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पुरी के मंदिर में प्रवेश नहीं कर सके पुनिया

दलित होने का मतलब और मर्म

रे धूर्त चपटी तुम्हारा चन्दन का टीका मेरी मेहनत से ज्यादा उपयोगी नहीं , मुझे पता है तुम्हारे जनेऊ में मरी हुई जुओं की गंध आती है जिनमे जीवन का नहीं मौत का भय दिखता है , मेरे देह का पसीना और गंध तुम्हारे सड़े हुए जनेऊ से लाख गुना बहतर है , आओ , मेरे पसीने से अपने बदन को रगडो और महसूस करो कि बू की कोई भाषा नहीं होती और गंध का कोई वजूद नहीं होता .......रवि विद्रोही ...

कचरे में जी रहे श्याम सहोदरों से खुद को मानकर विशिष्ठ दिखा रहे श्वेत मदार अपनी शान धर्म की महिमा महान

अभी इस घटना के गुजरे ज्यादा दिन नहीं हुए हैं. १४ साल का विनीत अपनी छोटी बहन श्रुति को रिजल्ट आने के पहले कोयम्बतूर के एक मंदिर में भभूत लगाने ले गया. उस मंदिर के पुजारी और उसके बेटे ने विनीत की भरपूर पिटाई कर दी. कसूर सिर्फ इतना की वो बच्चे ""दलित"" जाति के हैं. और उनके प्रवेश से मंदिर 'अपवित्र ' हो गया तो क्या हिन्दू धर्म इतना कमजोर है की एक बच्चे के प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाता है? क्या हिन्दू धर्म को छोड़कर पूरी दुनिया में ऐसा कोई धर्म है जिसकी मान्यताएं इतनी घिनौनी हो? क्या २२ वीं सदी के दहलीज़ पर खड़े इस देश में अब भी इंसान को इंसान नहीं समझा जायेगा? कभी सवा लग्घा दूर से ही "अपवित्र " कर देने वाले ये दलित जाति के लोग कब तक अछूत रहेंगे?

Sandeep Mourya आरक्षण के कानून को ठेंगा दिखा रही नीतीश सरकार........................... सामान्य तौर पर गलती करना मनुष्य का मौलिक गुण है। गलतियां दो प्रकार की होती हैं। एक वह जो अंजाने में हो जाये और दूसरी गलती वह, जो जानबुझकर की जाये। जाहिरतौर पर पहली गलती को क्षमा योग्य माना जा सकता है, लेकिन दूसरी गलती को भी इसी श्रेणी में रखा जाये, ऐसा कहना वाजिब तो नहीं ही होगा। यह कहना अतिश्योक्ति ही होगी कि बिहार में सामाजिक न्याय की सरकार है, जिसका नारा है न्याय के साथ विकास। बहुत सारे पाठकों को संभवतः इसकी जानकारी न हो(जिन्हें ज्ञात है, वे कृपया मुझे क्षमा करेंगे) भारतीय संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद शब्द शुरु शुरु में नहीं था। वह तो दलितों और पिछड़ों में हुए राजनीतिक उभार का ही परिणाम रहा कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने संविधान में संशोधन कर प्रस्तावना में समाजवाद शब्द अलग से जुड़वाया। यह एक प्रकार से देश के शुद्रों की दूसरी जीत थी। दूसरी इसलिये कि पहली जीत तो बाबा साहब डा भीमराव आंबेदकर ने ही जीत ली थी। उन्होंने संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को सुनिश्चित कर दिया था। हालांकि इन्दिरा गांधी ने जिस मजबूरी के कारण शूद्रों को उनकी वाजिब जीत देने का निर्णय लिया था, संभवतः उनकी वही मजबूरी संपूर्ण क्रांति की सबसे बड़ी वजह भी साबित हुई। समाजवाद शब्द जोड़े जाने के बाद दलितों और पिछड़ों के सर्वांगीण विकास के लिये इन्दिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने ही भारतीय बजट में पहली बार स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत विभिन्न जातियों और समुदाय के लोगों के लिए उनकी संख्यात्मक भागीदारी के तर्ज पर बजटीय आवंटन करने की पहल की गई थी। खैर, बिहार में अभीतक एससीपी का प्रावधान अभीतक नहीं किया गया है। यानि जिन दलितों के कल्याण का दावा राज्य सरकार के मुखिया आये दिन अपने भाषणों में करते हैं, दरअसल उनके लिये राज्य सरकार द्वारा कुछ भी ऐसा नहीं किया गया, जिससे उनका शैक्षणिक और आर्थिक विकास हो सके। इसका एक और प्रमाण यह कि राज्य में आरक्षण के नियमों का खुल्लमखुला उल्लंघन किया जा रहा है। राज्य के अनेक विभागों में राज्य सरकार द्वारा संविदा के आधार पर नियुक्तियां की जा रही हैं। एक तो संविदा के आधार पर नियुक्ति ही श्रमिकों के लिये अहितकर है। दूसरी समस्या यह है कि एजेंसियों द्वारा किये गये नियुक्तियों में आरक्षण का अनुपालन नहीं किया जाता है। बहरहाल, बिहार में आरक्षण का उल्लंघन बेरोकटोक किये जा रहा है। ऐसे में वे संगठनें जो स्वयं को दलितों और पिछड़ों के क्लयाण करने के नाम पर अपना पेट चलाती हैं, वे भी खामोश रहकर राज्य सरकार द्वारा की जा रही बेईमानी का समर्थन करती नजर आ रही हैं। वैसे इनके खामोश रहने की सबसे बड़ी वजह यह कि सूबे में विपक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।

Sandeep Mourya आरक्षण के कानून को ठेंगा दिखा रही नीतीश सरकार........................... सामान्य तौर पर गलती करना मनुष्य का मौलिक गुण है। गलतियां दो प्रकार की होती हैं। एक वह जो अंजाने में हो जाये और दूसरी गलती वह, जो जानबुझकर की जाये। जाहिरतौर पर पहली गलती को क्षमा योग्य माना जा सकता है, लेकिन दूसरी गलती को भी इसी श्रेणी में रखा जाये, ऐसा कहना वाजिब तो नहीं ही होगा। यह कहना अतिश्योक्ति ही होगी कि बिहार में सामाजिक न्याय की सरकार है, जिसका नारा है न्याय के साथ विकास। बहुत सारे पाठकों को संभवतः इसकी जानकारी न हो(जिन्हें ज्ञात है, वे कृपया मुझे क्षमा करेंगे) भारतीय संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद शब्द शुरु शुरु में नहीं था। वह तो दलितों और पिछड़ों में हुए राजनीतिक उभार का ही परिणाम रहा कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने संविधान में संशोधन कर प्रस्तावना में समाजवाद शब्द अलग से जुड़वाया। यह एक प्रकार से देश के शुद्रों की दूसरी जीत थी। दूसरी इसलिये कि पहली जीत तो बाबा साहब डा भीमराव आंबेदकर ने ही जीत ली थी। उन्होंने संविधान में दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को सुनिश्चित कर दिया था। हालांकि इन्दिरा गांधी ने जिस मजबूरी के कारण शूद्रों को उनकी वाजिब जीत देने का निर्णय लिया था, संभवतः उनकी वही मजबूरी संपूर्ण क्रांति की सबसे बड़ी वजह भी साबित हुई। समाजवाद शब्द जोड़े जाने के बाद दलितों और पिछड़ों के सर्वांगीण विकास के लिये इन्दिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा की। इसके अलावा उन्होंने ही भारतीय बजट में पहली बार स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत विभिन्न जातियों और समुदाय के लोगों के लिए उनकी संख्यात्मक भागीदारी के तर्ज पर बजटीय आवंटन करने की पहल की गई थी। खैर, बिहार में अभीतक एससीपी का प्रावधान अभीतक नहीं किया गया है। यानि जिन दलितों के कल्याण का दावा राज्य सरकार के मुखिया आये दिन अपने भाषणों में करते हैं, दरअसल उनके लिये राज्य सरकार द्वारा कुछ भी ऐसा नहीं किया गया, जिससे उनका शैक्षणिक और आर्थिक विकास हो सके। इसका एक और प्रमाण यह कि राज्य में आरक्षण के नियमों का खुल्लमखुला उल्लंघन किया जा रहा है। राज्य के अनेक विभागों में राज्य सरकार द्वारा संविदा के आधार पर नियुक्तियां की जा रही हैं। एक तो संविदा के आधार पर नियुक्ति ही श्रमिकों के लिये अहितकर है। दूसरी समस्या यह है कि एजेंसियों द्वारा किये गये नियुक्तियों में आरक्षण का अनुपालन नहीं किया जाता है। बहरहाल, बिहार में आरक्षण का उल्लंघन बेरोकटोक किये जा रहा है। ऐसे में वे संगठनें जो स्वयं को दलितों और पिछड़ों के क्लयाण करने के नाम पर अपना पेट चलाती हैं, वे भी खामोश रहकर राज्य सरकार द्वारा की जा रही बेईमानी का समर्थन करती नजर आ रही हैं। वैसे इनके खामोश रहने की सबसे बड़ी वजह यह कि सूबे में विपक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है।

खत्म नहीं हो रही बाल मजदूरी May 31, 11:20 pm बताएं भागलपुर/निज प्रतिनिधि इसे गरीबी की मार कहें या फिर सरकारी तंत्र की लापरवाही। सरकारी राशि खर्च करने के बावजूद प्रमंडल से खत्म नहीं हो रही बाल मजदूरी प्रथा। एक सर्वे के मुताबिक अभी भी भागलपुर और बांका में 1802 बाल मजदूर कार्यरत हैं। केंद्र सरकार इनके उन्नयन के लिए फिर से योजना बनाई है। ऐसे बच्चों को श्रम विभाग भी मुक्त कराने की योजना बना चुका है। गरीबी ने निम्न आर्थिक आय वाले परिवारों के बच्चों को मजदूरी करने के लिए मजबूर कर दिया है। आज भी मोटर गेराज, ईट भट्ठा और होटलों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे काम करते देखे जा सकते हैं। ऐसे बच्चों को अंतरराष्ट्रीय बाल मजदूर दिवस से कोई मतलब नही। क्योंकि इन्हें तो पेट की भूख ने मजदूरी करने को विवश कर दिया है। भागलपुर प्रमंडल में सर्वे करा कर ऐसे 1802 बच्चों को चिह्नित किया गया है। यह बच्चे अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे हैं। ऐसे बच्चों को श्रम विभाग ने शीघ्र मुक्त कराकर मुख्य धारा से जोड़ने की योजना बना रखी है। गत वित्तीय वर्ष में भागलपुर से 54 और बांका से 59 बाल मजदूरों को मुक्त कराने का काम श्रम विभाग के धावा दल ने किया था। ---------- श्रम विभाग का धावा दल ऐसे 1802 बच्चों को जो कहीं न कहीं काम कर रहे हैं मुक्त कराने का काम करेगा। इसके लिए प्रखंड से जिला स्तर पर धावा दल का गठन किया गया है। पूर्व में मुक्त कराए गए बच्चों का उन्नयन विद्यालय नामांकन करा कर उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का काम चल रहा है। -जावेद रहमत, श्रम अधीक्षक --------------- क्या है सरकार की योजना चिह्नित बाल मजदूरों को मुक्त कराने के बाद शिक्षा ग्रहण करने के लिए उनका नामांकन एनसीएलपी के विद्यालय में कराया जाएगा। इसके लिए इस वित्तीय वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा जिले में 33 बाल श्रमिक विशेष विद्यालय खोलने की योजना बनाई गई है। उस विद्यालय में चिह्नित 1802 में से 1644 वैसे बच्चों को जिनकी उम्र नौ से 14 वर्ष के बीच है, का नामांकन कराया जाएगा। शेष 158 बच्चों को जिनकी उम्र पांच वर्ष तक की है उनका नामांकन प्रतिक्षा सूची में रहेगी। विद्यालय में जगह खाली होने के साथ ही उनका नामांकन करा दिया जाएगा। -संजय कुमार, परियोजना निदेशक