैं, डॉ आंबेडकर के लिए छुआछूत की समस्या से कम नही वरन अधिक चिंता का विषय था क्योंकि छूआछूत समाज की काया को लग गया एक ऐसा रोग था जिसे मिटाकर समाज को पुनः स्वस्थ हो जाना था , जबकि कट्टरवादी इस्लाम के अनुदार चरित्र का एक आधारभूत सिद्धांत है अतएव मुस्लिम कट्टरवाद के सभी प्रशवों की पर्याप्त छानबीन करके उससे भारत को बचाने के उपाय भी सुझाये। "

आठ अध्यायों में लिखी गयी यह किताब हिन्दू- मुस्लिम विभाजन, हिंदुओं पर मुसलमान द्वारा कथित तौर पर की गयी हिंसा, हिन्दू मुसलमानो के अंतर्संबंध , कोंग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण, पाकिस्तान निर्माण और बौद्ध धर्म जी हलकी-फुलकी चर्चा के इर्द-गिर्द लिखी गयी है. 
लेखक बाबा साहब की किताब "thoughts on Pakistan" के आधे अधूरे और बीच-बीच  से किसी अंश को इस किताब के पेश करते हैं जो बिना सन्दर्भों की अधूरी प्रतीत होती है. सबसे मज़ेदार बात यह है की इस किताब में मुहम्मद अली जिन्ना के भाषणों का अंश भी डाला गया है. 
इस पुरे किताब को पढ़ते हुए आप लेख की संघी और खुराफाती दिमाग से वाकिफ भी होते जाते हैं. मुस्लिम लीग की मांग, वैमनस्यपूर्ण रक्त-रंजित  इतिहास, हिन्दू-मुस्लिम एकता का निष्फल प्रयास , साम्प्रदायिक राजनीति के आयाम, यदि पाकिस्तान ना बनता जैसे शीर्षक ही आपको लेखक के राजनितिक उद्देश्यों से वाकिफ कराते हैं. 
मैं इस किताब को पढ़ते हुए इस निष्कर्ष पर पहुच चुका  हूँ की इस किताब का ना कोई सामाजिक उद्देश्य है , ना साहित्यिक ।  असल में यह किताब देशभर में हाल के दिनों में तेजी से बढ़ रही दलित उत्पीडन की घटनाओं के बाद दलितों में संघ की छवि के नुक्सान की भरपाई के रूप में लिखी गयी है. रोहित वेमुला की सांस्थानिक ह्त्या और गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई  के बाद  देशभर के दलित संघ के प्रति आक्रोश से भरे हुए हैं. संघ को यह लगता है की हिन्दू बनाम मुसलमान करके वो राजनीति कर सकते हैं पर हिन्दू बनाम दलित-पिछड़ा होने पर गेंद उनके पाले से निकल जाती है और इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बिहार है. 
संघ लगातार दलितों के बिच अपने कार्यक्रम को लेकर जाता रहता है पर वो अपनी पैठ बनाने में असफल रहा है, इसलिए इस किताब के जरिये बाबा साहब को मुसलमान विरोधी साबित करते हुए दलितों के अंदर हिन्दू-भाव भरना चाहता है, 
युवा दलित चिंतक डॉ मुकेश अपने एक लेख में लिखता हैं की -  बीजेपी-आरएसएस बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों के भगवाकरण का अभियान छेड़ रखा है। बाबा साहब का नाम लेकर दलितों को रिझाने की नाकाम कोशिशों के बाद बीजेपी-आरएसएस की अगली कोशिश मुसलमानों के खिलाफ अपनी नफरत को वैधता दिलाने के लिए डॉ. अंबेडकर को ढाल की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में चल रही है। ऐसा करते हुए बीजेपी-आरएसएस दलित उत्पीड़न की जारी घटनाओं के खिलाफ उफनते असंतोष और आंदोलन को ‘डायल्यूट’ करते हुए यूपी विधानसभा चुनाव में हिन्दू मतों का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करना चाहती है। लेकिन यहाँ भी उसके दाल गलने की संभावना कम ही है। डॉ अंबेडकर के विचारों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हुए आरएसएस-बीजेपी कभी उन्हें हिन्दुत्व का समर्थक बताने की साजिश करता है तो कभी अलग पाकिस्तान के मसले पर उनके विचारों को पूरे संदर्भ से अलगाकर पेश कर अपने हिन्दू राष्ट्र की धारणा को पुष्ट करना चाहता है। इसकी गहराई में जाकर पड़ताल करने की जरूरत है।
अपनी सम्पादकीय में लेखक दूसरे धर्म के लोगों द्वारा बाबा साहब को ऑफर दिए जाने का जिक्र तो करते हैं पर बाबा साहब ने हिन्दू धर्म खून छोड़ा इसपर एक शब्द भी खर्च करने की जहमत नहीं उठाते. 

 डॉ मुकेश अपने लेख में विस्तार से लिखते हैं की- ‘पाकिस्तान अथवा भारत विभाजन’ डॉ. अंबेडकर की महत्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक के नाम से ऐसा लगता है कि मानो इस पुस्तक में पाकिस्तान के बारे में सामान्य सा खाका खींचा गया हो। डॉ. अंबेडकर के मुताबिक यह पुस्तक इससे आगे बढ़कर और भी बहुत कुछ है और इस पुस्तक में भारतीय इतिहास व भारतीय राजनीति के सांप्रदायिक पहलुओं का गहन विश्लेषण किया गया है। जब यह पुस्तक पहली बार अंग्रेजी में आई तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सामान्य रूप से आहत हुए थे। इससे साफ जाहिर होता है कि यह दोनों में से किसी भी धर्म का पक्षपात करते हुए नहीं लिखी गई थी। यह डॉ. अंबेडकर की पूर्वाग्रह मुक्त भाव से लिखी गई मौलिक कृति है। इस पुस्तक में हिंदुओं और मुसलमानों की खूबियों-खामियों पर निष्पक्ष रूप से प्रकाश डाला गया है। डॉ. अंबेडकर मुसलमानों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित किये जाने के पक्ष में नहीं थे। वे पाकिस्तान के मामले को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बजाय हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा सुलझाया जाने पर ज़ोर देते हैं। वे पाकिस्तान की मांग को बल प्रयोग के जरिये जबरन दबा देने के भी पक्ष में नहीं थे। उनकी नजर में यह सोचना नितांत मूर्खतापूर्ण था कि पाकिस्तान की मांग फिलहाल दबा देने से वह फिर उभर ही नहीं सकता। इसलिए वे इसका स्थायी समाधान किये जाने के हिमायती थे। उन्होंने यह माना है कि मुसलमानों को दिये गए संवैधानिक संरक्षण उन्हें हिन्दू बहुसंख्यकों के अत्याचार से बचाने में असफल रहे हैं, इसलिए अलग पाकिस्तान की मांग को समर्थन मिला था। 
फिरकापरस्त हिंदूवादी शक्तियों के इतिहास दृष्टि को भी डॉ. अंबेडकर ने चुनौती दी है। भारत पर मुस्लिम शासकों के हमले को डॉ. अंबेडकर भारत के विरुद्ध हुआ आक्रमण मानने के साथ-साथ मुसलमानों के बीच पारस्परिक युद्ध के नजरिए से भी देखते हैं। वे बताते हैं कि यह तथ्य इसलिए छिपा रहा है क्योंकि सभी आक्रांताओं को बिना किसी भेदभाव के सामूहिक तौर पर मुसलमान करार दिया जाता है। परंतु तथ्य यह है कि मुस्लिम आक्रांताओं में कोई तातार थे तो कोई अफगान और मंगोल थे। मुहम्मद गजनी तातार था। मुहम्मद गौरी अफगानी था। तैमूर मंगोल था। बाबर तातार था, जबकि नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली अफगानी थे। अफगानों का भारत पर हमला करने के पीछे एक मकसद तातारों को तबाह करना और मंगोलों के हमले के पीछे तातारों व अफगानों को तबाह करना भी था। वे एक दूसरे के जानी दुश्मन थे। लेकिन इतना तो था कि इनके बीच हिन्दू धर्म के विध्वंस की समान भावना थी। 

डॉ. अंबेडकर ने अपनी इस किताब में मुसलमानों के आक्रामकता के साथ-साथ हिंदुओं की आक्रामकता को भी रेखांकित किया है। उनके मुताबिक हिंदुओं का आक्रामक रवैया एक नया चरण है, जिसका विकास हाल ही में होना शुरू हुआ है। वे इस नये चरण के बारे में यहाँ तक कहते हैं कि यदि अवसर मिल जाये तो हिन्दू आक्रामकता गति पकड़ लेंगे और मुसलमानों को इस मामले में पीछे छोड़ देंगे। मोदी के नेतृत्व में बनी वर्तमान केंद्र सरकार और उनकी पार्टी बीजेपी-आरएसएस- विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि की बढ़ती आक्रामकता को बाबा साहब द्वारा चिन्हित इस संकेत के आईने में भली-भांति समझा जा सकता है। कांग्रेस ने बीजेपी-आरएसएस को वह अवसर उपलब्ध करा दिया है, जिसका भरपूर लाभ उठाते हुए वह हिन्दू आक्रामकता को चरम पर पहुंचाने में सफल रहा है। इसी पुस्तक में डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू महासभा की योजना को फूट डालने वाली और देश की प्रगति में बाधक बताया है। हिन्दू महासभा के ‘हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है’ के नारे को उन्होंने अहंकार से ग्रसित और नितांत मूर्खता पूर्ण करार दिया। दूसरी तरफ डॉ. अंबेडकर ने कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति को भी उस वक्त की मुस्लिम आक्रामकता को बढ़ाने के लिए जवाबदेह ठहराया है। आरएसएस-बीजेपी वाले केवल इस हिस्से पर ज़ोर डालते हैं, किन्तु हिन्दू महासभा की योजना पर उन्होंने जो कहा, उसकी मनमाने ढंग से उपेक्षा कर जाते हैं। डॉ. अंबेडकर हिन्दू-मुसलमानों की समस्या को तुष्टीकरण के बजाय ठोस समझौते के तहत सुलझाने के पक्षपाती रहे। वे स्वयं बताते हैं कि तुष्टीकरण का अर्थ होता है, आक्रमणकारी के द्वारा लगाई गई आग, लूट, बलात्कार और हत्या से प्रभावित हुए निर्दोष लोगों पर किये गए अपराधों की अनदेखी कर, अपराधियों को समझौते के मार्ग पर लाना। जबकि समझौते का अर्थ होता है लक्ष्म्ण रेखा निर्धारित करना, जिसका दोनों में से कोई पक्ष उल्लंघन नहीं कर सकता। 
हिन्दू बाहुल्य प्रान्तों में व्याप्त सांस्कृतिक विद्वेष को देखते हुए डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि हिन्दू प्रांत किसी भी लिहाज से सुखद परिवार नहीं हैं। यह नहीं माना जा सकता कि सिखों में बंगालियों में अथवा राजपूतों या मद्रासियों के प्रति कोमलता का कोई भाव है। बंगाली केवल स्वयं को प्रेम करता है। मद्रासी अपनी ही दुनिया से बंधे हैं। जहां तक मराठों का सवाल है, कौन नहीं जानता कि मराठे, जिन्होंने भारत में मुस्लिम साम्राज्य का विध्वंस किया था, भारत के शेष हिंदुओं के लिए ही आपदा बन गए थे, जिन्हें उन्होंने सताया और लगभग एक शताब्दी तक अपने अधिकार में रखा। डॉ. अंबेडकर आगे कहते हैं कि हिन्दू प्रान्तों की कोई साझा परंपरा और हिट भी नहीं है, जो उन्हें एक सूत्र में बांधे रखें। दूसरी ओर भाषा, जाती और अतीत से जुड़े विवाद प्रभावी ताक़तें हैं, जो उन्हें विभाजित किये हुए हैं। हालांकि वे यह संभावना देखते हैं कि हिन्दू संगठित होते जा रहे हैं और उनमें एक संयुक्त राष्ट्र बनाने की भावना बलवती हो रही है। किन्तु इसके साथ ही वे यह कहना भी नहीं भूलते कि यह अभी एक राष्ट्र बना नहीं है। वे एक राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में हैं, और इससे पहले कि यह प्रक्रिया पूर्ण हो, एक ऐसा आघात भी लग सकता है जो एक शताब्दी के तमाम किये-धरे पर ही पानी फेर दे।

निष्कर्षतः संघ चाहे ऐसी कितनी भी किताबें ले आएं पर जनता में अब बाबा साहब के मूल विचार इस तरह से फ़ैल चुके हैं की उनकी मेहनत का उनके मनमाफिक परिणाम आने की कोई संभावना नहीं दिखती. जैसा की दलित विचारक दिलीप मंडल कहते हैं- की संघ ना बाबा साहब को उगल पायेगा न निगल पायेगा. बाबा साहब संघ के गली में हड्डी की तरह अटैक जाएंगे। 

{नोट - नए पाठकों को यह सलाह दी जाती है की पहले बाबा साहब की मूल किताब "थॉट्स न पाकिस्तान " को पढ़ें. और पुराने पाठक इस भीषण ठंढ में इस किताब के दूसरे सदुपयोग पर भी विचार कर सकते हैं दूसरे सदुपयोग से पहले कवर पर लगी बाबा साहब की फोटो हटा दें . }

टिप्पणियाँ